Sunday 8 February 2015

बाल कहानी : अध्यापक

                                                                              

अध्यापक

बस में बहुत भीड़ थी और उस पर गरमी का मौसम। घुटन के मारे लोगों का बुरा हाल था, लेकिन फिर भी वे भेड़-बकरियों की तरह यात्रा करने को विवश थे। अगर आराम से यात्रा करने की सोचें तो बस में चढ़ने के लिए एक-दो घंटे नहीं, शायद कई दिनों तक प्रतीक्षा करनी पड़े।
पर रामेश्वर के लिए यों सफर करना कोई मजबूरी नहीं थी और उस भीड़-भाड़ में उसका जी भी नहीं घबराता था, बल्कि वह एक तरह का आराम अनुभव कर रहा था।
रामेश्वर कभी खाली बस में नहीं चढ़ता। वह हमेशा उस बस में चढ़ता है, जिसमें यात्री ठसाठस भरे होते हैं। कोई उससे इसा कारण जानना चाहे तो वह हँसकर रह जाएगा। जवाब उसकी आंखें दे रही होंगी, ‘क्या किया जाए अपना धंधा ही ऐसा है।
बस में रामेश्वर की आंखें उस काली टोपी वाले की ओर लगी हुई थीं, जो इस समय उससे थोड़ा आगे खड़ा था। बस में चढ़ते समय रामेश्वर उस व्यक्ति के बिलकुल पीछे था। बाद में धक्का-मुक्की के कारण बीच में दो व्यक्ति और आ गए थे।
वह काली टोपी वाला व्यक्ति काफी देर से रामेश्वर की नजरों में था। कुछ देर पहले जब रामेश्वर बस-स्टैंड पर खड़ा ठसाठस भरीबस का इंतजार कर रहा था तो वह आदमी नजर आया था। रामेश्वर ने उसे सड़क के पार वाले बैंक से निकलते देखा था। बाहर आते ही उस व्यक्ति ने अपने कोट की अंदर वाली जेब पर हाथ रखा था और फिर तुरंत हटा भी लिया था, लेकिन रामेश्वर के लिए इतना ही संकेत बहुत था। रामेश्वर दिलचस्पी से उस आदमी को परखता रहा। वह आदमी बैंक की सीढि़यों पर खड़ा-खड़ा इधर-उधर देखता रहा, फिर अनिश्चित कदमों से टैक्सी-स्टैंड की तरफ चल दिया। यह देखकर रामेश्वर थोड़ा निराश हो गया, लेकिन फिर उसने देखा कि काली टोपी वाला आदमी टैक्सी में नहीं बैठ रहा है। वह कुछ इस तरह खड़ा थ कि टैक्सी वाले उसे सवारी मान भी सकते थे और नहीं भी।
वह टैक्सी में नहीं बैठेगा। वह डर रहा है।रामेश्वर ने मन ही मन कहा।
रामेश्वर का अनुमान ठीक निकला। कुछ देर टैक्सी-स्टैंड पर खड़े रहने के बाद वह आदमी बस स्टैंड पर आ गया। वह रामेश्वर के पास आ खड़ा हुआ और उसने गहरी नजरों से रामेश्वर को देखा। इसके बाद टोपी वाले ने जल्दी-जल्दी कोट के बंद बंटनों पर हाथ फिराया। बीच में उसकी उंगलियां अंदर वाली जेब पर रुकीं। रामेश्वर ने ध्यान में यह सब देखा। अब शक की गुंजाइश नहीं था। रामेश्वर ने उसे अपना शिकार मान लिया था। लंबा हाथ मारने की कल्पना से वह मन ही मन प्रसन्न हो उठा। अब रामेश्वर को बस में कुछ पलों के लिए उसके पास खड़े होने का मौका चाहिए था। एकाएक ड्राइवर ने जोर का बे्रक लगाया और रामेश्वर अपने आगे वाले यात्री से जा टकराया।
‘‘संभलकर नहीं खड़ा हुआ जाता।’’ वह आदमी गुर्राया।
‘‘मेरा क्या दोष है भैया!’’ रामेश्वर ने नरम स्वर में कहा और उसकी बगल से आगे निकल आया। अब उसके और टोपी वाले के बीच में बस एक आदमी और था।
रामेश्वर अगल-बगल की सीटों पर बैठे लोगें की ओर देखने लगा। हाथ की सफाई दिखाते समय इधर-उधर का ध्यान रखना भी जरूरी होता है। दाईं तरफ वाली सीट पर दो सवारियां बैठी ऊंघ रही थीं, बायीं ओर वाली सीट पर काॅलेज के छात्र जैसे दिखने वाले दो लड़के बैठे हुए थे।
एकाएक रामेश्वर को लगा जैसे बायीं ओर किनारे वाली सीट पर बैठा लड़का ध्यान से उसकी ओर देख रहा है। रामेश्वर सिर घुमाकर दूसरी तरफ देखने लगा। कुछ पल यों ही बीत गए। रामेश्वर ने नजर घुमाई तो पाया वह लड़का अब भी उसकी ओर देखे जा रहा है। खैर जो भी हो, अब उसे अपना काम जल्दी पूरा करना था, क्योंकि जोरबाग का स्टैंड आ रहा थ। रामेश्वर ने अपने शिकार को जोरबाग का टिकट मांगते हुए सुना था। उसे अपना काम करके जोरबाग से कुछ पहले ही उतरन होगा। यह सोचकर रामेश्वर थोड़ा और आगे खिसक गया।
तभी पीछे से किसी ने पुकारा, ‘‘नमस्कार सर, आइए सीट खाली है।’’
रामेश्वर अचकचा गया। उसने गर्दन घुमाकर देखा, बायीं तरफ बैठा वही लड़का उठ खडा़ हुआ है और हाथ जोड़कर खाली सीट पर बैठने की प्रार्थना कर रहा है। उसने याद करने की कोशिश की लेकिन उस लड़के को पहचान नहीं सका।
‘‘सर, आइए न!’’ लड़के की आवाज फिर सुनाई दी,‘‘मैं देख रहा हूं, आप बहुत देर से खड़े हैं। क्षमा करें मैं अब तक आपको पहचान नहीं पाया था।’’
रामेश्वर को घूमकर उसकी ओर देखना पड़ा था। वह उसी तरह सीट छोड़कर खड़ा था।
‘‘क्या तुमने मुझसे कुछ कहा?’’ रामेश्वर ने पूछा।
‘‘जी सर, आइए बैठिए ना!’’ कहते हुए लड़का खुलकर हंस पड़ा।
‘‘नहीं, नहीं तुम बैठो,’’ रामेश्वर ने जल्दी से कहा और मन ही मन एक भद्दी-सी गाली दी उसे, सीट पर बैठने का मतलब होगा शिकार को बचकर निकल जाने देना।
‘‘आप खड़े रहें और मैं...’’ लड़का फिर कह रहा था।
‘‘कोई बात नहीं, आजकल सब चलता है। लेकिन मैं तुम्हें पहचान नहीं पा रहा हूं।’’ रामेश्वर ने कहा।
‘‘सर, स्कूल में इतने लड़के आते हैं। आप सबको कहां तक याद रख सकते हैं, लेकिन मैं आपको कभी नहीं भूल सकता।’’ लड़के ने कहा।
रामेश्वर कुछ और कहता, इससे पहले उसके आगे खड़ा व्यक्ति उस खाली सीट पर बैठ गया। अब रामेश्वर और उसके शिकार के बीच कोई नहीं था।
‘‘सर!’’ लड़का क्रोधित हो उठा।
रामेश्वर जोर से हंस पड़ा। वह म नही मन सीट पर बैठने वाले व्यक्ति के धन्यवाद दे रहा था।
‘‘कोई बात नहीं, मुझे बस में बैठकर सफर करना अच्छा नहीं लगता।’’ रामेश्वर यह कैसे कहता कि अगर वह बस में बैठकर यात्रा करे तो हाथ की सफाई दिखाने का मौका कैसे मिलेगा।
‘‘आप कहां जाएंगे?’’ लड़के ने पूछा।
रामेश्वर एकाएक कुछ कह न पाया, क्योंकि वह कहीं जाने के लिए तो बस में चढ़ा नहीं थ। फिर उसने ऐसे ही किसी जगह का नाम बता दिया।
‘‘जी, मैं भी वहीं जा रहा हूं। हम वहीं रहते हैं।’’ लड़का खुशी से बोला, ‘‘आपको मेरे घर चलना होगा।’’
रामेश्वर का खून खौल उठा। इस लड़के ने तो सारा खेल ही बिगाड़ दिया है। उसने लड़के की किसी बात का जवाब नहीं दिया। वह खिसकता हुआ टोपी वाले से एकदम  सटकर खड़ा हो गया। उसके हाथ टोपी वाले की जेब तक पहुंचने के लिए तैयार थे।
‘‘सर, आप तो अब भी उस दयानंद हायर सेेकेंड्री स्कूल में पढ़ा रहे होंगे?’’ रामेश्वर ने उस लड़के के कहते सुना।
‘‘तुम क्या करते हो?’’ रामेश्वर ने जवाब देने के बदले सवाल पूछ लिया। बात कुछ-कुछ समझ में आ रही थी। शायद लड़का उसे दयानंद स्कूल का कोई अध्यापक समझ बैठा था गलती से।       
रामेश्वर का प्रश्न सुनकर लड़का उदास हो गया। निराश स्वर में बोली, ‘‘जी, पढ़ाई बीच में ही रह गई। आपको शायद पता न हो दो वर्ष पहले मेरे पिताजी नहीं रहे। आप तो जानते ही होंगे कि वह कितने बीमार रहते थे।’’
रामेश्वर ने ध्यान से लड़के की ओर देखा। वह सिर झुकाकर आंसू पोंछ रहा था। रामेश्वर ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। मृदु स्वर में बोला, ‘‘तो इसमें निराश होने की कौन-सी बत है। धीरज रखना चाहिए। हिम्मत करके पढ़ते रहो। अभी नौकरी की उम्र भी तो नहीं है, लेकिन ट्यूशन कर सकते हो।’’
‘‘जी, वही कर रहा हंू।’’ लड़के ने कहा, फिर जैसे कोई भूली हुई बात याद आ जाए इस तरह बोला, ‘‘मैंने तो आपको बस में चढ़ते समय ही देख लिया था, लेकिन बात करने की हिम्मत नहीं हो रही थी।’’
‘‘क्यों?’’ रामेश्वर को पूछना पड़ा।
‘‘सोच रहा था, मेरी चोरी वाली बात अपको अब तक याद होगी। एक बार साथी के पैसे चुराने पर आपने मुझे बहुत डांटा था। फिर सोचा, अब तो मैं ऐसा करता नहीं जो आपसे मंुह चुराऊं। आपको तो यह जानकर खुशी ही होगी कि उसके बाद वैसी हरकत मैंने कभी नहीं की।’’
‘‘अच्छा... अच्छा...’’ रामेश्वर सिर्फ इतना कह सका। एकाएक उसकी आंखों के सामने एक चित्र तैर गया, वह कुर्सी पर बैठा है। यह लड़का सामने खड़ा है और चोरी के अपराध की क्षमा मांग रहा है।
एकाएक रामेश्वर जैसे सोते से जाग गया।
कंडक्टर चिल्ला रहा था, ‘‘जोरबाग... जोरबाग...’’ 
‘‘अरे!’’ रामेश्वर के होठों से निकल गया। उसने देखा उसका शिकार टोपी वाला बस से नीचे उतर रहा है।
एक पल को रामेश्वर कुछ बोल न सका। उसे अपना गला रुंधता हुआ महसूस हुआ। बस की खिड़की में से टोपी वाले की आकृति उसे दूर जाती दिखाई दी।
कमबख्त को मेरे चेहरे में न जाने कौन-सा अध्यापक नजर आ रहा है!उसके हाथों के ठीक नीचे से टोपी वाला सुरक्षित बच निकला था। रामेश्वर उसकी जेब को छूने का मौका ही नहीं पा सका था इस अनजान लड़के के कारण। उसने गुस्से से लड़के को देखा। वह मुस्करा रहा था। रामेश्वर भी हंस पड़ा और हंसता ही गया। लड़का भी हंसने लगा। बस में बैठे लोग आश्चर्य से दोनों की ओर देख रहे थे।
जब लड़के का स्टाॅप आया तो रामेश्वर उसका हाथ थामकर नीचे उतर आया। लड़के ने अपने घर चलने के कहा तो उसने मना कर दिया। उससे काफी देर तक बस स्टैंड पर ही बातें करता रहा। उसे लग रहा था जैसे वह रामेश्वर जेबकतरा नहीं, उसी अनजान लड़के का भूला-भटका अध्यापक है।
‘‘तो मैं चलता हूं।’’ अंत में रामेश्वर ने कहा।
‘‘आशीर्वाद दीजिए सर!’’ कहते हुए लड़का उसके पैरों में झुक गया।
‘‘अरे रे...’’ कहते हुए रामेश्वर ने लड़के को कंधों से थाम लिया। बोला, ‘‘बड़े होकर अच्छे आदमी बनो! यही आशीर्वाद है। इसके अतिरिक्त हम और दे भी क्या सकते हैं। तुम्हें चोरी की गलती आज तक याद है, यही बहुत है।’’
लड़का नमस्कार करके चला गया। रामेश्वर खोया-सा खड़ा रह गया।
काश, मैं सचमुच ही उस लड़के का अध्यापक होता।’’ उसने होंठों-होंठों में कहा और पैदल ही लौट चला। अनेक ठसाठस भरी बसें उसके पास से गुजर गईं। कोई और समय होता तो वह उनमें से किसी बस में जरूर चढ़ जाता, लेकिन वह तो उसी लड़के के बारे में सोच रहा था, जो अपने घर पहुंचकर मां को पुराने अध्यापक से मिलने की घटना बताकर खुश हो रहा होगा।
रामेश्वर चला जा रहा था। मन में खुशी थी, पछतावा नहीं था। वह याद करने की कोशिश कर रहा था, इतनी खुशी उसे कब मिली थी!                               (1970)

बाल कहानी : माँ साथ थी





                                                                            


मां साथ थी

सेठ ध्यानचंद को जब भी कोई काम याद आता, झट से कहते-‘‘सरना को बुलाओ।’’
सरना सेठ ध्यानचंद का विश्वासी नौकर था। हर समय उनके आस-पास रहता क्योंकि  उसे मालूम था कि न जाने कब आवाज पड़ जाए। उसे एक पल का भी आराम नहीं था, पर सरना को कोई शिकायत नहीं थी।
एक दिन की बात, आकाश में बादल घिरे थे।सरना हवेली की छत पर बैठा था। ध्यानचंद भी घर पर नहीं थे। इसलिए वह आराम से कुछ देर बैठा रह सकता थ। जब इस तरह बादल घिरते, आकाश धुंधला, काला हो उठता तो उसे मां की याद आती। एक ऐसे ही दिन उसकी बीमार मां चल बसी थी और उसे गांव का घर छोड़कर चाचा के साथ शहर आना पड़ा था।
चाचा ने उसे ध्यानचंद की हवेली में नौकर रखवा दिया थ। सरना कुछ बड़ा हो गया था, पर मन के किसी कोने में नन्हें बचपन की याद अभी मौजूद थी।
सरना अपने में खोया बैठा था, तभी ध्यानचंद की पुकार कानों में पड़ी। सरना झट नीचे उतर आया। सामने खड़े ध्यानचंद ने कहा-अरे, कहां चला गया था। जा, यह चिट्ठी बाबू गुलाबचंद के पास ले जा। उसे चिट्ठी थमाकर उन्हेंने सरना को और भी कई काम बता दिये। साथ में कह दिया-‘‘ज्यादा देर घूमते मत रहना और भी कई काम हैं। जल्दी आना।’’
सरना अनमने भाव से सड़क पर निकल आया। थोड़ी दूर जाते ही आकाश में गरज सुनाई दी, फिर बारिश होने लगी। सरना भीग गया, लेकिन उसने बारिश से बचने का प्रयास नहीं किय। वह मौसम की पहली बरसात में भीगना चाहता थ। बस इतना ध्यान रखा कि पत्र न भीगने पाए। जहां उसे जाना था वह जगह दूर थी, लेकिन वहां तक जाना न पड़ा। बाबू गुलाबचंद रास्ते में ही मिल गये। उन्हें पत्र सौंपकर सरना निश्ंिचत हो गया। बाकी काम पूरे किए तो अभी दोहपर ही बीती थी।
सरना एक पेड़ के नीचे जा बैठा। बिल्कुल वैसा ही दृश्य थ-धीरे-धीरे बहती नदी, झूमते पेड़ और आकाश में दौड़ते बादल।
तभी उसने देखा, थोड़ी दूर पर एक आदमी बैठा चित्र बना रहा था। वह अपने में इतना व्यस्त था कि सरना का पास आकर खड़े होना भी न जान पाया। एकाएक सरना के होंठों से निकल गया-‘‘बहुत सुंदर।’’
एकाएक चित्रकार ने चैंककर सरना की ओर देखा। फिर मुस्कराया। बोला-‘‘पास आकर देखो।’’
सरना को अच्छा लगा।
चित्रकार ने एक बड़ा कागज उसे थमा दिया। बोला-‘‘डरो मत, आराम से बैठकर बनाओ। अपने चारों ओर देखो और कागज पर उतारो।’’
सरना ने हिचकिचाते हुए पेंसिल थाम ली। ऊहापोह में डूबा वह कागज पर हाथ चलाता रहा। एक बार ऐसा लगा, जैसे मां पीछे आकर खड़ी हो गयी है। कह रही है-अच्छा बन रहा है। घबरा मत जैसे मैं बनाती थी, वैसे ही बना...ऐसे रंग लगा। हां, ठीक इसी तरह...
न जाने कितनी देर हो गई। सरना अपने में डूब चित्र बनाता रहा। मन में एक पल के लिए भी नहीं अया कि देर हो रही है।
ध्यान भंग हुआ तो अंधेरा घिरने लगा था। उसका बनाया चित्र सामने पड़ा था। चित्रकार ने देखा तो उसकी पीठ थपथपा दी। बोला-‘‘तुम और भी अच्छा बना सकते हो। इसी तरह बनाते रहो।’’
सरना चुप सुनता रहा, कैसे कहता, उसकी नौकरी पुकार सुनकर हुक्म बजाने की है। वह भला चित्र कैसे बनाएगा। फिर अपने बारे में सब कुछ बता दिया।
अब लगा, सचमुच देर हो गयी है। वह चलने को हुआ तो चित्रकार ने पास बुलाया। कुछ कागज और रंग थमा दिए। सरना ने बार-बार मना किया। कहा-‘‘मैं कहां रखूंगा यह सब सामान। मालिक ने देख लिया तो बहुत डांट पड़ेगी। मैं यह सामान नहीं ले जाऊंगा।’’
चित्रकार ने जिद नहीं की। बोला-‘‘देखो, मैं अक्सर यहां बैठकर चित्र बनाता हूं। तुम्हें जब भी समय मिले मेरे पास आ सकते हो। मैं सिखाऊंगा। बोलो आओगे?’’
सरना को आशा नहीं था कि फिर कभी उसे समय मिल सकेगा, पर उसने हांमें गरदन हिला दी। सरना जब वहां से चला तो चित्रकार ने उसका बनाया चित्र हाथ में थमा दिया। ‘‘यह तुम्हारा है। इसे तुम अपने पास रखो।’’
‘‘लेकिन कहां, मेरे पास तो ऐसी कोई जगह नहीं। इसे कहां रखूंगा’’-कहते-कहते आंखें गीली हो गयी।
‘‘भला अपनी चीज भी कोई यूं फेंकता है।’’ चित्रकार ने उसके हाथ से छूटकर गिरा चित्र उठाकर फिर से सरना को थमा दिया।
इसके बाद चित्रकार चला गया। सरना उसे जाते हुए देखता रहा। फिर सरना ने भरपूर नजरों से अपने बनाए चित्र को देखा-अरे, यह क्या बना दिया उसने...यह तो कुछ और ही बन गया था। एक झोपड़ी, हवा में झुके पेड़ और दूर दिखती नदी की धारा और झोपड़ी के बाहर बैठी मां।
सरना फूट-फूटकर रो पड़ा। उसके आंसू जमीन पर फैले रंगों के धब्बों पर गिरते रहे। चित्र को हाथ में संभाले-संभाले सरना सड़क पर बढ़ चला। तभी गरज सुनाई दी-बारिश होने लगी। सरना भीग गया, कुछ पल उसने अपने बनाए चित्र को बूंदों से बचाने का प्रयास किया, लेकिन बारिश तेज होती जा रही थी। एकाएक उसके हाथ ऊपर उठे-चित्रवाला कागज सिर पर छतरी की तरह तन गया। अब बूंदें चित्र के ताजे रंगों पर पड़रही थीं, लेकिन रंग पानी में बह नहीं रहे थे। वह चित्र को छतरी की तरह ताने चला जा रहा था। रह-रह कर लगता, मां के हाथों की छाया जैसे साथ-साथ चल रही है। ध्यानचंद की हवेली सामने थी, पर सरना रुका नहीं, सड़क के मोड़ पर भी नहीं। उसे ध्यानचंद की पुकार का डर नहीं थ, मां जो साथ थी।