Sunday 8 March 2015

बाल कहानी : पहाड़ कहाँ जाए

 

 

                                पहाड़ कहां जाए

एक था पहाड़। पहाड़ के अंदर रहता था पहाड़ देव। एक दिन एक चरवाहा एक चट्टान पर बैठा गा रहा था।
उड़ जा पहाड़
बढ़ जा पहाड़
चरवाहे का गीत पहाड़ देव ने सुना। कई बार सुना। ध्यान से सुना और सोचने लगा, ‘चरवाहे ने ठीक कहा। मुझे भी चलना चाहिए।
बस, यात्रा के लिए मचल उठा पहाड़ देव। चट्टानें लुढ़कने लगीं। गरज सुनाई दी। पहाड़ के ढलान पर बसे गांव में हलचल मच गई। ग्रामवासी घबराकर घरों से निकल आए। सब सोच रहे थे, ‘‘ये क्या हुआ?’’ क्या कोई आफत आने वाली है? हमें यह गांव छोड़कर कहीं दूसरी जगह चले जाना चाहिए।
गांव में रहती थी एक बुढि़या। धन्नी ताई कहते थे उस सब। सारा दिन अपने आंगन में उतरने वाले पक्षियों के दाना चुगाती थी। लोगों को गांव छोड़कर चले जाने की बातें करते सुना तो धन्नी घबरा गई। सोचने लगी, ‘‘मैं कहां जाऊंगी परिंदों को दाना कैसे चुगाऊंगी।’’ सोचते-सोचते वह रो पड़ी।
एक काली चिडि़या धन्नी ताई के आंगन में रोज सुबह आती थी- दाना चुगने के लिए। उसे धन्नी अच्छी लगती थी, जो बिना किसी स्वार्थ के सब परिंदों को दाना चुगाती थी। काली चिडि़या ने सब कुछ सुना और समझ गई। सोचने लगी, ‘‘अगर गांव खाली हो गया तो हमें दाना कौन चुगाएगा? फिर तो धन्नी भी चली जाएगी। नहीं, नहीं ऐसा नहीं होना चाहिए।
काली चिडि़या उड़कर चट्टान पर जा बैठी। वह पहाड़ देव को जानती थी। कभी-कभी उड़कर एक दरार के अंदर चली जाती थी। वहां से पहाड़ देव के साथ बातें करती थी।
काली चिडि़या वहीं जा पहुंची। उसने पूछा, ‘‘पहाड़ देव, क्या हो रहा है? चट्टानें क्यों गिर रही हैं? गांववाले घायल हो जाएंगे।’’
पहाड़ देव ने कहा, ‘‘मैं यहां से कहीं और जाना चाहता हूं। एक ही स्थान पर रहते-रहते ऊब गया हूं।’’
‘‘यह कैसा पागलपन है। भला पहाड़ भी कभी चलते हैं।’’ काली चिडि़या ने सोचा लेकिन अगर पहाड़ सचमुच ही चल पड़ा तब तो गांव एकदम नष्ट हो जाएगा। जैसे भी हो पहाड़ को रोकना चाहिए।
‘‘कहां जाओगे?’’ चिडि़या ने पूछा।
‘‘अरे, इतनी बड़ी दुनिया है। दिशाएं खुली हैं। कहीं भी जा सकता हूं।’’ पहाड़ के अंदर से आवाज आई।
‘‘ऐसे नहीं, पहले यात्रा का कार्यक्रम बनता है फिर यात्रा पर निकलते हैं।’’ चिडि़या ने कहा।
‘‘तो फिर तुम्हीं बताओ मुझे कब और किधर जाना चाहिए?’’ पहाड़ देव ने पूछा।
‘‘मैं देखकर आती हूं कि तुम्हें किस दिशा में यात्रा करनी चाहिए। जब तक मैं न लौटूं तब तक हिलना-डुलना मत।’’ चिडि़या बोली।
‘‘जल्दी आना।’’पहाड़ देव ने कहा।
काली चिडि़या दरार से निकलकर एक तरफ जा बैठी। सोचने लगी, सोचती रही। उसने देखा धन्नी ताई अपने आंगन में बैठी परिंदों को दाना चुगाती हुई कह रही थी, ‘‘और कितने दिन तक...’’ काली चिडि़या दरार में जाकर फिर से पहाड़ देव से बातें करने लगी। बोली-‘‘मैं देख आई...लेकिन...’’
‘‘लेकिन क्या...’’
‘‘कुछ मुश्किल है तुम्हारी यात्रा।’’
‘‘वह क्यों?’’
‘‘पूरब में तुमसे थोड़ी दूर पर एक लंबी-चैड़ी और गहरी झील है। तुमने तो देखी ही होगी।’’ चिडि़या बोली।
‘‘मैं कैसे देखता...मैं तो आज तक कहीं गया ही नहीं।’’ पहाड़ देव ने कहा।
‘‘यही तो मैं भी सोच रही हूं गहरी झील कैसे पार करोगे? अगर तुम्हें तैरना न आता हो तो गहरी झील में डूब सकते हो।’’
‘‘और पश्चिम में...’’
‘‘हां, उधर रास्ता तो हैं पर वहां दूर-दूर तक दलदल फैला है। दलदल में डूबोगे तो नहीं, पर कीचड़ में से निकलोगे कैसे...’’
‘‘तो दक्षिण की तरफ चल दूंगा मैं...’’
चिडि़या चहचहाई-‘‘तुम भी कितने भोले हो पहाड़ देव...अरे उधर ही तो समुद है। इतना गहरा कि क्या बताऊं... जब तुम झील के पानी पर नहीं तैर सकते तो गहरे समुद्र में तो तुम्हारा पता ही नहीं चलेगा।’’
‘‘तब तो फिर एक ही रास्ता बचता है कि मैं उत्तर दिशा में चलना शुरू कर दूं...’’ पहाड़ देव बोला।
‘‘हा,ं हां,जरूर जाओ... और उत्तर में खड़े हिमालय से टकराकर चूर-चूर हो जाओ...। अपने पड़दादा हिमालय का नाम नहीं सुना क्या?’’ कहकर चिडि़या फिर हंसी।
‘‘तो तुम्हारा मतलब है मैं यहीं पड़ा रहूं, कहीं न जाऊं?’’ पहाड़देव ने परेशान स्वर में पूछा।
‘‘जरूर जाओ अगर जा सको तो...। लेकिन यह तो कहो इस समय तुम्हरे मन में कहीं जाने का विचार आया कैसे?’’
‘‘मैंने चरवाहे को गाते सुना था।
उड़ जा पहाड़
बढ़ जा पहाड़...’’
‘‘अरे, चरवाहे ने तो मजाक किया था...वह चाहता है तुम यहां से हट जाओ तो उसे रोज-रोज चट्टानों पर न चढ़ना पड़े। ‘‘चिडि़या को लग रहा था अब बात बन रही है।
‘‘तो यह बात है...मैं उस चरवाहे को...‘‘पहाड़ देव ने गुस्से से कहा और पत्थर ढलान पर फिर लुढ़कने लगे।
‘‘देखो संभालो अपने को...चरवाहे  के चक्कर में गांव बरबाद हो जाएगा-धन्नी ताई हमें दाना चुगाना छोड़ देगी।’’
‘‘धन्नी ताई...वह कौन है?’’ पहाड़ देव ने पूछा।
‘‘ठीक है, एक दिन मैं धन्नी ताई को लेकर आऊंगी तुम्हारे पास... उसे बहुत-सी कहानियां याद हैं। सुनोगे तो आने-जाने की बात सदा के लिए भूल जाओगे’’ चिडि़या ने पहाड़ देव को तसल्ली दी।
‘‘तो अभी बुला लाओ न...मेरा मन कहानी सुनने का हो रहा है।’’
‘‘ठीक है, बुला लाऊंगी लेकिन  वादा करो कहीं आने-जाने की बात नहीं करोगे...’’
‘‘मैं वादा करता हूं’’ पहाड़ देव ने कहा तो पत्थर लुढ़कने बंद हो गए। आवाजें थम गईं काली चिडि़या उड़ी और धन्नी ताई के आंगन में जा बैठी।’’
क्या कोई है जो हमें एक-दूसरे की बात समझा सके। क्या धन्नी ताई को मालूम था कि काली चिडि़या ने उन लोगों को किस बड़े संकट से निकाल लिया था।              

Sunday 1 March 2015

बाल कहानी : डॉक्टर रिक्शा

                                                                     

डॉक्टर रिक्शा

विजनपुर एक छोटा-सा कस्बा था। संकरी और टूटी-फूटीसड़कें, जगह-जगह गंदगी और कूड़े के ढेर। एक छोटा-सा बस-स्टैंड, जहां गढ्डों में पानी भरा रहता था। उनमें मक्खी-मच्छर भनभनाते रहते थे, फिर भी लोग दूर-दूर के गावें से बिजनपुर पहुंचा करते थे। बिजनपुर मशहूर था डॉक्टर राय के लिए। डॉक्टर राय के लोग देवता मानते थे। उनके दवाखाने पर हमेशा ही भीड़ लगी रहती थी।
डॉक्टर राय गरीब मरीजों का मुफ्त इलाज करते थे। साथ ही दवा के पैसे भी नहीं लेते थे। उनकी कोशिश होती थी कि बीमार जल्दी से जल्दी ठीक हो जाए। जो भी आता उससे हंसकर बातें करते, उसे तसल्ली देते। मरीज कहते थे, ‘‘आधी बीमारी तो डॉक्टर राय की मुस्कान से ही दूर जाती है।
कभी-कभी कोई रोगी रात को उनके घर पहुंचता। डॉक्टर साहब ने घर में कह रखा था, ‘अगर रात में कोई बीमार आदमी आए तो मुझे तुरंत खबर दो।एक रात उनके घर पर थोड़ी-थोड़ी देर बाद आठ मरीज पहुंचे। सबको अलग-अलग तकलीफ थी। उस रात डॉक्टर राय बिलकुल भी सो नहीं सके। पर रोज की तरह अगली सुबह आठ बजे ही दवाखाने पर आ पहुंचे।
डॉक्टर राय की पत्नी ने कहा, ‘‘इतनी मेहनत करने पर कहीं आप बीमार न हो जाएं।’’
उनकी मां बोलीं, ‘‘मरीजों के साथ-साथ अपनी सेहत का भी ध्यान रखना चाहिए।’’
डॉक्टर राय हंसकर बोले, ‘‘बीमारियां मुझसे डरती हैं। मुझे देखते ही भाग जाती हैं। फिर भला मैं बीमार कैसे हो सकता हूं।’’
एक रात की बात, खूब तेज बरसात हो रही थी। सारे में पानी भरा था। उसी समय बस से दो आदमी उतरे। उनमें से एक जोर-जोर से कराह रहा था। लगता था, उसकी तबीयत काफी खराब थी। साथ वाले आदमी ने उसे सहारा देकर एक शेड में बैठा दिया। फिर वह डॉक्टर राय के घर जाने के लिए कोई रिक्शा ढूंढ़ने लगा। उनका दवाखाना बस-स्टैंड से दूर पड़ता था। उस खराब मौसम में कोई रिक्शा वाला चलने को तैयार न हुआ। हरेक ने कहा, ‘‘भीगकर हम भी बीमार पड़ सकते हैं।
मरीज की तबीयत खराब होती जा रही थी, पर डॉक्टर साहब के पास जाने का कोई उपाय नहीं था। रामदास रिक्शा वाला शेड के नीचे सो रहा था। आवाजें सुनकर वह उठ बैठा। उसने सारी बात सुनी तो झट से उन लोगों के पास जा पहुंचा। उसने कहा, ‘‘आइए, मैं ले चलता हूं आपको। देर करने पर बीमार की तबीयत और भी बिगड़ सकती है।’’ यह कहकर रामदास ने रिक्शा के आगे तिरपाल बांध दी, फिर उन्हें लेकर डॉक्टर साहब के घर जा पहुंचा।
खबर मिलते ही डॉक्टर साहब ने मरीज को अंदर बुलवा लिया। उसकी जांच करके दवा दे दी। पानी तब भी तेजी से बरस रहा था। रामदास रिक्शा वाले ने डॉक्टर साहब को बताया कि मरीज कहीं बाहर से बिजनपुर आया है। डॉक्टर राय मरीज के साथी से बोले, ‘‘इन्हें बारिश से बचाना होगा। इसलिए आप लोग बारिश बंद होने तक इसी कमरे में रुक जाइए।’’
रामदास उन लोगों को वहीं छोड़कर लौट आया। वह सोच रहा था, ‘डॉक्टर साहब कितने भले हैं। मैं बीमार को ले आया तो अच्छा ही रहा।उस दिन के बाद से रामदास ने यह निश्चय कर लिया कि वह किसी बीमार सवारी को ले जाने से कभी मना नहीं करेगा।
बस, तब से रामदास अक्सर ही बस-स्टैंड पर मौजूद रहता। अगर कोई रोगी डॉक्टर राय के दवाखाने का पता पूछता तो वह झट कहता, ‘‘आइए, बैठिए, मैं ले चलता हूं।’’ चाहे वह किसी और सवारी को मना कर देता, पर डॉक्टर साहब के दवाखाने या घर जाने के लिए कभी मना न करता।
दूसरे रिक्शा वाले उससे कहते, ‘‘अब तो तू डॉक्टर साहब का कम्पाउंडर बन गया।’’ रामदास हंसकर जवाब देता, ‘‘कम्पाउंडर नहीं, मैं तो रिक्शा डॉक्टर हूं।’’ फिर तो सब रामदास को इसी नाम से पुकारने लगे। जब भी कोई मरीज डॉक्टर साहब के दवाखाने पर चलने को कहता ते दूसरे रिक्शा वाले झट से बोल उठते, ‘‘आपको रिक्शा डॉक्टर ले जाएगा वहां।’’
पता नहीं किसने उसकी रिक्शा के पीछे बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दिया, ‘रिक्शा डॉक्टर।पूछने पर वह कहता, ‘‘अब तो मैं पक्का डॉक्टर हो गया हूं।’’ कई बार डॉक्टर राय ने भी रामदास के बारे में यह सुना तो हंस दिए। कई बार रामदास अपनी रिक्शा में किसी मरीज को लेकर उनके पास आता तो वह मुस्कराकर कहते, ‘‘आओ जी, रिक्शा डॉक्टर!’’ आस-पास बैठे लोग हंस पड़ते और रामदास शरमाकर सिर झुका लेता।
एक बार बिजनपुर में बुखार का प्रकोप हुआ। बहुत लोग बीमार पड़े। डॉक्टर राय बहुत व्यस्त हो गए। सुबह से रात तक वह रोगियों के देखते और दवा देते रहते। उनके होंठों पर हमेशा की तरह हंसी रहती थी। उनके मुंह से कभी नहीं सुनाई पड़ा कि वह थक गए हैं। लगता था जैसे उनमें चार लोगों की ताकत भर गई थी। रामदास भी मरीजों को लाने और ले जाने में लगा रहता। एक बार तो वह पूरी रात रिक्शा चलाता रहा। कहता रहा, ‘‘अगर डॉक्टर साहब नहीं थकते तो मैं भी कैसे थक सकता हूं।’’
पर एक दिन रामदास को बुखार ने पकड़ ही लिया। बदन में दर्द और तेज बुखार। वह झोंपड़ी में अकेला रहता था। उसका परिवार गांव में रहता था। रामदास कभी-कभी गांव जाया करता था। सारा दिन वह झोंपड़ी में लेटा रहा। खाना नहीं खाया। वह सोचता था जैसे बुखार आया है चला जाएगा। पर बुखार बढ़ता गया। उसके पड़ोसियों ने कहा, ‘अरे भाई, डॉक्टर के पास जाकर दवा ले लो।
रामदास ने जवाब दिया, ‘‘पता है आजकल उन्हें कितने मरीज देखने पड़ते हैं। उनके पास तो खाने-सोने का भी समय नहीं है। ऐसे में मैं उन्हें क्यों परेशान करूं।’’
एक दिन बीता, दूसरे दिन उसकी तबीयत और भी बिगड़ गई। दिन तो जैसे-तैसे बीत गया, पर रात के तकलीफ ज्यादा थी। वह जमीन पर पड़ा चीख रहा था। उसके पड़ोसी आकर चाय-दूध दे गए। सारी बस्ती सो गई, रामदास अकेला ही था। उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था।
एकाएक किसी ने झोंपड़ी का दरवाजा खोला। देखा तो सामने डॉक्टर राय खड़े थे। रामदास हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसके मंुह से निकला, ‘‘अरे डॉक्टर साहब, आप! आपने क्यों तकलीफ की। आपको कैसे पता लगा?
डाक्टर राय अंदर आ गए। उन्होंने कहा, ‘‘रिक्शा डॉक्टर, पहले लेट जाओ, मुझे देखने दो। अभी कुछ मत कहो।’’ उनके होंठों पर हंसी थी। उन्होंने रामदास की अच्छी तरह जांच की। फिर उसे इन्जेक्शन लगाया। उनके साथ कम्पाउंडर भी था। उन्होंने रामदास से कहा, ‘‘आओ मेरे घर चलो। वहां तुम्हारी ठीक से देखभाल कर सकूंगा। यहां कौन देखेगा तुम्हें!’’
‘‘मैं आपके घर...’’ रामदास इतना ही कह सका, ‘‘आपको कैसे पता चला?’’
डॉक्टर राय ने कहा, ‘‘जैसे तुम मरीजों के लेकर मेरे पास आते हो वैसे ही मैं भी आया हूं। ऐसा कैसे हो सकता है कि मुझे तुम्हारी खबर न हो। कई लोगों ने मुझे तुम्हारे बुखार के बारे में बताया था।’’
‘‘मैं यहीं ठीक हूं।’’ रामदास ने संकोच से कहा।
‘‘नहीं, रिक्शा डॉक्टर, तुम्हें मेरे साथ चलना ही है। तुम बीमार रहोगे तो मरीजों को कौन लाएगा मेरे पास।डॉक्टर साहब ने कहा और रामदास को सहारा देकर बाहर ले आए।
रामदास की आंखों में आंसू थे। उसके कानों में शब्द गूंज रहे थे, ‘‘आओ रिक्शा डॉक्टर।’’
2010