Saturday 15 August 2015

बाल कहानी : स्कूल चलो





                                                             
                                                                     


कहानी
                                स्कूल चलो
                                                                                              -देवेन्द्र कुमार
                आखिरी बच्चा भी रिक्शा से उतरकर चला गया। भरतू की ड्यूटी खत्म हो गई थी लेकिन अभी पूरी तरह नहीं। साईकिल रिक्शा की सीट से उतरकर उसने पीछे झांका तो अन्दर एक किताब पड़ी दिखाई दी। अंदर का मतलब रिक्शा के पीछे एक केबिन जुड़ा हुआ है। उसमें छोटे बच्चे बैठते हैं। उनके बस्ते हुकों के सहारे केबिन के सब तरफ लटके रहते हैं।
                भरतू ने बड़बड़ाते हुए किताब उठा ली और उलट पलटकर देखने लगा। हर रोज ऐसा ही होता है। कोई न कोई बच्चा कुछ न कुछ भूल जाता है। कभी रूमाल तो कभी पानी की बोतल या फिर किसी की कैप रह जाती है।
                वह जब भी किसी किताब को हाथ में उठाता है तो मन में एक चिढ़ होती है अपने लिए। आखिर वह अनपढ़ क्यों रह गया। पढ़ लिख जाता तो आज रिक्शा खींचने की जगह कोई ढंग का काम करता लेकिन.... अब इस सब को याद करने से क्या फायदा।
                रिक्शा को ढाबे के बाहर खड़ा करके भरतू खाना खाने बैठ गया। किताब अब भी उसके हाथ में थी। तभी आवाज सुनाई दी- क्यों भरतू, स्कूल में दाखिला ले लिया क्या?”
                भरतू ने चौंककर देखा उसका साथी रमन हंसता हुआ किताब की ओर इशारा कर रहा था। भरतू लजा गया। बोला- अरे जब पढ़ने की उम्र थी तब नहीं पढ़ सका तो अब क्या पढूंगा।फिर उसने बताया कि कोई बच्चा उसकी रिक्शागाड़ी में किताब भूल गया था।
                भरतू, रमन तथा और चार लोग एक किराए के कमरे में रहते हैं। सभी अपने अपने गांव से रोजगार की तलाश में शहर आए हैं। सभी के परिवार गांव में हैं। बीच-बीच में कुछ दिन के लिए उनसे मिलने गांव जाते हैं। भरतू स्कूल के बच्चों को लाता-ले जाता है। उसके साथी सवारी ढोते हैं। वे लोग भरतू की रिक्शा को चिडि़या खाना कहते हैं पर भरतू ने उसका नाम रखा है- गुलदस्ता। जब बच्चों को लेकर चलता है तो उसे सचमुच बहुत अच्छा लगता है। रह-रहकर अपने गांव-घर की याद आती है। कभी-कभी लगता है जैसे उसका बेटा नन्हा भी दूसरे बच्चों के साथ बैठा स्कूल जा रहा है।
भरतू सब बच्चों के चेहरे पहचानता है, पर उसे याद नहीं आ रहा था कि किताब किस  बच्चेकी थी। वैसे किताब पर नाम लिखा था, पर भरतू को पढ़ना कहां आता था। उस रात भरतू ने सपने में देखा जैसे वह मैदान में बैठा है और उसके सामने एक लम्बी-चोडी किताब खुली पड़ी है। तभी एक आवाज कानों में आती है- लाओ मेरी किताब और फिर भरतू की नींद टूट गई। जागकर वह बहुत देर तक सपने के बारे में सोचता रहा।
सुबह समय पर अपनी रिक्शा बाहर निकाली और बारी-बारी से बच्चों को लेने लगा। तभी रमेश नामक बच्चे ने कहा- मेरी किताब?” वह कुछ परेशान दिख रहा था। रमेश की मां सरिता ने भी कहा- भरतू, जरा ध्यान से देखना, रमेश की किताब नहीं मिल रही है।
भरतू ने किताब उनकी ओर बढ़ा दी। तभी रमेश ने कहा - तुमने मेरी किताब फाड़ी तो नहीं। किताब फाड़ना बुरी बात है।सुनकर भरतू हंस पड़ा। उसने कहा- नहीं  भैया, मैंने तुम्हारी किताब खूब ध्यान से रखी थी। एकदम ठीक है, देख लो।
रमेश की मां सरिता देवी भी हंस पड़ी। उन्होंने कहा- भरतू, जो बात मैं इसे समझाती हूँ वही इसने तुमसे कह दी। बुरा न मानना।
सारा दिन भरतू उसी किताब के बारे में सोचता रहा। दोपहर को रमेश को उसके घर के बाहर छोड़ते हुए भरतू ने कहा- क्यों भैया, जो तुम पढ़ते हो मुझे भी पढ़ा दो।
मैं क्या टीचर हूँ जो तुम्हें पढ़ाऊं।रमेश बोला।
मेरे टीचर बन जाओ न रमेश भैया। जो फीस मांगोगे दूंगा।भरतू ने हंसकर कहा।
ठीक है कल पढ़ाऊंगा।
क्या पढ़ाओगे?”
ए बी पढ़ाऊंगा।कहकर रमेश मां के साथ घर में चला गया। भरतू मुस्कुराया तो सरिता देवी भी हंस पड़ीं।
अगले दिन रमेश ने भरतू से कहा- भरतू भैया, आज मैं तुम्हारे लिए ए और बी लाया हूँ और उसने बस्ते से निकालकर एक सेब और गेंद भरतू के हाथ में थमा दी। भरतू कुछ पूछता इससे पहले ही रमेश ने कहा- देखो ए से एप्पल यानी सेब और बी से बॉंल यानी गेंद। अब आज इतना ही पढ़ो- ए से एप्पल, बी से बॉंल ।
भरतू ने कहा- रमेश भैया, क्या रोज ऐसे ही पढ़ाओगे।
रमेश ने कहा- हां।और मां के साथ घर में दौड़ गया। भरतू सेब और बॉंल को हाथ में लिए खड़ा रह गया। उसने सोचा कल दोनों चीजें वापस कर देगा। उस रात देर तक ए और बी से खेलते रहे भरतू और उसके साथी। उनके बीच देर तक गेंद और सेब इधर से उधर उछलते रहे। कमरे में हंसी गूंजती रही। शायद इससे पहले ये लोग इतना कभी नहीं हंसे थे। भरतू के साथी पूछते रहे- भरतू, कल अपने मास्टरजी से क्या पढ़ेगा?”
अगली सुबह रमेश के घर के बाहर पहुँचकर भरतू ने रिक्शा की घंटी बजाई। कुछ देर तक कोई जवाब नहीं मिला फिर रमेश की मां सरिता देवी बाहर निकलकर आई।
उन्होंने कहा- रमेश आज स्कूल नहीं जाएगा। उसे रात से बुखार आ रहा है।
सुनकर भरतू को मन में एक झटका सा लगा। वह बाकी बच्चों को स्कूल पहुँचाने चला गया। उस दोपहर वह गुमसुम रहा। ठीक से खाना भी नहीं खाया भरतू ने। रमन बार-बार पूछता रहा- भरतू, क्या बात है?” पर भरतू ने कुछ नहीं कहा।
इसके बाद वाली सुबह को रमेश के दरवाजे पर पहुँचकर उसने घंटी बजाई तो रमेश की मां बाहर आई। उन्होंने कहा- भरतू, रमेश की तबियत आज भी ठीक नहीं है। शायद एक-दो दिन और वह स्कूल न जा सकेगा।
भरतू के हाथ में ए और बी यानी सेब और गेंद थे। उसने सरिता देवी से कहा- ये दोनों मेरे मास्टरजी को दे देना मैडम जी। अब तो वह मुझे पढ़ाऐंगे नहीं।
सरित देवी आश्चर्य से मुरझाए सेब और गेंद को देखती रहीं। फिर भरतू ने उन्हें सब बताया तो उनके चेहरे पर फीकी मुस्कान आ गई। लेकिन भरतू हंस न सका। उसने स्कूल वाली रिक्शा आगे बढ़ा दी।
उस दोपहर भरतू ढाबे पर नहीं आया। वह रमेश के घर के बाहर जा खड़ा हुआ। आसपास कोई न था। वह कुछ देर तक धूप में खड़ा रहा फिर झिझकते हुए दरवाजे पर लगी घंटी बजा दी। कुछ पल ऐसे ही बीत गए। उसे दोबारा घंटी बजाना ठीक न लगा। न जाने रमेश की मां क्या सोचे । उसका मन रमेश से मिलना चाहता था पर संकोच भी था। वह वापस मुड़ने लगा तभी दरवाजा जरा सा खोलकर सरिता देवी ने बाहर झांका। भरतू को देखकर वह चौंक पड़ीं। उन्होंने कहा- भरतू, तुम इस समय कैसे? क्या चाहिए?”
भरतू सकपका गया। हकलाता सा बोला- जी, मैंने सोचा अपने मास्टरजी को देख लूं, उनकी तबीयत कैसी है?”
मास्टर जी शब्द पर सरिता देवी हंस पड़ीं। उन्होंने कहा- भरतू, तुम्हारे मास्टरजी की तबियत अब ठीक है। आओ, अंदर आ जाओ, धूप में क्यों खड़े हो।यह कहकर उन्होंने दरवाजा पूरा खोल दिया। भरतू को लग रहा था इस समय आना शायद ठीक नहीं रहा, पर अब वापस नहीं लौटा जा सकता था। वह झिझकते कदमों से अंदर घुस गया।
आओ भरतू, यहां आओ।कहते हुए सरिता देवी ने एक कमरे में आने का इशारा किया और फिर उसमें चली गईं।
भरतू ने कहा- मैडम जी, अब आपने बता दिया न कि हमारे मास्टर जी ठीक हैं। बस अब जाता हूँ। आप तकलीफ न करें।
नहीं, नहीं तकलीफ कैसी! तुम अपने मास्टरजी से मिलने आए हो तो क्या बिना मिले चले जाओगे? आ जाओ। इतना घबरा क्यों रहे हो?”
भरतू ने देखा रमेश पलंग पर बैठा था। भरतू को देखते ही उसके होठों पर मुस्कान आ गई। बोला- भरतू भैया, तुम।
कैसे हो मास्टरजी? कहते कहते भरतू हंस पड़ा उसने देखा- सेब और गेंद पलंग पर रमेश के पास रखी थी।
मैं ठीक हूँ।रमेश ने कहा फिर बोला-तुमने ए, बी मां को लौटा दिए। ऐसे कैसे पढ़ोगे! लो ले जाओ- और ध्यान से याद करो। तभी तो आगे पढ़ाऊंगा तुम्हें।
भरतू, खड़े क्यों हो। बैठ जाओ।सरिता देवी ने कहा- उनके हाथ में पानी का गिलास और प्लेट में कुछ मिठाई थी।
भरतू जमीन पर ही बैठ गया। सरिता देवी ने कहा- वहां जमीन पर नहीं कुर्सी पर आराम से बैठो।
जी, मैं यहीं ठीक हूँ।भरतू ने कहा और उठ खड़ा हुआ। उसने कुछ खाया नहीं। मास्टरजी, जल्दी ठीक हो जाओ फिर आगे पढ़ाना।कहकर सेब और गेंद रमेश के हाथ से ले ली और बाहर निकल आया। रमेश की तबियत ठीक देखकर उसका मन खुश हो गया था। एक बार मन में आया था कि हौले से रमेश का सिर सहला दे, पर हिम्मत न हुई। बाहर निकलते हुए सरिता देवी की आवाज सुनाई दी-‘ भरतू, कल रमेश को लेने आ जाना, अब इसकी तबियत ठीक है।
अगली सुबह रमेश मां के साथ घर से बाहर खड़ा मिला। भरतू से नजरें मिलते ही रमेश और
उसकी मां मुस्कुरा दिए। भरतू भी हंस दिया।
दोपहर को रमेश को घर छोड़ने आया तो सरिता देवी ने कहा- भरतू, शाम को पांच बजे आना। आ सकोगे?” बहुत काम तो नहीं रहता?
जी आ जाऊंगा।भरतू ने कहा और ढाबे पर जा बैठा। मन प्रसन्न था। रमन ने पुकारा- क्यों  भरतू, पढ़ाई कैसी चल रही है।
बहुत बढि़या।भरतू ने कहा और हंस दिया।
भरतू पांच बजे रमेश के घर के बाहर पहुँच गया। कुछ देर बिना घंटी बजाए सोच में डूबा खड़ा रहा। मन में कुछ डर था। न जाने रमेश की मां ने क्यों बुलाया है।
कुछ देर बार उसने घंटी बजा ही दी। दरवाजा रमेश ने खोला- उसे देखते ही हंस पड़ा। बोला- आओ भरतू, जब घंटी बजी तो माँ ने कहा देखो भरतू आया होगा। आओ अंदर चलोकहकर रमेश ने भरतू का हाथ पकड़ लिया और उसी कमरे में ले गया।
सरिता देवी कुर्सी पर बैठी थीं। उन्होंने कहा- भरतू, यहां बैठो। रमेश बता रहा था तुम पढ़ना चाहते हो? अगर ऐसा है तो बहुत अच्छी बात है।
भरतू लजा गया। बोला- मैडम जी, वह तो मैंने यूं ही मजाक में कह दिया था। भला अब क्या पढूंगा मैं। हां, गांव के स्कूल में मेरा बेटा नन्हा जरूर पढ़ता है।
भरतू, तुम्हारे घर में कौन-कौन हैं?” सरिता देवी ने पूछा। और भरतू उन्हें अपने गांव-घर की बातें बताने लगा। न जाने क्या-क्या बता गया फिर एकाएक रुक गया। बोला- माफ करना मैडमजी, मैं तो यूँ ही बकवास कर रहा था। भला ये भी कोई बताने की बातें हैं।
अरे नहीं-नहीं मुझे तो तुम्हारी बातें सुनकर बहुत अच्छा लगा है, और बताओ। असल में मैं तो कभी गांव गई नहीं। वहां लोग कैसे रहते हैं क्या करते हैं, उन्हें कैसी परेशानियां उठानी पड़ती हैं- यह सब कभी-कभी किताबों में पता चलता है या फिल्मों से।
भरतू उठने को हुआ पर सरिता देवी ने रोक लिया। बोली- मैंने जिस बात के लिए बुलाया था वह तो अभी कही ही नहीं। तुम पढ़ना चाहते हो, सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा। रमेश के पापा को भी पसंद आई यह बात।
मैडम जी, वह तो मैंने ऐसे ही हंसी में कह दी थी।भरतू ने संकोच से कहा।
नहीं, इसमें संकोच कैसा। अगर तुम चाहो तो शाम को पांच बजे रोज आ सकते हो  मैं
पढ़ाऊंगी तुम्हें। शादी से पहले मैं बच्चों को पढ़ाया करती थी। अब भी मन करता है कोई ऐसा काम करने का।
पर भरतू तो बड़ा है मां।रमेश ने कहा।
पहले बच्चों को पढ़ाती थी तो अब बड़ों को पढ़ाऊंगीं। भरतू से ही शुरु होगा मेरा स्कूल।कहकर सरिता देवी हंस दीं।
जी, आप रहने दें। अब पढ़कर क्या होगा? मेरा काम तो चल ही रहा है और फिर फीस कहां से दे सकता हूँ।भरतू ने कहा।
भरतू, मैं तुम्हें पढ़ाऊंगी। और तुम मुझे अपने गावं के बारे में बताओगे- वहां के लोग, खेत, जंगल, पहाड़, वहां के परिंदे।मुझे ये सब बातें कहां पता हैं अभी। वही होगी तुम्हारी फीस।सरिता हंसकर बोली।
भरतू नमस्ते करके उठ खड़ा हुआ। तो क्या मुझे आप सचमुच पढ़ाएंगी?” उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
हां, भरतू मैं सच कह रही हूँ। जिस दिन मुझे कोई काम होगा, मैं तुम्हें बता दूंगी जब तुम रमेश को छोड़ने आओगे।
बाहर निकलने से पहले रमेश के सिर पर हाथ रखने से खुद को नहीं रोक पाया भरतू। ऐसा करते समय उसकी आँखे  भीग गईं।