Friday 19 June 2020

झोंपड़ी का खेल-कहानी-देवेन्द्र कुमार


   झोंपड़ी का खेल-कहानी-देवेन्द्र कुमार
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         मैं घर से निकला तो तेज हवा से सामना हुआ।शायद तूफ़ान आने वाला था।मुझे लगा इस समय घर में ही रहना ठीक है। मैं वापस लौटने के लिए मुड़ने लगा तभी नज़र कुछ दूर झाड़ियों में अटके और हवा में फड़फडाते कागज पर पड़ी। मैंने बढ़ कर कागज़ को उठा लिया। उस कागज पर दो रेखा चित्र बने हुए थे,एक झोपड़ी और उसके पास एक ऊँची इमारत।इन्हें  किसने बनाया होगा? मैं सोचने लगा तभी एक लड़का भागता हुआ आया।वह इधर उधर देखता हुआ बडबडा रहा था-’ मेरी झोंपड़ी कहाँ गई।’
   मैंने कहा-‘कहीं तुम इसे तो नहीं खोज रहे हो?’मैंने वह कागज दिखाया तो उसने जैसे झपट कर मेरे हाथ से ले लिया।मैंने पूछा-‘ क्या ये दोनों रेखा चित्र तुमने बनाये हैं?’
  ‘झोंपड़ी तो मैंने बनाई है और यह ऊँची इमारत की ड्राइंग बनाई है नीरव ने।हम दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते हैं और दोस्त हैं। मेरा नाम रजत है।
    ‘तुमने झोंपडी का रेखा चित्र बनाया और तुम्हारे दोस्त ने ऊँची इमारत का। ऐसा क्यों! आस पास ऊँची इमारतें तो कई हैं,पर झोंपड़ी तो एक भी नहीं।’ मैंने पूछा।
  जी,यह झोंपड़ी उस गाँव में  है जहाँ मेरी दादी जी रहती हैं।इसे बनाने से पहले मैंने पिताजी से पूछा तो उन्होंने एक स्लेट पर चाक से झोपडी का डिजाइन बना दिया,जिसे देख कर मैंने यह रेखा चित्र तैयार किया है।’   
 पूछने पर पता चला कि नीरव हमारी सोसाइटी के फ़्लैट में रहता है जबकि रजत का परिवार पास की बस्ती में।रजत ने कहा-‘जब हम दोनों नीचे आये तो तेज हवा में ड्राइंग शीट उड़ गई।अगर आप इसे न  उठाते तो यह कभी न मिलती। जब रजत यह कह रहा था तभी उसने नीरव को आते देखा,बोला –‘साथ में उसकी मम्मी भी हैं।’नीरव ने ड्राइंग शीट रजत के हाथ से ले ली।फिर अपनी मम्मी को दिखा कर बोला  -‘देखो मेरी बनाई ड्राइंग।’नीरव की माँ कुछ पल रेखा चित्रों को देखती रही फिर बोली-‘झोंपड़ी का चित्र  बहुत सुंदर बना है।’
  उन्होंने मेरी ओर देखा तो रजत ने कहा कि इन्होने ही  हमारी ड्राइंग को खोजा है जो हवा में उड़ गई थी। नीरव की माँ लता बोली -‘नीरव के पापा का बचपन गाँव में बीता था पर मैं तो सदा शहर में रही हूँ।मेरी बहुत इच्छा है कि कभी गाँव जाकर देखूं कि वहां का वातावरण और लोग कैसे हैं।’
रजत ने कहा-‘हम लोग दादी से मिलने गाँव जाने का प्रोग्राम बना रहे हैं,आप सब भी चलिए न हमारे साथ।’
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    ‘यह तो बहुत अच्छा रहेगा।मैं आज ही नीरव के पापा से बात करूंगी।’-लता जी ने कहा।मैंने मजाक में कहा –बच्चा लोगो,इस अंकल को मत भूल जाना।’’ मेरा बचपन गाँव में बीता था पर मैं भी काफी वर्षों से गाँव नहीं गया था।
  ‘आपको भला कैसे भूल सकते हैं,आप ने ही तो हमारी ड्राइंग खोज कर दी है हमें।’ रजत बोला।
   तो प्रोग्राम बन गया।रजत के पिता ने माँ के पास खबर भेज दी कि अगले रविवार को वह कई जनों के साथ उनसे मिलने गाँव आ रहे हैं।छोटी बस किराये पर लेकर शहर गाँव से मिलने चल दिया। सभी बहुत उत्साहित थे। लता और रजत की माँ आभा ने मिल कर काफी भोजन बना लिया,उनका ख्याल था कि रजत की दादी के लिए इतने लोगों के लिए भोजन का इंतजाम करना मुश्किल होगा।
  दादी हमें घर के बाहर खड़ी मिली। उनके साथ उनके मुंह बोले भाई रामभज और उनकी पत्नी लखमा भी थी।पता चला वे दोनों दादी के साथ रहते हैं।उनकी देखभाल के साथ साथ रामभज झोंपड़ी के पीछे लगे फल फूलों का भी ध्यान रखते थे।
 साफ़ सुथरे  और लिपे पुते खुले आँगन में चूल्हे पर कुछ पक रहा था।सब तरफ स्वादिष्ट गंध फैली थी। दादी ने कहा-‘आप सब हाथ मुंह धो कर आ जाओ और गाँव के सादे और ताजे खाने का आनंद लो।’ इस पर रजत की माँ विभा ने कहा-‘हम तो अपने साथ काफी खाना बना कर लाये हैं।हमने सोचा था कि इतने सारे लोगों का भोजन बनाने में कहीं आपको झंझट न हो।’कुछ देर की चुप्पी के बाद दादी ने कहा -‘ तुम शहरियों की यही दिक्कत है कि गाँव को अपने से छोटा समझते हो।अपना पकाया तो रोज ही खाते हो,  आज गाँव के सादे और गरमागरम खाने का आनंद लो। पता है मैं और लखमा कब से खाना बनाने में लगे हैं।’
  अब कुछ कहने की गुंजाइश नहीं थी। दादी ने कहा-‘तुम्हारा खाना बेकार नहीं जाएगा।’उन्होंने रामभज  से कहा तो वह कुछ बच्चों को बुला लाये।दादी ने उनसे कहा -‘ तुम्हारी भाभियाँ शहर से तुम सब के             
लिए  बढ़िया पकवान बना कर लाई हैं।’ हमने दादी के बनाये ताजे भोजन का आनंद लिया                और गाँव के बच्चों ने हमारे लाये भोजन का। दादी ने बताया कि गाँव के बच्चे हर रात उनसे कहानियां सुनने आ जाते हैं।
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   भोजन के बाद हम सब गाँव घूमने निकल पड़े,रामभज हमारे साथ थे।तभी नीरव के पिता रमेश बोले-‘मेरा गाँव मिराज यहाँ से  केवल दस किलोमीटर दूर है,आज लगभग तीस साल बाद न जाने कैसे  इस तरफ आने का अवसर मिला है,मेरा मन अपने पुराने घर को देखने का हो रहा है।न जाने फिर इस ओर आने का सुयोग मिले न मिले।’ हमने दादी को इस बारे में बताया तो वह बोलीं-‘ जरूर जाना चाहिए।शहर और गाँव का रिश्ता बना रहना चाहिए।’
  दादी से विदा लेकर हम  मिराज की ओर चल दिए। अपने पुश्तैनी घर के सामने पहुँच कर रमेश अपलक देखते रह गए। मकान खंडहर हो गया था। दरवाजे के पल्ले गायब थे, अंदर आँगन में जंगली  घास उगी हुई थी। एक कोठरी के दरवाजे की कुण्डी खोल कर रमेश अंदर घुस गए। कुछ देर बाद एक  संदूक बाहर लाये।उसका  ढक्कन उठा कर देखते रहे फिर एक बहुत पुराना फोटो बाहर निकाला।उसमें एक आदमी एक बच्चे को गोद में लिए खड़ा था।रमेश कुछ देर तक फोटो पर हाथ फिराते रहे जैसे किसी को प्यार कर रहे हों। बोले ‘यह मेरे पिता जी हैं और इनकी गोद में जो बच्चा है वह में हूँ।यहाँ आकर मुझे तो जैसे अमूल्य खज़ाना ही मिल गया है।’ उनका स्वर भावुक हो गया था।
  गाँव वालों ने हमारे ठहरने का प्रबंध पंचायत घर में कर दिया।फिर चाय नाश्ता आ गया।चाय पीकर   हम सब मिराज की गलियों में घूमने लगे।आकाश में अनेक परिंदे उड़ रहे थे।एक गाँव वाले ने कहा-‘आपने यहाँ के पक्षी द्वीप का नाम जरूर सुना होगा।फिर एक आदमी से कहा-‘साहब लोगों को द्वीप की सैर पर ले जाओ।’ वह था दीनू मल्लाह।
   दीनू अपनी नाव में हमें पक्षी  द्वीप  पर ले गया। नदी के चौडे पाट  के बीच छोटा सा द्वीप एक उभरी और चौड़ी पट्टी के रूप में था। सब तरफ घनी हरियाली के बीच संकरी पगडंडियों पर चलते हुए हमने पूरा द्वीप घूम लिया। हरियाली में रंगबिरंगे फूलों की बहार थी। हवा में भीनी भीनी सुगंध फैली थी।आकाश में अनेक परिंदे उड़ रहे थे।बीच बीच में कई पक्षी घास के बीच उतर आते थे।और कुछ देर बाद फिर उड़ जाते थे। दीनू ने बताया कि सर्दी के मौसम में उत्तर से बहुत सारे विदेशी पक्षी द्वीप पर आते हैं और कई महीने तक यहाँ रहते हैं,सर्दी कम होने पर वापस उड़ जाते हैं।
   गाँव वालों ने बताया कि विदेशी पक्षियों के आने के साथ मिराज  में ढेर सारे देसी-विदेशी सैलानी भी आ जुटते हैं। वे लोग दिन भर पक्षी द्वीप पर परिंदों के फोटो उतारते हैं और रातें  अपने साथ लाये तम्बुओं में गुजारते हैं। दो महीनो तक मिराज में मेला सा लगा रहता है। और जैसे ही प्रवासी पक्षी वापस उत्तर की ओर उड़ान भरते हैं, सैलानी भी गायब हो जाते हैं।
  इस बीच रमेश जैसे कुछ सोच रहे थे।उन्होंने कहा-‘ मुझे लगता था कि इस बार की बरसात में खंडहर  मकान मिटटी के ढेर में बदल जाएगा,पर अब मेरे मन में एक विचार उभर रहा है।’
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     ‘कैसा विचार?’ लता जी ने पूछा।
      रमेश ने कहा-‘मकान की मरम्मत करके इसे सैलानियों के विश्राम घर का रूप दिया जा सकता है।’
       ‘यह तो बहुत अच्छा विचार है।’ मिराज के मुखिया ने कहा।बस बात तय हो गई।रमेश ने मुखिया को कुछ रकम दे दी। मुखिया ने कहा कि वह जल्दी  ही  मकान को रहने लायक बनवा देंगे।
  हम सब शहर लौट आये। पन्द्रह दिन बाद मुखिया जी का सन्देश मिला। उन्होंने हम सबको मिराज बुलाया था। एक रविवार को हम सब एक बार फिर से यात्रा पर चल दिए।पहला पड़ाव रजत की दादी का घर था।भोजन के बाद हम लोग रमेश के गाँव मिराज की ओर चल दिए। अपने खंडहर घर का नया रूप देख कर रमेश चकित रह गए।चौखट में नए पल्ले लग गए थे।आँगन से जंगली घास गायब हो गई थी,  दीवारों की  दरारें भर कर उन पर नया रंग कर दिया गया था।कोठरियों में बिजली का इंतजाम होगया था। घर के दरवाजे पर बडे  बड़े शब्दों में लिखा ‘पक्षी प्रेमी सैलानियों के लिए’ दूर से ही पढ़ा जा सकता था।
   अभी उत्तर से प्रवासी परिंदों के पक्षी द्वीप पर आने में कुछ समय था,लेकिन कई पक्षी प्रेमी अभी से मिराज आ पहुंचे थे। गाँव वालों से रमेश का परिचय पाकर सैलानी बहुत खुश हुए। दीनू हमें अपनी नाव में द्वीप पर ले गया।बहुत सुंदर दृश्य था, धूप हलकी पड  गई थी, सूरज का लाल गोला अस्त हो रहा था।संध्या के जादू को आँखों में समेट कर हम लोग शहर की और लौट चले।बस आगे दौड़ रही थी पर मन था कि पीछे छूटा जा रहा था। क्या चमत्कार था! झोंपड़ी के खेल ने शहर और गाँव को फिर से मजबूती से जोड़ दिया था।(समाप्त)           
                         

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