Sunday 18 January 2015

बाल कहानी : पानी जैसा मन

                                                              
                                                                           

पानी जैसा मन

गरमी का मौसम था। बादल आते गड़गड़ करते पर बिना बरसे चले जाते। नदी-तालाबों का पानी सूखने लगा। गरमी से बेहाल एक मेढ़क पानी और छायादार स्थान की तलाश में निकला। फुदकता हुआ झाडि़यों में जा पहुंचा। फिर जो उछला तो एक गढ्डे में जा गिरा। असल में वह था एक सूखा कुआं। झाडि़यों के बीच छिपा होने के कारण पता नहीं चल पाता था।
कुएं की तली में पानी नहीं था। झाड़-झंखाड़ उगे थे। मेढक जान गया कि मुसीबत में आ फंसा। वह कई बार सूखे कुएं के बाहर निकलने की कोशिश में उछला,पर कुआं था गहरा। उछलता और गिर पड़ता। वह समझ न पाया कि क्या करें। तभी उसने एक आवाज सुनी।  कोई कह रहा था-अरे भाई, ऐसी भी क्या जल्दी है। थोड़ी देर बाद चले जाना।
‘‘यह कौन बोला?’’ मेढ़क ने घबराकर पूछा।
‘‘यह तो मैं हूं-सूखा कुआं, जिसमें तुम गलती से आ गिरे हो।’’ आवाज आई।
‘‘भला कुआं भी बोलता है कभी।’’ मेढ़क सोच रहा था, न जाने क्या मामला है।
‘‘सबकी तरह कुआं भी बोल सकता है, पर आवाज बाहर नहीं जाती। तुम मेरे अंदर आ गिरे हो, इसीलिए मेरी आवाज सुन पा रहे हो।’’ सूखे कुएं ने कहा।
सूखा कुआं बोलता रहा। उसने मेढ़क को बताया कि कभी उसमें खूब पानी था। एकदम ठंडा और मीठा। उधर से गुजरने वाले पथिक पानी पीने अवश्य ठहरते। कुएं के कारण ही लोग उस जंगल का मीठे कुएं वाला जंगल कहकर पुकारने लगे थे।
‘‘तो फिर तुम्हारा पानी सूख कैसे गया?’’ मेढ़क ने पूछा।
‘‘क्या बताऊं। एक दिन जोर की आवाज हुई। धरती हिलने लगी। मैं भी कांप उठा। मेरी दीवारों में दरारें बन गईं और फिर देखते-देखते पानी न जाने कहां समा गया। वह दिन और आज का दिन इसी तरह सूखा पड़ा हूं। जबसे मेरा पानी सूख गया, उसके कुछ समय बाद से ही लोगों ने मेरे पास आना बंद कर दिया। शुरू-शुरू में मुझे राहगीरों की अचरज भरी आवाजें सुनाई देती थी। लोग बोलते अरे, यह क्या! कुएं में एक बूंद भी पानी नहीं। और फिर धीरे-धीरे आवाजें भी बंद हो गईं। लोग इधर आते ही न थे।’’
मेढ़क को अपने बाबा की कही एक बात याद आ रही थी। उसने सूखे कुएं से कहा-‘‘दोस्त, कुछ ऐसी ही घटना मेरे बाबा के तालाब में भी हुई थी। मैं तो तब पैदा भी नहीं हुआ था। उन्हीं के मुंह से सुना था कि एक दिन भूकंप आया थ। धरती हिलने लगी थी और फिर उनके तालाब का पानी जैसे किसी जादू के जोर से सूख गया था। मुझे लगता है जिस भूकंप में मेरे बाबा का तालाब सूख गया था, शायद उसी में तुम्हारे साथ भी वैसा ही हुआ था।
सूखे कुएं ने कहा-‘‘हो सकता है तुम ठीक कह रहे हो। भूकंप तो आकर चला गया, पर लोगों ने मुझे इस तरह क्यों भुला दिया। अगर कोई मुसीबत में फंस जाए तो क्या उसे इसी तरह अकेला छोड़ देना चाहिए। मनुष्यों का यह कैसा विचित्र स्वभाव है।’’
मेढक ने कहा-‘‘कुएं भाई, दुख न करो। दुनिया ऐसी ही है।’’
कुछ देर वहां मौन छाया रहा। फिर जोर की आवाजें हुईं। धरती हिलने लगी, पेड़ गिरने लगे। जगह-जगह दरारें दिखाई देने लगीं।
‘‘भूकंप फिर आया।’’ दोनों के मुंह से निकला। ‘‘न जाने इस बार क्या होने वाला है।’’ कुएं की घबराई आवाज आई। फिर उसे कहीं पानी बहने की आवाज सुनाई दी। कुएं की दीवारों में जगह-जगह दरारें उभर आईं और पानी जोर से अंदर आने लगा। बात की बात में सूखा कुआं लबालब भर गया। जैसे पानी कुएं के छोड़कर गया था, वैसे ही लौट आया था।
‘‘पानी...पानी...’’ कुआं खुशी से चिल्लाया। पानी ऊपर तक आया तो मेढ़क को भी कैद से मुक्ति मिली।एक ही कूद में वह पानी से निकल कर सूखी जमीन पर आ गया। पर फिर जो इधर-उधर देखा तो होश उड़ गए। सब तरफ पेड़ गायब थे। धरती पर जगह-जगह चैड़ी-चौड़ी दरारें दिखाई दे रही थीं। बात की बात में वह स्थान जैसे कुछ और ही हो गया था। मेढक सोचने लगा-कुएं से तो बाहर निकल आया हूं, पर इस जगह से बचकर कैसे जाऊंगा। चैड़ी-चैड़ी दरारों को भला कैसे पार करूंगा।
तभी उसने कुएं की खुशी भरी आवाज सुनी-‘‘मैं फिर से मीठे पानी का कुआं बन गया हूं। और यह तुम्हारे आने से हुआ है मेढ़क भाई। मैं बता नहीं सकता कि आज मैं कितना खुश हूं। बहुत खुश...अब लोग फिर से मेरे पास आने लगंेगे। उन्हें मीे मीठे पानी वाला कुआं फिर से याद आ जाएगा।’’ कुआं बोलता रहा, हंसता रहा, पर मेढक चुप था।वह घबराई दृष्टि से चारों  ओर के भयानक उजाड़ को देख रहा था।
‘‘मेढक भाई, चले गए क्या। बोलते क्यों नहीं? जरा मेरा पानी पीकर तो देखो। मैं जानता हूं यह पहले जितना ही मीठा हो गया होगा।’’
मेढक ने कहा-‘‘मीठा पानी  तुम्हें मुबारक हो दोस्त। लेकिन मुझे नहीं लगता कि अब कभी कोई इधर आ सकेगा।’’
‘‘क्यों...क्यों...ऐसा अशुभ क्यों कह रहे हो।’’ कुएं की आवाज में घबराहट थी।
मेढक ने बता दिया कि जो भूकंप कुएं में पानी वापस ले आया था, उसने कुएं के आसपास का जंगल नष्ट कर दिया था। वह स्थान इतना उजाड़, इतना डरावना बन गया था कि कोई आदमी शायद ही कभी वहां तक जा सके। यह सुन कर कुआं उदास हो गया। फिर बोला-‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम मेरे साथ मजाक कर रहे हो। मेरा दिल न तोड़ो। अगर सचमुच ऐसा हुआ तो मुझे बहुत दुख होगा।’’
मेढक ने कहा-‘‘कुएं भाई, तुम भी कितने विचित्र हो। अभी तक पानी न होने के दुख से दुखी थे, अब पानी वापस आ गया है तब भी तुम खुश नहीं हो। अरे, और क्या चाहिए कुएं को,यही न कि उसमें पानी भरा रहे।’’
‘‘हां, पानी हो और कोई उसे पीने वाला न हो तो कैसा लगेगा। भोजन हो पर उसे खाने वाला न हो। पानी का मन है मेरा। पानी का काम है प्यास बुझाना-मनुष्यों की, धरती की, पशुपक्षियों की। अगर वह ऐसा न कर सके तो उसका जीवन किस काम का।’’
और फिर मेढक ने धीमे-धीमे रोने की आवाज सुनी। सचमुच बहुत दुखी था कुआं।पहले पानी न होने का दुख था, और अब पानी का होना मन को पीड़ा दे रहा था। उसकी आंखें भी गीली हो गईं। भरे हुए कुएं का दुख कौन दूर कर सकता था भला।     ( 2006)


बाल कहानी : जादूगर


                                                                           

जादूगर


सबको पता है उधर से नहीं जाना है। पूरी काॅलोनी के बच्चे एक-दूसरे को बता रहे हैं-अरे देखो, उधर से मत जाना। काॅलोनी के बीच में छोटा-सा बाग है। बाग के चारों ओर पक्की सड़क बनी हुई है। बाईं ओर वाली सड़क के बीचोंबीच एक टोकरा उल्टा रखा है। बच्चे बाग में काम करते हुए माली के पास जाकर बार-बार पूछते हैं,  ‘‘माली भैया, उस टोकरे के नीचे क्या है?’’
माली जवाब देता-देता परेशान हो गया है। वह बार-बार कहता है, ‘‘कोई उस टोकरे को न छुए। शाम को यहां जादू का खेल दिखाया जाएगा। जादूगर खुद आकर इस टोकरे को उठाएगा और फिर जादू दिखाएगा।’’
अब बच्चे शाम को होने वाले जादू के खेल के बारे में बातें कर रहे हैं। सब एक-दूसरे को बता रहे हैं कि शाम को काॅलोनी में जादू का खेल होगा।
तभी एक ठेले वाला अपने ठेले पर सामान लादकर लाया। उसने अपनी जेब से पते वाला परचा निकालकर माली से पूछा। माली ने सामने वाले मकान की ओर संकेत करके बता दिया कि उस घर में जाना है। ठेले वाले ने सामान पहुंचा दिया फिर खाली ठेला ढकेलता हुआ बाहर की तरफ लौट चला। उसने भी पार्क के पास वाली सड़क पर उल्टा पड़ा टोकरा देखा। ठेले वाला रुक गया। वह सोच रहा था, ‘इस टोकरे के नीचे क्या है?’
तभी दो बच्चे वहां से गुजरे। उन्होंने ठेले वाले से कहा, ‘‘उस तरफ मत जाना। उस टोकरे को मत छूना। शाम को जादूगर इस टोकरे के नीचे से खरगोश निकालकर दिखाएगा। तुम भी आना जादू का खेल देखने के लिए।’’
ठेले वाला टोकरे के पास ही जमीन पर बैठकर पसीना पोंछने लगा। पेड़ की छाया भली लग रही थी। तभी उसके कानों में हल्की-सी आवाज आई। ठेले वाले ने देखा-आस-पास कोई परिंदा नहीं था, तब फिर आवाज कैसी थी। कहीं आवाज इस टोकरे के नीचे से तो नहीं आ रही है, जो सड़क पर औंधा रखा हुआ है।
ठेले वाले ने बाग में पेड़ की छाया के नीचे लेटे माली की ओर देखा। उससे पूछा, ‘‘क्यों भैया, इस टोकरे के नीचे क्या है?’’ उसे बच्चों की बात याद थी कि शाम को जादूगर इस टोकरे के नीचे से कोई अजीब चीज निकालेगा।
माली ने ठेले वाले को इशारे से पास बुलाया, खुद पेड़ की छाया में लेटा रहा। बोला, ‘‘बच्चों की बातें! क्या कहू। मैंने एक बार जादूगर का नाम क्या ले दिया, बस तभी से पूरी बस्ती के बच्चे जादू का खेलऔर जादूगरचिल्लाते घूम रहे हैं।’’ और धीरे से मुस्कराया।
‘‘जादूगर, जादू का खेल।’’ ठेले वाला बुदबुदाया। उसने भी कई बार बचपन में जादू के खेल देखे थे, लेकिन वह सब तो पुरानी बात हो गई थी। आजकल तो सारा दिन ठेला खींचना पड़ता था। मन में आया-अगर शाम को जादू का खेल होगा तो वह भी देखेगा।
माली फिर हंसा। उसने कहा, ‘‘अरे कैसा जादू! यह तो मैंने बच्चों से वैसे ही कह दिया। अब पछता रहा हूं कि क्यों कहा। थोड़ी-थोड़ी देर में पूछने आ जाते हैं, ‘कब आएगा जादूगर! कब दिखाएगा खेल?’ असल में सड़क पर एक मरा हुआ कबूतर पड़ा है। जब मैं काम पर आया तो मैंने देखा उसे। आज सफाई वाला आया नहीं। इसलिए मैंने टोकरे से ढक दिया ताकि किसी का पैर न पड़ जाए।’’
ठेले वाले को याद आया उसने टोकरे के नीचे से हल्की-सी  आवाज सुनी थी। उसने कहा, ‘‘माली भैया, मुझे लगता है कबूतर मरा नहीं। जरा चलकर तो देखो।’’
‘‘जाओ जी, अपना काम करो। हमने खुद अपनी आंखों से देखा था मरा हुआ कबूतर। यों पंख फैलाए पड़ा था। पंखों पर खून के धब्बे थे। वह एकदम मरा हुआ था, तभी तो मैंने टोकरे से ढक दिया उसको।’’ माली ने तेज आवाज में कहा और फिर आंखें मूंद लीं। वह नहीं चाहता था कि मरे हुए कबूतर के बारे में ठेले वाला कोई और बात करे। शायद बच्चों के जवाब देता-देता परेशान हो चुका था।
लेकिन ठेले वाले को तसल्ली नहीं हुई। वह जाकर फिर से सड़क पर औंधे पड़े टोकरे के पास बैठ गया। उसने कान लगाए तो हल्की-सी आवाज फिर सुनाई दी। यह भ्रम नहीं था। ठेले वाले ने झपटकर टोकरा उठाया तो उसके नीचे पड़ा कबूतर दिखाई दिया। हां, उसके पंखों पर खून लगा था, पर वह एकदम मरा नहीं था। उसके एक पंख रह-रहकर कांपता तो जमीन से टकराकर हल्की-सी आवाज होती। ठेले वाले के कानों ने घायल कबूतर का पंख जमीन से टकराने की वही हल्की-सी आवाज सुन ली थी।
ठेले वाले ने हौले-से कबूतर को उठा लिया। माली को पुकारा, ‘‘अरे भाई, कबूतर मरा नहीं जिंदा है। जल्दी आओ।’’
माली झटके से उठा अैर दौड़त हुआ वहां आ गया। घायल कबूतर ठेले वाले के हाथों में हौले-हौले हिल रहा था। माली अचरज से आंखें फाड़े देखता रह गया। ठेले वाले ने घायल कबूतर को माली के चेहरे के एकदम सामने कर दिया। बोला, ‘‘लो खुद ही देख लो। इसे तुमने मरा कहहर टोकरे से ढककर छोड़ दिया था।
माली को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उसने कहा,‘‘सच कहता हूं भैया, सुबह जब मैंने इसे देखा था तो यह मरा हुआ था।’’
‘‘तो क्या यह जादू के जोर से जिंदा हो गया?’’ ठेले वाले ने व्यंग्यपूर्ण स्वर में कहा,‘‘अच्छा, बाकी बातें बाद में, पहले पानी लाओ।’’
माली दौड़ा हुआ गया और एक बरतन में पानी ले आया। ठेले वाले ने कपड़े के टुकड़े को पानी में भिगोया फिर घायल कबूतर की चोंच खोलकर बूंद-बूंद पानी मुंह में डालने लगा। पानी पीकर कबूतर में जैसे नई ताकत आ गई। वह पहले के मुकाबले अधिक तेजी से पंख फड़फड़ाने लगा। ठेले वाले ने गीले कपड़े से धीरे-धीरे उसके पंखों पर लगा खून पोंछ दिया। अब कबूतर का पूरा शरीर हिल रहा था, शायद उसके घावों में तकलीफ हो रही थी।
माली ने कहा, ‘‘ओ ठेले वाले भाई!यह कबूतर बस थोड़ी देर का मेहमान है। इसे आराम से वहीं पड़ा रहने दो।’’
ठेले वाले ने दोनों हाथों में घायल कबूतर के संभालते हुए कहा, ‘‘यह बच भी सकता है। और मैं इसकी जान बचाने की पूरी कोशिश करूंगा।’’
‘‘लेकिन...’’ माली कहता-कहता रुक गया। ठेले वाला घायल कबूतर को संभाले हुए ठेले के खींचता हुआ वहां से चल दिया। उसने माली की ओर बिना देखे कहा, ‘‘मैं नहीं जानता कि कैसे क्या होगा, पर मैं इसे मरने नहीं दूंगा।’’
माली गुमसुम खड़ा रह गया, फिर धीरे-धीरे चलकर पेड़ के नीचे जा बैठा। उसके माथे पर पसीने की बूंदें चमक रही थीं। वह बड़बड़ाया, ‘‘मरा हुआ कबूतर फिर से जिंदा कैसे हो सकता है। क्या यह कोई जादू था।’’
धूप हल्की हुई तो बच्चे घरों से निकल आए। सड़क पर पड़े टोकरे के पास घेरा बनाकर खड़े हो गए। वे माली से पूछने लगे, ‘‘जादूगर कब आएगा माली भैया!’’ बच्चे बार-बार एक ही बात दोहरा रहे थे।
माली कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘जादूगर आया था। वह जादू का खेल दिखाकर चला गया।’’
‘‘चला गया!’’ बच्चों ने चकित स्वर में पूछा।
माली चुप खड़ा था।                          

बाल कहानी : आम का स्वाद


                                                                                

आम का स्वाद


‘‘अजय, आज घर पर ही रहना। अपने दोस्तों के साथ खेलने मत जाना। दादी अकेली हैं, उनका ध्यान रखना।’’ कहकर अजय के पापा अविनाश बाहर चले गए।
अजय को पता था कि आज मम्मी अस्पताल में गई हैं। पापा कह रहे हैं जल्दी ही अच्छी खबर सुनने को मिलेगी। वह खबर क्या होगी इसे अजय समझता है। मम्मी अस्पताल से बेबी लेकर आएंगी-भैया या बहन कोई भी। वह तो ठीक है, पर दादी के साथ घर में रहना। भला यह भी कोई बात हुई।
दोपहर का समय, गरम हवा चल रही है। पर यह आमों का मौसम है। उसका मन है कि आमों के बगीचे में जाकर ताजे तोड़े गए आम का स्वाद ले, पर पापा का आदेश थ। वह मन मारकर दादी के पास बैठा रहा।
अजय के पिता अविनाश छोटे से रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर हैं। स्टेशन के पास ही उन्हें रहने के लिए क्वार्टर मिला हुआ था। शहर वहां से दूर है। रेलवे क्वार्टरों के पास ही खेत और आमों का बगीचा है। अजय पढ़ने के लिए बस द्वारा शहर के स्कूल में जाता है। वह बैठा-बैठा दादी की ओर देख रहा था, जो ऊंघ रही थीं। तभी उसने खिड़की के बाहर अपने दोस्त नितिन को इशारा करते देखा-वह बाहर बुला रहा था। अजय ने देखा दादी नींद में थीं।वह चुपचाप बाहर चला गया। बाहर नितिन के साथ और भी कई दोस्त खड़े थे। अजय, नितिन और बाकी लड़की शहर के उसी स्कूल में साथ-साथ पढ़ते थे।
नितिन ने कहा-‘‘अजय,चलो बाग में। यह तो आमों का मौसम है।’’
अजय ने कहा-‘‘पिताजी आज सवेरे ही आमों का टोकरा लाए हैं।’’
नितिन मुस्कराकर बोला-‘‘धत् पागल। मुझे भी पता है आम बाजार में मिलते हैं पेड़ से तोड़कर आम खाने का अपना ही मजा है। आओ चलो।’’
अजय को पिता की चेतावनी याद आ रही थी, पर अपने हाथ से तोड़े गए आमों का स्वाद उसे अपनी ओर बुला रहा था। वह सोचता जा रहा था कि अगर इसी बीच पिता आ गए तो उनसे कया कहेगा। पर आमों के बगीचे में पहुंचते ही वह सब कुछ भूल गया। सब बच्चे आम तोड़ने में लग गए। बगिया का रखवाला रामभज उन्हें रोकने के लिए दौड़ा आता था, पर आज तो वह कहीं नजर ही नहीं आ रहा था।
बच्चे ताक-ताककर डालियों से झूलते आमों को अपने ढेलों से निशाना बनाने लगे। कभी निशाना आम पर लगता तो कभी पत्थरों की चोट से टहनियां और पत्ते नीचे आ गिरते। यह पहले से ही तय था कि जिसके पत्थर की चोट से जो आम गिरेगा वह उसी का होगा। पेड़ पर ढेलेबाजी का यह खेल चलता रहा। बीच-बीच में लड़के बगिया के रखवाले रामभज पर भी नजर रख रहे थे। उनमें से एक लड़का दूर से देख रहा था ताकि अगर रखवाला आता दिखाई दे अपने साथियों को चेतावनी दे सके।
अब अजय की बारी थी। उसने एक आम का निशाना ताक पर पत्थर उछाला, तभी दूर से पिता की आवाज सुनाईदी-‘‘अजय, ओ अजय,कहां घूम रहा है धूप में।’’ अजय घबरा गया। बोला-‘‘मैं चला...’’
लड़कों ने पुकारा-‘‘अपना आम तो लेता जा, फिर दूसरी आवाज आई-‘‘अरे यह तो आम नहीं कुछ और है-एक घोंसला।’’
सुनकर अजय का जी धक् रह गया, पर अब वापस जाकर देखने का समय नहीं था। उसने पिता के सामने से आते देख लिया था। तेजी से वह दौड़ता हुआ के पिता आ पहुंचा।
अविनाथ ने कहा-‘‘हांफ क्यों रहे हे। चलो, घर में चलो। देखो चेहरा कितना लाल पड़ गया है और पसीना भी खूब आ रहा है।’’ वह अजय का हाथ पकड़कर घर में ले गए। दादी ने देखा तो पूछने लगी-‘‘कहां चला गया था इतनी धूप में?’’
अजय को किसी की कोई बात नहीं सुनाई दे रही थी। बस कानों में वही शब्द गूंज रहे थे, ‘‘अरे, यह तो आम नहीं कुछ और है-एक घोंसला।’’
पिता ने कहा-‘‘मैंने जाने से मना किया था फिर भी तुम दादी को अकेली छोड़कर चले गए थे। क्यों?’’
दादी ने हंसकर अजय का गोद में भर लिया, माथा चूमती हुई बोलीं-‘‘देख तो सारा बदन कैसे गरम हो रहा है। चल अब आराम से बैठ।’’
पिता ने अजय से कहा-‘‘तुम्हारे आमों के चक्कर में एक खुशखबरी देना तो भूल ही गया।’’ दादी ने अजय का सिर थपकते हुए कहा-‘‘तुम बहन के भाई बन गए हो।’’ और हंस पड़ीं।
‘‘हां, अजय बधाई। मैं अस्पताल जा रहा हूं। चलो तुम भी  अपनी नन्ही मुन्ही बहन से मिल लेना।’’
अजय के होंठों पर हंसी आ गई। उसने कसकर पिता का हाथ चूम लिया। मन में खुशी की लहर दौड़ रही थी-लेकिन एक आावज अब भी कानों में गूंज रही थी-‘‘अरे,यह तो आम नहीं कुछ और है-‘‘घोंसला।’’ वह पिता के स्कूटर के पीछे बैठकर अस्पताल की ओर जा रहा था। पर वही आवाज लगातार गूंज रही थी कानों में-आम नहीं, घोंसला। हां उसने जो पत्थर आम तोड़ने के लिए फेंका था, वह एक घोंसले पर जा लगा था और फिर...
अविनाश अजय का हाथ पकड़कर पत्नी रमा के पास ले गए। रमा ने पास एक नन्ही मुन्नी सो रही थी। अजय को देखते ही रमा मुस्कराई और अजय को अपने पास आने का संकेत किया। फिर बोली-‘‘अपनी बहन के नहीं देखेगा। यह कैसा चेहरा बना रखा है।’’
अजय ने नन्ही मुन्नी बहन को देखा। मन में खुशीभर गई, पर फिर चेहरा उदास हो गया। कानों में कोई कह रहा था-तेरा पत्थर आम को नहीं, घोंसले पर लगा था और...
वह लगातार एक ही बात सोच रहा था, कैसे जल्दी से जल्दी घर पहुंचकर आम के बाग में जाए और देखे कि क्या सचमुच पत्थर की चोट से घोंसला गिर गया था। पता नहीं घोंसले में मौजूद पंछियों के छौनों का क्या हुआ था।
घर वापस पहुंचे तो पिता ने कहा-‘‘मैं स्टेशन जा रहा हूं, अब दादी के पास ही रहना। कल हम फिर तुम्हारी नन्ही बहन से मिलने चलेंगे।’’
अजय की आंखें डबडबा आईं-उसने पिता से कुछ कहना चाहा, पर मन की बात होंठों से बाहर नहीं आई। पर पिता उसकी बेचैनी समझ रहे थे। उन्होंने पूछ लिया-‘‘अजय क्या बात है? इतने उदास क्यों हो। तुम अपनी नन्ही बहन को देखकर भी खुश नहीं हुए। बताओ,  क्या बात है? तबीतय खराब है क्या?’’
अजय ने धीरे से पिता की कलाई थाम ली। उसके होंठों से निकला-‘‘घोंसला...’’
‘‘घोंसला क्या...’’ साफ-साफ कहो क्या बात है?
अब अजय चुप नहीं रह सका। वह पिता को आम के बगीचे में घटी पूरी घटना बता गया। अविनाश कुछ पल चुप रहे फिर बोले-‘‘बेटे, यह तो ठीक नहीं हुआ। घोंसला पेड़ से गिरा है तो उसमें मौजूद बच्चों या अंडों का पता नहीं क्या हुआ होगा। चलो चल कर देखते हैं।’’ कहकर वह अजय के साथ आम के बगीचे में पहुंच गए।
शाम हो चली थी। बगिया में घने पेड़ों के कारण धुंधलका सा हो गया था। घोंसलों की ओर लौटते पंछियों का शोर सुनाई दे रहा थ। बाग में और कोई नहीं बस रामभज था।
उसने अजय को देखा तो बोला-‘‘क्यों फिर आ गए।’’ अजय के जवाब देने से पहले ही अविनाथ ने कहा-‘‘रामभज भैया, आज अजय की नई बहन का जन्म हुआ है। मिठाई कल खिलाएंगे तुम्हें। इस समय तो किसी और वजह से आए हैं यहां।’’
घर में बेटी का जन्म हुआ है सुनकर रामभज ने बधाई दी फिर पूछने लगा-‘‘इस समय क्यों आए हो बाबू?’’
अविनाश ने अजय की ओर देखा फिर रामभज को पूरी बात बता दी। इधर-उधर देखते हुए बोले-‘‘अजय कह रहा है कि इसने अपने दोस्ते को कहते सुना था कि आम नहीं घोंसला गिरा है, पर यहां तो जमीन पर कोई घोंसला कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। हां, टूटी हुई टहनियां और पत्ते जमीन पर पड़े हैं।
रामभज बोला-‘‘मैंने बच्चों को आमों पर पत्थर फेंकते देखा तो मैं चल आया। मुझे देखते ही सब बच्चे भाग गए। मैंने देखा था जमीन पर पड़ा एक घोंसला।’’
‘‘हां, इस समय कहां है?’’
‘‘मैंने पेड़ पर चढ़कर घोंसले को अच्छी तरह डालियों के बीच टिका दिया है।’’ रामभज ने कहा।
‘‘क्या घोंसले अंडे या चिडि़या के बच्चे थे?’’ अजय ने डरे-डरे स्वर में पूछा।
‘‘नहीं घोंसले में कुछ नहीं था। लगता है पंछी ने अभी नया घोंसला बनाया है। घोंसले में अंडे या बच्चे मुझे नहीं दिखे। अगर होते तो घोंसला गिरने से अंडे तो जरूर टूट जाते। बच्चे हेते तो वे भी मर सकते थे।’’ रामभज बोला।
अजय को अब सांस आई। फिर भी अपनी आंखों से घोंसले में झांकना चाहता था। उसने रामभज से कहा ते वह मुस्करा उठा। बोला-‘‘पेड़ पर चढ़ना जानते हो तो चढ़ जाओ। मैं बता दूंगा कि घोंसला मैंने पेड़ पर कहां टिकाया है।’’
अविनाथ ने इनकार में सिर हिला दिया। बोले-‘‘इसे पेड़ पर चढ़ना नहीं आता। मैं जानता हूं बचपन में खूब चढ़ा हूं पेड़ों पर लेकिन अब तो सब भूल गया हूं।’’
रामभज कुछ सोचता रहा फिर उसने कहा-‘‘बाबू, आप पेड़ के नीचे खड़े हो जाओ। अजय भैया आपक कंधे पर खड़ा हो जाए। मैं ऊपर जाकर भैया को चढ़ा लूंगा।’’ अच्छी तरकीब निकाली थी रामभज ने। वह झटपट पेड़ पर चढ़ गया। अविनाथ ने अजय को अपने कंधे पर खड़ा कर लिया। ऊपर से रामभज ने खींच लिया-इस तरह अजय पेड़ पर जा पहुंचा।
‘‘कहां है घोंसला?’’ अजय ने पूछा।
रामभज ने पत्तों के बीच ऊपर की तरफ इशारा किया-आओ दिखाता हूं। तुम डाल पकड़कर आगे खिसकते रहो। मैं पीछे से संभाले रहूंगा-गिरने नहीं दूंगा।’’
अजय डाल को दोनों हाथों से मजबूती से थामकर धीरे-धीरे आगे खिसकता रहा। पीछे से रामभज ने थामा हुआ था। फिर दो डालियों के जोड़ पर एक घोंसला दिखाई दिया-‘‘अजय ने देखा छोटा सा घोंसला एकदम खाली था। पेड़ पर दूसरे और भी कई घोंसले थे, जिनसे तरह-तरह की आवाजें आ रही थीं। अब जाकर अजय को तसल्ली हुईकि सचमुच घोंसले में अंडे या बच्चे नहीं थे। वरना अब तक तो वह खुद को अपराधी समझ रहा था। इसके बाद रामभज ने अजय को डाल पर पीछे की तरफ खिसकाते हुए सावधानी से नीचे उतार दिया। नीचे खड़े अविनाथ ने बेटे को संभाल लिया।
कुछ देर चुप्पी रही। अविनाश ने कहा-‘‘रामभज भैया, आज तुमने बहुत अच्छा काम किया। अजय के हाथें से एक बड़ा अपराध होते-होते रह गया।’’
रामभज बोला-‘‘मैं तो बच्चों को यही समझाता हूं कि स तरह आमों को पत्थर मार कर तोड़ना ठीक नहीं।  इससे घोंसले गिर जाते हैं, पंछी घायल होते हैं, अंडे टूट फूट जाते हैं। बाजार में आम खूब मिलते हैं।’’
‘‘तुमने ठीक कहा। इस तरह आम तोड़ने के बारे में नहीं, पेड़ों पर रहने वाले परिंदों  के बारे में सोचना चाहिए।’’ कहकर अविनाश बेटे के साथ घर लौट आए। रास्ते में रुककर अजय फिर से पेड़ की तरफ देखने लगा जो ढलती शाम के धुंधलके में खो चुका था।
अविनाश ने कहा-‘‘बेटा, घोंसले में रहने वाले पंछियों के छौने बहुत कोमल होते हैं। समझो जैसे अस्पताल में तुम्हारी मां के पास लेटी तुम्हारी छोटी बहन। जरा सोचो, तुम्हारी बहन के पास पलंग पर लेटी है और तब कोई उस पर पत्थर फेंक दे तो क्या होगा? उसे चोट लगेगी यह घायल हो सकती है और...’’
‘‘बस पापा बस......’’ अयज ने रुंधे स्वर में कहा और जोर से अविनाश का हाथ थाम लिया। उसकी उंगलियां कांप रही थीं।
अविनाथ ने धीरे से उसका कंधा थपथपा दिया। अब अजय से और कुछ कहने की जरूरत नहीं थी। संदेश उस तक पहंच गया था। (