Tuesday 31 March 2020

मिठास--कहानी--देवेन्द्र कुमार


मिठास—कहानी—देवेन्द्र कुमार
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  सोमू ने ध्यान से उधर देखा –अगल बगल रोशनी से चमकती दुकानों के बीच दबी सहमी सी संकरी छोटी सी जगह में पीला बल्ब जल रहा था। एक फट्टे पर दो थालियों में समोसे और गुलाब जामुन रखे थे। उनके पीछे दो जने बैठे थे – एक बूढी औरत और सात आठ साल का एक बच्चा।
   सोमू ने आस पास की दुकानों में पता किया था, गली में खड़े फेरी वालों से पूछा था। वह खस्ता हाल दुकान किसी नरेश की थी। वह अक्सर बीमार रहा करता था। इसलिए दुकान खुलती कम लेकिन बंद ज्यादा रहती थी। और नरेश की जगह उसकी बूढी माँ रामवती अपने पोते परेश के साथ बैठी नजर आती थी-- सामने समोसे और गुलाब जामुन रखे हुए, जो देखने से ही बासी लगते थे। सोमू ने कई दिन तक देखा और सोचा और फिर एक शाम रामवती के सामने जा खड़ा हुआ। वह दुकान पर कब्जा करने की स्कीम बना रहा था, क्योंकि नरेश तो अब नहीं रहा था।  
    ‘ माई, राम राम, समोसा और गुलाब जामुन तो देना।’
     रामवती ने झट पास रखी प्लेट उठा कर अपने आँचल से पोंछी और एक समोसा और एक गुलाब जामुन रख कर सोमू की ओर बढ़ा दी। सोमू प्लेट लेकर परेश के पास बैठ गया। वह खाना शुरू करता इसके पहले ही रामवती ने हडबडा कर कहा -–‘बेटा, माफ़ करना, ये गरम नहीं हैं।’
    ‘माई, भूख में सब चलता है,वैसे गरम होते तो...’—अपनी बात अधूरी छोड़ कर सोमू ने समोसा खाना शुरू कर दिया। फिर दूसरे हाथ से परेश के बाल सहला दिए। रामवती ध्यान से देख रही थी। परेश ने दादी की ओर देखा तो बोल उठी—‘ तेरे मामा हैं।’ अब परेश ने सोमू की ओर नजर घुमाई तो सोमू ने उसका कन्धा थपकते हुए कहा ‘माई ने सच कहा—मैं तेरा मामा ही तो हूँ।’ फिर झोले से प्लास्टिक का डिब्बा निकाल कर रामवती को थमा दिया। बोला—‘गुलाब जामुन इसमें और समोसे कागज की थैली में रख दो। मैं दोस्त के घर जा रहा हूँ। गरम करके खायेंगे तो मज़ा आएगा।’
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  रामवती असमंजस में थी। सोमू बोला—‘ क्या सोच रही हो। जितने गुलाब जामुन और समोसे  हैं, सब रख  दो।’
  ‘क्या सच! सारे लोगे,लेकिन...’  सोमू ने डिब्बा रामवती के हाथ से ले कर उस की मुश्किल आसान कर दी, फिर जेब से सौ रुपये का नोट निकाल कर उसे थमा दिया।
  वह बोली -–‘लेकिन मेरे पास छुट्टे नहीं हैं।’ ऐसा पहली बार हुआ था कि कोई  ग्राहक इतना सारा सामान ले रहा था। हंस कर सोमू ने कहा— ‘माई,चिंता मत कर। माँ –बेटे का हिसाब लम्बा चलेगा।  जल्दी चुकता होने वाला नहीं। बकाया फिर ले लूँगा।’ रामवती सोमू को जाते हुए देखती रही। परेश भी उधर ही ताक रहा था। दुकान बंद करके घर की ओर जाते हुए भी इसी बारे में सोच रही थी। कौनथा   यह अजनबी लड़का, जिसने नरेश की तरह माई पुकार कर उसके साथ बेटे का रिश्ता जोड़ लिया था।  रामवती घर पहुँच कर बहू रचना को कुछ बतलाती इससे पहले परेश बोल उठा—‘आज मामा आये थे और दादी को सौ का नोट दे गए।’  
    अब सोमू को अगली चाल चलनी थी। दूसरी शाम वह दुकान पर पहुंचा तो हडबडा गया—दुकान बंद थी। कुछ देर सोचता खड़ा रहा। अब क्या करे। तभी दूसरी तरफ खड़े फेरी वाले ने कहा – ‘आज दुकान नहीं खुली। शायद घर में किसी की तबीयत ख़राब हो। वैसे बेटे की मौत ने उसे तोड़ कर रख दिया है। पता नहीं किस उम्मीद में पोते के साथ यहाँ बैठी रहती है। मैंने तो कई बार समझाया है कि दुकान किसी को किराए पर दे दे या बेच कर छुट्टी करे। दुकान चलाना उसके बस की बातनहीं’   
  फेरी वाले के शब्द सोमू के कानों में जैसे मिठास घोल रहे थे। अगर ऐसा हो जाए तो...तो... पल भर में मन न जाने कितनी दूर उड़ गया। फिर अचकचा कर बोला—‘तुम किसी की बीमारी के बारे में कह रहे थे। पता ठिकाना मालूम होता तो जा कर देख आता।’
  ‘मैंने शायद तुम्हें कल भी देखा था। मैं रामवती के घर के पास ही रहता हूँ। आओ ले चलूँ।’गलियाँ पार करके फेरीवाला एक दरवाजे के सामने रुक गया। उसने आवाज लगाईं और दरवाज़ा खडका दिया। दरवाज़ा परेश ने खोला। सोमू को देखते ही मुड़ कर चिल्लाया—‘दादी, मामा आये हैं।’ सोमू अंदर घुसा तो देखा—रामवती चटाई पर हाथ टेक कर उठने की कोशिश कर रही थी। बोला—‘माई,लेटी रहो।बताओ तबीयत कैसी है।’  
   ‘मैं ठीक हूँ। तू अपनी बता।’—कहते हुए रामवती ने मुस्कराने का प्रयास किया।
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  ‘तेरा हाथ मेरे सिर पर है तो मुझे क्या चिंता।’—कहते हुए सोमू ने रामवती  का हाथ पकड़ कर अपने सिर पर रखा तो चौंक पड़ा। उसे तेज बुखार था। परेश से बोला—‘ तेरी दादी को तो डाक्टर को दिखाना होगा।’ जवाब में रचना ने कहा—‘ मैं तो सुबह् से कई बार डाक्टर को दिखाने की बात कह चुकी हूँ ,लेकिन...’
  ‘अभी आया।’—कह कर सोमू बाहर निकल गया। कुछ देर बाद लौटा तो रामवती की बांह पकड़ कर बोला –‘रिक्शा बाहर खड़ी है,आओ।’ फिर साथ में परेश को भी ले लिया। रामवती के लौटने तक रचना ने इखरे-- बिखरे घर को कुछ संवार दिया। सोमू ने रामवती को दवा दी और कहा—‘अब चलता हूँ, कल फिर आऊंगा।’ लेकिन रामवती की पुकार ने रोक लिया। बोली—‘ उस दिन ठन्डे समोसे और गुलाब जामुन ले गया था। आज गरम चाय है, पीकर जाना।’ वह रामवती के पास ही बैठ गया। उसके मन ने कहा—‘सोमू ,तेरा काम हो गया।’
  चाय पीते पीते सोमू ने घर को अच्छी तरह निरख परख लिया। उसने एक बर्तन में रखे गुलाब जामुन देखे और कुछ कहने को हुआ, पर रचना पहले ही बोल पड़ी—‘मैंने गुलाब जामुन बहुत पहले ही बना लिए थे, फिर अम्माजी की तबियत बिगड़ गयी। समोसे नहीं बन सके।’
  ‘कोई बात नहीं। एक काम करो, यह गुलाब जामुन वाला बर्तन मुझे दे दो।’
  ‘पर आप इतने सारे गुलाब जामुनों का क्या करेंगे?’
  ‘यह भी खूब कहा। खुद खाऊंगा और दोस्तों को खिलाऊंगा।’फिर रामवती से बोला-‘माई, अब कुछ दिन दुकान पर मत बैठना, वर्ना तबीयत ज्यादा बिगड़ जायेगी।’
‘लेकिन...’
‘लेकिन वेकिन रहने दो। मैंने दुकान ठीक ढंग से चलाने के बारे में कुछ सोचा है।’
  फिर आने की बात कह कर सोमू बाहर चला आया।वह कई बार रामवती का हाल चाल लेने गया। उसे देख कर रामवती जैसे निहाल हो जाती थी।उसके जीवन में ऐसा पहली बार था कि किसी गैर ने उसके मन में इतनी गहरी जगह बना ली थी।और फिर एक दिन सोमू सबको दुकान पर ले गया, आसपास की चहल पहल के बीच अपनी उदास,उजाड़ दुकान रामवती और रचना को दुखी कर गई। सोमू बड़े ध्यान से उनके हाव भाव परख रहा था। कुछ देर की चुप्पी के बाद सोमू ने कहा- ‘मैंने परेश के बारे में कुछ सोचा है।’    
‘परेश के बारे में क्या...’
‘यही कि दुकान के चक्कर में नरेश की माई परेश का जीवन नष्ट कर रही है।’ –सोमू ने गंभीर स्वर में कहा।’बचपन पढाई और खेल कूद के लिए होता है। लेकिन तुम उसे सारा दिन दुकान पर अपने साथ बांधे रखती हो। हमें परेश के बचपन के बारे में भी तो सोचना चाहिए। हमें इसे स्कूल भेजना चाहिए।’
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‘पर मैं अकेली तो दुकान चला नहीं सकती।’
‘मैं भी यही चाहती हूँ कि परेश पढाई करे। इसके पापा की भी यही इच्छा थी।’—रचना बोली।
‘हमारे घर के पास एक अध्यापक रहते हैं। मैंने परेश के बारे में उनसे बात की थी। उनका कहना है कि पहले परेश को उनके पास भेजा जाए, ताकि वह समझ सकें कि परेश को किस क्लास में प्रवेश मिल सकता है।’
                            
‘यह तो बहुत अच्छा रहेगा।’—रचना ने उत्साहित स्वर में कहा।
‘ लेकिन दुकान...’ –रामवती बीच में रुक गई।
‘माई, मैंने इसका भी इंतजाम कर लिया है।’—सोमू ने रामवती का हाथ पकड़ कर कहा—‘मैं एक कारीगर को जानता हूँ जो अच्छी मिठाई बना सकता है,’ फिर रचना की ओर देख कर बोला –‘अब तुम्हें घर पर गुलाब जामुन और समोसे बनाने की जरूरत नहीं। माई सुबह आकर दुकान खोल देगी,फिर कारीगार गुलाब जामुन और समोसे बना देगा।’
‘मैं अकेली’—रामवती ने कहना चाहा।
‘तुम्हारे साथ रचना भी रह सकती है। मास्टरजी से पढ़ कर परेश भी यहीं आ जाया करेगा।’  
रामवती ने कहा—‘अब मेरी भी सुन ले। मैं इतना झंझट नहीं कर सकती। तू दुकान संभाल, हमें आराम से रहने दे।’
सोमू के मन में ख़ुशी फूटने लगी। अरे,उसकी योजना कितनी आसानी से सफल हो गई थी। लेकिन कुछ तो कहना ही था। ‘माई, तुम चाहती हो कि मैं तुम्हारी मुसीबत अपने गले में डाल लूं। ना माई ना। मैं इतना पागल नहीं। तुम जानो तुम्हारा काम। हाँ परेश को अध्यापक से जरूर मिला दूंगा। मिठाई बनाने वाला कारीगर भी कल से आ जायेगा। मैं यह चला।’ और वह चुपचाप उठ कर चला गया।
’अरे सुन तो।’—रामवती पुकारती रह गई, पर सोमू रुका नहीं। ‘अब शायद नहीं आयेंगे।’—रचना ने उदास स्वर में कहा। लेकिन अगली सुबह वह परेश को अध्यापक के पास ले जाने के लिए आगया,    बोला—‘परेश को मास्टरजी के पास छोड़ कर मैं मिठाई वाले कारीगर के साथ दुकान पर पहुँचता हूँ,  तुम दोनों भी आ जाओ।’
हलवाई ने समोसे और गुलाब जामुन बना दिए। कई ग्राहक मिठाई ले गए। दोपहर में सोमू परेश को दुकान पर छोड़ गया। रचना से बोला—‘अब तुम्हें मेरी जरूरत नहीं पड़ेगी। हलवाई का हिसाब सप्ताह के अंत में करती  रहना।’                                 
‘ पर तू कहाँ जा रहा है?’—रामवती ने कहा। ‘मैंने तुझ से दुकान सँभालने को कहा और तू है कि डर कर भाग रहा है।’
               
‘हाँ मैं डरता हूँ तो बस अपने से। वैसे मैं कहीं जा नहीं रहा हूँ। बीच बीच में आकर देखता रहूँगा कि तुम अपने बेटे का नाम कितना आगे बढ़ा रही हो, और परेश की पढाई कैसी चल रही है।’—कह कर सोमू रामवती के पैरों पर झुक गया। उसका हाथ पकड़कर अपने सर पर रख लिया, फिर     तेजी से चला गया।
नरेश की दुकान अब अच्छी चल रही है। परेश को स्कूल में प्रवेश मिल गया है। लेकिन दुकान को हथियाने के इरादे से आया सोमू कहाँ है? वह रामवती के साथ छल करना चाहता था,पर जरूरत नहीं पड़ी।रामवती तो खुद उसे दुकान देना चाहती थी, फिर क्यों नहीं ली! बेटे की याद में तड़पती माँ से उसका सहारा छीनने की उलझन में सोमू रामवती और परेश के कितना निकट चला गया था, यह उसे पता ही नहीं चला।और जब मालूम हुआ तो...                                 ( समाप्त )

Tuesday 24 March 2020

कान और हाथ-कहानी-देवेन्द्र कुमार


 कान और हाथ—कहानी—देवेन्द्र कुमार
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  आज रविवार है,एग्रो पब्लिक स्कूल में त्यौहार का वातावरण है, सरदी की गुनगुनी धूप में स्कूल के मैदान में बच्चों के रंग बिरंगे परिधान इंद्रधनुषी छटा बिखेर रहे थे। स्कूल में बच्चों की चित्र कला  प्रतियोगिता हो रही थी। बाल चित्रकारों के हाथ और चेहरों पर रंग लग गए थे,पर इस सबसे बेखबर बच्चे चित्र बनाने में जुटे थे। स्कूल की अध्यापिकाएं बच्चो के बीच घूम घूम कर उनका उत्साह बढ़ा रही थीं। 

  आखिर प्रतियोगिता समाप्त हुई। बाल कलाकारों ने अपने अपने चित्र निर्णायकों को सौँप दिए।   अब सबको परिणाम घोषित होने की प्रतीक्षा थी। सबसे अच्छे चित्र को प्रथम पुरस्कार के रूप में बहुत अच्छा इनाम मिलने वाला था। दस सांत्वना पुरस्कार भी दिए जाने वाले थे। चित्रकारी के बाद अब बच्चे नाश्ता कर रहे थे, लेकिन सबकी निगाहें निर्णायकों  की ओर लगी थीं जो एक एक चित्र को परख रहे थे। लेकिन एक समस्या थी--कई बच्चों ने अपने बनाये चित्र पर अपने नाम नहीं लिखे थे।लेकिन परिणाम तो घोषित करने ही थे।   

  सब जजों की राय में एक चित्र सबसे अच्छा था। लेकिन उसे बनाने वाले बच्चे ने एक विचित्र विषय चुना था, और उस चित्र पर कोई नाम भी नहीं था। चित्र में दो कान बनाये गए थे जिन्हें दो हाथों ने पकड़ा हुआ था। निश्चय ही चित्र में एक संकेत छिपा हुआ था। क्या बच्चा यह बता रहा था कि उसे दंड दिया जा रहा था अथवा उसने किसी को दंड मिलते देखा था। आखिर सच क्या था? क्या नाम न लिखने के पीछे यह डर काम कर रहा था कि उसकी पहचान उजागर होने पर उसे सजा मिल सकती थी।   
  कुछ देर तक आपस में विचार करने के बाद स्कूल की प्रिंसिपल लताजी माइक पर आईं। उन्होंने कहा- ‘बच्चो,निर्णायकों ने सबसे अच्छे चित्र का चुनाव कर लिया है,लेकिन एक समस्या है, चित्र पर उसे बनाने वाले ने अपना नाम नहीं लिखा है। हम चाहेंगे कि इसका चित्रकार सामने आकर प्रथम पुरस्कार प्राप्त करे।’ प्रिंसिपल ने ‘कान पकड़ हाथ’ वाला चित्र नोटिस बोर्ड पर लगा दिया। वहां मौजूद सब बच्चे तालियाँ बजाने लगे। सबको प्रथम पुरस्कार जीतने वाले अनाम बच्चे का इन्तजार था।   लेकिन काफी समय तक प्रतीक्षा करने के बाद भी कोई बच्चा पुरस्कार लेने नहीं आया। 
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  सब छात्र हैरान थे कि प्रथम पुरस्कार विजेता इनाम लेने क्यों नहीं आ रहा है, लेकिन प्रिंसिपल लताजी  तथा अन्य अध्यापिकाएं इसका कारण अच्छी तरह समझ चुकी थीं। निश्चय ही वह अपनी पहचान उजागर होने से डर रहा था। तब उस बच्चे को पहचानने का क्या उपाय था?यह एक गंभीर बात थी। लताजी ने स्कूल की सब टीचर्स की मीटिंग बुलाई। उन्होंने प्रत्येक टीचर से पूछा कि क्या उन्होंने कभी किसी छात्र को कोई सजा दी है, उसके साथ मारपीट की है?क्योंकि स्कूल में इस पर प्रतिबन्ध था। टीचर्स ने एक स्वर से छात्रों को कैसा भी दंड देने से इनकार किया। कहा-‘ अगर कोई छात्र कभी गलत आचरण करता है तो वे प्यार और समझाने का तरीका अपनाती हैं, दंड का नहीं।’
   तो क्या उस बच्चे को घर पर या कहीं और परेशान किया जाता है? इस बात को पता करने का क्या तरीका था? लताजी ने काफी सोच विचार के बाद एक तरीका अपनाया। उन्होंने ‘कान और हाथ’ वाला चित्र स्कूल के प्रवेश द्वार पर एक नोटिस बोर्ड पर लगा दिया। और फिर कुछ टीचर्स से वहां नज़र रखने को कहा। उन्हें यह देखना था कि क्या कोई छात्र बार बार उस चित्र के सामने आकर खड़ा होता है। यह उपाय कारगर साबित हुआ। ऐसे तीन छात्र थे जो बार बार आकर उस चित्र को देखते थे। उनके नाम थे-अमर, विनीत और रजत।   
  लताजी उन तीनों के के पेरेंट्स से बात चीत करना चाहती थीं लेकिन स्कूल में नहीं। वह समझ रही थीं इस बात का पता स्कूल में किसी को भी नहीं लगना चाहिए। उन्होंने तीनों के माँ बाप को बारी बारी से अपने घर बुलाया। और उन्हें सावधान कर दिया कि इस बारे में किसी से कुछ न कहें।   अमर और विनीत के माता पिता ने कसम खाकर कहा कि वे अपने बच्चे को कभी कैसा भी दंड नहीं देते। हमेशा प्यार से पेश आते हैं। लेकिन रजत के पैरेंट्स लताजी के इस प्रश्न का सही उत्तर नहीं दे सके। आखिर रजत की माँ ने पति के सामने ही बताया—‘ इन्हें जल्दी गुस्सा आ जाता है। मेरे बार बार समझाने पर भी उसे मारने लगते हैं।‘ जब रजत की माँ लताजी से बात कर रही थी तो रजत के पिता एकदम चुप बैठे थे।   
   लताजी ने रजत के पिता से प्रश्न किया तो कुछ देर चुप रहने के बाद उन्होंने कहा—‘ मैं मानता हूँ कि मुझे जल्दी गुस्सा आ जाता है। मैं अपने गुस्से पर काबू करने की बहुत कोशिश करता हूँ   लेकिन फिर भी... ’ कमरे में कुछ देर मौन छाया रहा। रजत के पिता के अटपटे व्यवहार से सारी  बात साफ़ हो गई। लताजी ने उन्हें शांत करते हुए कहा-‘ आपके गलत व्यवहार का रजत के कोमल मन पर बुरा प्रभाव पड रहा है। यह उसके लिए अच्छा नहीं है।’ मुझे आशा है कि आप रजत के साथ प्यार और समझदारी से पेश आयेंगे।‘ 
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  मैं उससे माफ़ी मांग लूँगा।’ रजत के पिता ने कहा तो लताजी ने उन्हें टोकते हुए कहा-‘ ऐसी गलती भूल कर भी मत करना। इस बारे में रजत को कुछ भी पता नहीं चलना चाहिए। हम सबको इस बात को एकदम भूल जाना चाहिए।’
  और ऐसा ही हुआ। स्कूल के नोटिस बोर्ड पर लगा चित्र गायब हो गया। सुबह की प्रार्थना सभा में लताजी ने कहा–‘ न जाने वह चित्र कहाँ गया। पता नहीं यह किसने किया है। हम बहुत कोशिश करने पर भी उस चित्र को बनाने वाले बच्चे की पहचान नहीं कर पाए।’
   लताजी रजत के माता पिता से निरंतर बात करती रहीं। रजत की माँ के अनुसार उसके पिता का व्यवहार एकदम बदल गया था। रजत के ‘कान पकड़ हाथ’ वाले चित्र ने अपना काम कर दिया था।  और कोई कुछ भी नहीं जान पाया था। वैसे रजत के बनाये चित्र को लताजी ने अपने पास        संभाल कर रख लिया था। लताजी किसी को कुछ बताने वाली नहीं थीं।   ( समाप्त)                                         

Saturday 21 March 2020

डबल ड्यूटी --कहानी-देवेन्द्र कुमार


डबल ड्यूटी—कहानी—देवेन्द्र कुमार 
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लखमा तेजी से हाथ चला रही है. आज उसे जल्दी घर जाना है. कोई  मेहमान आने वाला हैं. लेकिन काम तो पूरा करना ही है. लखमा बाज़ार में तीन दुकानों में सफाई का काम करती है. पति मजदूर है. दोनों के काम करने पर भी घर मुश्किल से चलता है. एक बेटा है अमर.  
दुकानों के बाहर बरामदे में पोंछा लगाते हुए लखमा की नज़र एक बच्चे पर पड़ी जो कुछ आगे एक दुकान के बाहर सफाई कर रहा था. लखमा देखती रही. बच्चा सात आठ साल का लग रहा था. वह उसे देखती रही. बच्चा कोशिश कर रहा था पर सफाई उससे हो नहीं रही थी. पानी की बाल्टी खिसकाते हुए वह फिसल गया और बाल्टी उलट गई. अब लखमा रुक न सकी. उसने बढ़ कर बच्चे को गोदी में उठा लिया और सिर सहलाते हुए बोली-‘’ तेरा नाम क्या है?’’
‘’ जानी.’’ उसने कहा.
‘’ तू यह काम क्यों कर रहा है? यह तेरे बस का नहीं है. ‘’ पूछने पर लखमा ने जान लिया कि जानी की माँ रेशमा बीमार है. वह भी लखमा की तरह दुकानों में सफाई का काम करती है. और उसने ही जानी को सफाई करने भेजा था. ऐसी स्थिति से कई बार लखमा को भी गुजरना पड़ा था. वह जानती थी कि ऐसे में काम हाथ से निकल जाता है. इसीलिए जानी की माँ ने बेटे को काम करने भेजा होगा.
लखमा ने जानी से कहा-‘’ बेटा, तू रहने दे. जा बच्चों के संग खेल. मैं अभी निपटा देती हूँ. ‘’ जानी हंसने लगा और सडक पर खेलते बच्चों के बीच चला गया. हालांकि लखमा को घर जाने की जल्दी थी, पर उसे जानी का अधूरा काम पूरा करना ही था. उसने जल्दी जल्दी काम निपटाया फिर घर की तरफ चल दी. उसने देखा जानी सड़क पर दूसरे बच्चों के साथ खेल रहा था, लखमा के होठों पर मुस्कान आ गई. उसे अच्छा लग रहा था. पर घर पहुँच कर मूड बिगड़ गया, उसे घर लौटने में देर हो गई थी. इसलिए मेहमान बिना मिले चला गया था.
अगली सुबह लखमा काम पर पहुंची तो जानी फिर वहाँ दिखाई दिया. इसका मतलब था कि जानी की माँ अभी बीमार थी. ‘ मुझे न जाने कितने दिन डबल ड्यूटी करनी होगी.’ वह यह सोच कर पछता रही थी कि उसने क्यों यह मुसीबत अपने ऊपर ले ली. वह जानी को सफाई करते देखती रही. वह ठीक तरह से काम कर नहीं पा रहा था. पर लखमा ने उसकी मदद नहीं की. लेकिन पोंछा लगाते हुए जब जानी दो बार फिसल गया तो लखमा रह न सकी. उसने जानी
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का हाथ पकड़ कर जोर से अपनी ओर खींचा और चिल्ला कर बोली--‘’ कल तुझे मना किया था न कि तू यह काम नहीं कर सकता. बता फिर क्यों आया ?’’
हाथ खींचने से जानी रो पड़ा. सुबकते हुए बोला--‘’ माँ ने भेजा है. उनकी तबीयत ठीक जो नहीं है.’’
‘’ चल मैं चलती हूँ तेरी माँ के पास, चाहे जो हो बस तुझे यहाँ नहीं आना है.’’ लखमा ने कहा और जानी के साथ उसकी माँ से मिलने चल दी. उसने जानी का काम अधूरा छोड़ दिया.वह   कुछ सोच रही थी.
जानी की माँ रेशमा छोटे से कमरे में जानी के साथ रहती थी. उसका पति दूसरे शहर में नौकरी करता था ओर कभी कभी ही यहाँ आया करता था. बीमारी में जानी की माँ की देखभाल करने वाला कोई नहीं था. लखमा जानी की माँ को देख कर समझ गई कि उसकी तबीयत जल्दी ठीक नहीं होगी. उसने कहा –‘’ जानी की माँ , तुम काम की चिंता मत करो. पर जानी को मत भेजा करो. अभी तो इसके पढने –- खेलने के दिन हैं. ‘’ जानी की माँ रेशमा ने कोई जवाब नहीं दिया,
अगली सुबह लखमा ने देखा कि जानी फिर वहां खड़ा था. लखमा को देखकर वह दूर चला गया, शायद जानी लखमा से डर गया था. लखमा उस दुकान वाले के पास गई जहाँ जानी सफाई कर रहा था. उसने कहा-‘’ जानी की माँ तो बीमार है. शायद वह काफी समय तक काम करने नहीं आ सकेगी ‘’ दुकान वाले ने कहा –- ‘’ तो तुम कर लो उसकी जगह. हमारी दो दुकानें और हैं.’’ लखमा खुश हो गई. उसे अच्छे पैसे मिलने की उम्मीद हो गई. डबल ड्यूटी में मेहनत  ज्यादा थी पर पगार भी तो दुगनी मिलने वाली थी. हाथों के साथ दिमाग भी भाग रहा था. वह सोच रही थी कि अतिरिक्त पैसों से क्या कुछ हो सकेगा. अब जानी दुकान पर नहीं आता था. बस एक चबूतरे पर बैठा लखमा को देखता रहता था. लखमा सोचती थी जानी यहाँ क्या कर रहा है. रेशमा के पास क्यों नहीं बना रहता. मन हुआ कि जानी से रेशमा का हाल पूछे पर चुप रह गई.
लखमा ने महीने के आखिरी सप्ताह में रेशमा के बदले काम किया था. दुकानवाले ने पैसे दिए तो बोली-‘’ रेशमा के पैसे भी दे दो, उसे जरुरत होगी.’’ दुकानवाले ने कहा-‘’ रेशमा के पैसे उसी को दूंगा.’’ सुन कर लखमा सोच में पड़ गई. वह रेशमा के बारे में सोच रही थी. एक तो काम नहीं ऊपर से बीमारी का खर्च. पिछले काम के पैसे भी नहीं मिल रहे हैं. बाज़ार में जानी दिखा तो पूछा-‘’ यहाँ क्या कर रहा है ? माँ के पास क्यों नहीं टिकता?’’
‘’ माँ ने काम खोजने को कहा है. ‘’ –- जानी बोला.
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‘’ तुझे कौन काम देगा भला. ‘’ लखमा ने व्यंग्य से कहा. ‘’ चल मैं तेरी माँ से बात करती हूँ.’’ और उसके साथ रेशमा से मिलने चल दी. लखमा ने देखा कि रेशमा की तबीयत पहले से ज्यादा ख़राब है. साफ़ था कि उसे तुरंत काफी पैसे चाहिएं ताकि ठीक से दवा -- दारु और देख   भाल हो सके. लखमा ने कहा-‘’ तुम जानी को पढने भेजो न कि काम की तलाश में. ‘’
“मैं क्या करूँ?’’ - रेशमा ने उदास स्वर में कहा
.’’सब ठीक हो जायेगा.अभी तुम मेरे साथ चलो.’’ कह कर लखमा उसे सहारा देती हुई दुकानदार के पास ले गई.  
दुकानदार ने पैसे देते हुए लखमा से  कहा-‘’ तुम तो इसकी ऐसे सिफारिश कर रही हो जैसे तुम दोनों आपस में बहनें हों. लेकिन तुम दोनों के धर्म तो अलग अलग हैं, फिर बहनें कैसे हो सकती हो.’’ लखमा से पहले रेशमा बोल उठी-‘’ बहन होने के लिए  धर्म एक होना जरुरी नहीं.’’ और मुस्करा दी. लखमा सोच रही थी कि कहीं दुकानदार काम के बारे में उसकी बात रेशमा को न बता दे. तब तो रेशमा उसे लालची समझ बैठेगी. पर वैसा कुछ न हुआ. लखमा रेशमा को उसके घर ले आई. रास्ते भर वह कुछ सोचती रही थी. और फिर उसने फैसला कर लिया. रेशमा ने उसे अपनी बहन कहकर उसके मन को छू लिया था. लखमा को अपनी छोटी बहन याद आ गई जो गाँव में रहती थी. लखमा काफी समय से बहन से मिल नहीं पाई थी.
अगली सुबह काम पर जाने से पहले वह रेशमा के पास जा पहुंची. कहा-‘’ रेशमा, आराम कर, तेरा काम मैं संभाल लूंगी. पर एक शर्त है. आज के बाद जानी को काम पर कभी मत भेजना. उसे पढना चाहिए.‘’
‘’ कौन पढ़ाएगा जानी को?’’-- रेशमा ने उदास स्वर में कहा.
‘’मैं इसे मास्टरजी के पास ले जाऊँगी जो मेरे बेटे को पढ़ाते हैं. ‘’-- लखमा ने कहा. उसने आगे बताया कि मास्टरजी बच्चों को पढ़ाने के पैसे नहीं लेते. किताबें और कॉपी-- पेंसिल भी अपनी जेब से देते हैं. वे उन बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं जो स्कूल नहीं जा पाते.’’
रेशमा को लखमा की बात माननी पड़ी. लखमा जानी को मास्टरजी के पास ले गई. और जब जानी पहले दिन मास्टरजी से पढ़ कर आया तो वह ख़ुशी से रो पड़ी. लखमा रेशमा के बदले काम करती रही. महीना पूरा हुआ तो लखमा ने रेशमा की दुकानों के पैसे लाकर रेशमा के हाथ में रख दिए. वह लेने को तैयार नहीं हुई. तब लखमा ने कहा--‘’ मान ले कल अगर मैं बीमार हो जाऊं तो क्या तू मेरी मदद नहीं करेगी?’’ इस बात ने रेशमा को चुप कर दिया. अब कहने को कुछ नहीं था, लखमा अपने घर की ओर चली तो मन पर बैठा बोझ उतर गया था.( समाप्त)