Wednesday 30 December 2015

बाल कहानी : दीवार


                                                                          दीवार


रेखा ने कॉल बेल बजा दी फिर दरवाज़ा खुलने का इन्तजार करती हुई इधर- उधर देखने लगी, दरवाजे के ठीक सामने वाली दीवार पर एक चित्र बना दिखाई दिया, किसी ने वहां नीली पेंसिल से दो आँखें बना दी थीं. तभी दरवाज़ा खुल गया और रेखा अंदर चली गई. रेखा वहां सफाई का काम करती है. काम करते हुए वही चित्र आँखों के सामने घूमता रहा. उसकी बेटी प्रिया दूसरी क्लास में पढ़ती है. वह बहुत अच्छी ड्राइंग बनाती है. रेखा सोच रही थी_ क्या प्रिया भी ऐसी सुंदर ड्राइंग बना सकती है. घर की मालकिन का नाम प्रेमा है.
अगले दिन रविवार था.रेखा बेटी को भी अपने साथ ले आई. उसे आँखों के चित्र के पास  सीढ़ी पर बैठा दिया. कहा- -‘स्लेट पर चाक से ऐसा ही सुंदर चित्र बना.’ फिर काम करने अंदर चली गई. कुछ देर बाद उसे प्रेमाजी के चिल्लाने की आवाज़ सुनाई दी. उसने बाहर निकल कर देखा प्रेमाजी प्रिया को डांट रही हैं- ‘ अरे तूने तो सारी दीवार गन्दी कर दी.’ प्रिया ने आँखों के चित्र के पास एक आदमी का चित्र बना दिया था. उसे एक बैसाखी के सहारे खड़ा दिखाया गया था. रेखा ने प्रिया के गाल पर एक थप्पड़ जड़ दिया और बोली-’ अरे यह क्या कर डाला. मैने तो स्लेट पर बनाने को कहा था,दीवार पर क्यों बना दिया.’  बेटी रोते हुए बोली-‘ स्लेट पर मिट जाता है.’
उसी समय अंदर से प्रेमा का बेटा अनुज बाहर निकल आया. वह स्कूल में ड्राइंग का अध्यापक है. उसने दीवार पर बने चित्रों को देखा - ‘ अरे वाह ! सुंदर. किसने बनाए हैं ये चित्र.’ तब तक प्रेमा अंदर चली गई थी.रेखा ने अनुज को पूरी बात बता दी. वह मुस्कराया और प्रिया का हाथ थाम कर अंदर ले गया. उसे बैठा कर उसके सामने ड्राइंग की शीट और रंगों वाली पेंसिलों का डिब्बा रख कर बोला -‘ प्रिया, आराम से ड्राइंग बंनाओ .’ कह कर वह दूसरे कमरे में चला गया.रेखा भी काम में लग गई. प्रिया शीट पर ड्राइंग बनाने में जुट  गई.
कुछ देर बाद अनुज ने आकर देखा - प्रिया ने ड्राइंग शीट पर बैसाखी वाले आदमी का चित्र बना दिया था. एकदम वैसा जैसा बाहर दीवार पर बनाया था. वह कुछ समझ न सका ...आखिर उसने रेखा को बुला कर पूछा तो बोली –‘ पिछले साल इसके पिताजी का एक्सीडेंट हो गया था, उस कारण उनका एक पैर घुटने के नीचे काटना पड़ा था, प्रिया जब भी उन्हें बैसाखी के सहारे चलते हुए देखती है तो रोने लगती है. मैंने इसे कई बार समझाया है कि पिता का वैसा चित्र न बनाया करे पर यह सुनती ही नहीं. ‘ अनुज चुप रहा.वह वह कुछ सोच रहा था.
अगले दिन रेखा काम पर आई तो अनुज घर में मौजूद था. उसने रेखा को एक कागज़ दिया. उस पर एक पता लिखा था. उसने कहा-‘ तुम अपने पति को लेकर इनके पास जाना. वहां जाकर तुम्हें सब पता चल जाएगा. ‘ उस कागज पर एक संस्था का पता लिखा था, जहां अंगहीनों को कृत्रिम अंग लगाए जाते थे.
दो दिन बाद रेखा काम पर आई तो बहुत खुश लग रही थी, प्रेमा ने पूछा-‘ क्या कोई खज़ाना मिल गया है जो इतनी खुश लग रही है.’ पर रेखा ने कुछ न कहा. वह प्रेमा का स्वभाव  अच्छी तरह जानती थी. वैसे भी अनुज ने अभी किसी को भी कुछ बताने से मना किया था. अगले दिन रेखा उस संस्था में गई तो अनुज भी वहां मौजूद था. डॉक्टर ने रेखा के पति की  अच्छी तरह जांच की.  तभी रेखा ने अनुज से कहा-‘ आपसे कुछ कहना है.’ अनुज ने हंस कर कहा-‘ तुम्हे कुछ कहने की जरुरत नहीं है. इसका पूरा खर्च संस्था और मैं मिल कर उठाएंगे. ‘ रेखा के चेहरे पर हलकी मुस्कान आ गई.
संस्था में रेखा अपने पति के साथ कई दिनों तक जाती रही, इस बीच वह काम पर  नहीं आ सकी. प्रेमा जी से उसने बीमार होने का बहाना बनाया था. और फिर एक रविवार के दिन वह बेटी के साथ काम पर आई तो उसके पोर पोर से हंसी फूट रही थी. अनुज ने प्रिया से कहा-‘ ,आज तुम्हे अपने पापा का नहीं , फूलों का चित्र बनाना है,’ और उसने सामने रखे गमले की ओर संकेत किया जिसमें फूल मुस्करा रहे थे. प्रिया हंस कर फूलों की ड्राइंग बनाने लगी. लेकिन अनुज को पता नहीं था कि फ्लैट में आने से पहले उसने दीवार पर बने पिता के रेखा चित्र में कुछ परिवर्तन कर दिया था. अब चित्र में बैसाखी कहीं नज़र नहीं आ रही थी. उसमे दिखाई देता आदमी अपने दोनों पैरों पर खड़ा था.
बाद में जब प्रेमाजी ने दीवार को दोबारा पेंट करवाने की बात कही तो अनुज ने मना कर दिया. उसने कहा-‘ मां , यह दीवार अब सदा ऐसे ही रहेगी . इन दो चित्रों के पास मैं भी ड्राइंग किया करूंगा. ‘ बात प्रेमाजी की समझ में नहीं आ रही थी. पर जिन्हे समझना था वह जान चुके थे. हाँ, यह पता नहीं चल सका कि दो आँखों का चित्र किसने बनाया था. ( समाप्त )                                 

बाल कहानी : मेरा बस्ता





                                                                    
                                                                      मेरा बस्ता
                                                                     


विनोद और अजय कूड़ा घर में काम कर रहे हैं. दोनों दोस्त हैं. यह दोस्ती किसी स्कूल में नहीं एक कूड़ा घर में शुरू हुई है. दोनों के परिवार नगर के बाहरी हिस्से में एक गन्दी बस्ती में रहते हैं. दोनों के पिता भी कूड़ा घरों में कागज तथा ऐसी चीजें बटोरते हैं जिन्हें कबाड़ वाले को बेच कर कुछ पैसा जुटाया जा सके. यह सिलसिला काफी दिनों से इसी तरह चलता आ रहा है. बाप बेटा बड़े –बड़े बोरे लेकर सुबह मुंह अँधेरे घर से निकल पड़ते हैं. विनोद की मां भी कुछ  घरों में जाकर काम करती है . तब जाकर परिवार के लिए रोटी का जुगाड़ हो पाता है.
अजय ने देखा कि विनोद कूड़े में से कुछ चुन कर एक फटे बस्ते में डालता जा रहा है. उसने पूछा तो विनोद टाल गया, पर अजय ने बस्ते की तलाशी ले ही डाली. उसमे थी मनकों की एक माला ,एक लाल रिबन, हेयर पिन का एक पत्ता और एक फटी हुई किताब. अजय ने पूछा –  ‘’तो स्कूल की तैयारी है?’’  विनोद ने कहा कि बहन माँ से रिबन के लिए पैसे मांग रही थी और माँ मनकों की माला चाहती है. फिर उसने बस्ते को पास खड़ी वैन के हैंडल से लटका दिया और काम में जुट गया. कुछ देर बाद जो वैन की तरफ देखा तो सन्न रह गया. वैन वहां नहीं थी. ‘अरे वैन कहाँ चली गई? ‘ सोचने लगा- अब माँ से क्या कहेगा, मन उदास हो गया. कुछ देर चुप बैठा रहा फिर काम में लग गया. शाम को घर गया तो चुप चुप था. कहता भी क्या. रात में नींद नहीं आई पर सुबह रोज के समय पर पिता के साथ बोरा लेकर निकल पड़ा. कूड़ाघर में उसके हाथ काम कर रहे थे पर आँखें उधर ही लगी थीं जहाँ कल वैन खड़ी थी. कुछ देर बाद उसने वैन को आते देखा. वह तुरंत उस तरफ भाग चला. वैन के रुकते ही उसने ड्राइवर से कहा -‘ कल आप मेरा बस्ता अपने साथ क्यों ले गए.’
ड्राइवर वैन से बाहर निकला और विनोद को देख कर बोला -- ‘ तो तुम्हारा है वह बैग ?’
‘ हाँ, मेरा है वह बस्ता.’- विनोद बोला.
‘मुझे इस बारे में कुछ पता नहीं था,’- ड्राइवर ने कहा. ‘ घर जाकर देखा तो एक फटा बस्ता हैंडल से लटक रहा था.
‘ लाओ मेरा बस्ता दो मुझे.’ – विनोद बोला.
‘ वह तो घर पर है. आओ मेरे साथ चलो. ‘ – कह कर ड्राइवर ने वैन का दरवाज़ा खोल दिया. विनोद को कुछ डर लगा. क्या इस अनजान आदमी के साथ जाना ठीक होगा? उसने  सोचा लेकिन फिर अजय का हाथ थाम कर वैन में बैठ गया. कुछ देर बाद वैन एक मकान के सामने रुक गई. दोनों ड्राइवर के पीछे अंदर चले गए. दरवाज़े से होकर आँगन में पंहुंचे . विनोद और अजय ने देखा कि वहां कई बच्चे पढ़ रहे थे. ‘ क्या यह स्कूल है?’ विनोद ने अजय से पूछा  जवाब उसने दिया जो दोनों को वहां लेकर आया था-‘ हाँ, यह स्कूल ही है. तुम चाहो तो पढ़ सकते हो यहाँ.’’
‘’ लेकिन हम...’’ विनोद  आगे कुछ नहीं कह सका .
‘’ हाँ तुम दोनों इन बच्चों जैसे हो और ये सब भी तुम जैसे हैं. पहले ये भी तुम्हारी तरह कूड़ा घरों में काम करते थे . पर अब उस तरफ झांकते भी नहीं. ‘’ कह कर उसने अपना परिचय दिया. उसका नाम रमन था . वह एक संस्था चलाता था.  कूड़ा घरों में काम करने वाले बच्चों को उस गंदगी से हटा कर उनकी पढाई का इंतजाम करता था,
विनोद और अजय पढ़ते हुए साफ़ सुथरे बच्चों को एकटक देखते रहे. दोनों एक ही बात सोच रहे थे – क्या हम भी इन जैसे बन सकते हैं? अपने गंदे हाथ पैरों और मैले कपड़ों पर लज्जा आ रही थी.
रमन उनके मन की बात जान गया. पत्नी निशि से कहा तो वह उन दोनों को बाथ रूम में ले गई. कहा-‘ तुम हाथ मुंह साफ़ कर लो . में तुम्हारे बदलने के लिए कपडे ले आती हूँ. ‘’ निशि ने अजय और विनोद को अपने बेटे श्याम के कपडे ला दिए और कहा-‘ ये शायद कुछ बड़े हैं तुम दोनों के लिए , बस आज भर की बात है. ‘’ अजय और विनोद ने कपडे बदल लिए . अब उन्हें अच्छा लग रहा था. रमन ने कहा-‘ आओ अब चाय पीते हैं ,फिर तुम्हें घर छोड़ आऊंगा.’’ दोनों ने निशि और रमन के साथ बैठ कर चाय पी. ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी ने उनके साथ इतना अच्छा व्यवहार किया था.
रमन दोनों को वैन में बैठा कर उनके घर जा पंहुंचा . विनोद और अजय के घर पास पास थे. दोनों के माता पिता अजय और विनोद के इस तरह बिन कहे काम को बीच में छोड़ कर चले जाने से परेशान थे. दोनों के लौट आने से उन्हें तसल्ली हो गई. पर उन्हें नए कपड़ों में और साफ़ सुथरा देख कर हैरान रह गए. रमन ने कहा-.’ हैरान न हों. इन दोनों का कायाकल्प हो गया है. अब आप लोगों की बारी है.’’ और फिर उसने पूरी बात विस्तार से समझा दी.
विनोद्  के पिता ने कहा –‘’ आपकी बात तो ठीक है पर हमारा घर कैसे चलेगा?’’
‘’ उसका इंतजाम भी हो जाएगा .’’ रमन ने कहा. फिर दोनों परिवारों से वैन



‘में बैठने को कहा. रमन दोनों परिवारों को एक नई जगह ले गया. वहां एक बड़े कमरे में कई स्त्री पुरुष काम में जुटे थे . दो औरतें सिलाई मशीनों पर काम कर रहीं थीं. फर्श पर बैठे कई लोग तरह तरह की चीजें बना रहे थे. एक आदमी लकड़ी के खिलौने पर पॉलिश कर रहा था . विनोद का पिता उसके पास बैठ गया और ध्यान से कुछ देर देखता रहा फिर रमन से बोला – ‘’मेरे बापू लकड़ी के बहुत अच्छे खिलौने बनाया करते थे. पूरे गाँव में मशहूर था उनका नाम.   उनकी मौत के बाद मैं शहर चला आया फिर कब कूड़ा घर में पहुँच गया पता ही न चला.’’
‘’ आप फिर से शुरू कर  सकते हैं.’’-रमन  बोला.
विनोद की माँ ने कहा-‘’ सिलाई तो मुझे भी आती है पर मशीन खरीदने के पैसे कभी न जुटे.’’
रमण ने कहा –‘यहाँ  सब इंतजाम है. आप अपना मनचाहा काम कर सकती हैं.’’
‘’लेकिन सारा दिन तो कूड़ाघर में बीत जाता है. ‘’- अजय के पिता ने कहा.
‘’ लेकिन कूड़ा घर में तो अब जाना नहीं है. न आप लोगों को और न आप के बच्चों को’. आप लोग यहाँ काम करेंगे और बच्चे हमारे पास पढाई .’’-  रमन बोला. ‘’ आप चारों यहाँ ट्रेनिंग लेंगे और फिर काम शुरू होगा.’’
अजय और विनोद के माता पिता को रमन ने अच्छी तरह समझा दिया. वे चारों सारा दिन वहीँ रहकर लोगों को काम करते देखते और सीखते रहे. शाम को रमन ने दोनों परिवारों को कुछ पैसे दिए तो वे बोले –‘’ हमने तो कुछ किया ही नहीं.’’ तब रमन ने कहा –‘’ आप लोग रोज कमाते हैं तब घर में रोटी बनती है. आज तो कुछ कमाया नहीं. मैं तो थोड़े ही पैसे दे रहा हूँ. जब ट्रेनिंग के बाद काम शुरू कर देंगे तो ज्यादा मिलने लगेंगे.’ फिर उन्हें बताया कि बाज़ार में उनकी संस्था की एक दुकान है जहाँ इन सामानों को बेचा जाता है. ‘’ हम खरीदारों                             
 को बतलाते हैं कि इन चीजों को किन लोगों ने बनाया है. तब वे जरूर लेते हैं’’
इसके बाद रमन उन को अपने घर ले गया. पत्नी निशि से मिलवाया. निशि ने कहा-‘’ आप लोग बच्चों की चिंता न करें. हम बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर रहे हैं. बाद में उन्हें स्कूल में दाखिल करवा देंगे. लेकिन एक शर्त है कि आप लोग या आपके बच्चे फिर कभी कूड़ा घर में काम नहीं करेंगे.’’
‘’ कभी नहीं.’’- उन चारों ने एक साथ कहा . उस रात विनोद और अजय के घर में किसी को नींद नहीं आयी; उन्हें कूड़े के दानव से मुक्ति मिल गई थी. ( समाप्त )

Friday 11 December 2015

बाल कहानी : सुख - दुःख






                                                                        सुख-दुःख




परिवार गहरे दुःख में डूब गया. श्यामा के पति रामेश्वर की अचानक मृत्यु हो गई. उन्हें कोई खास बीमारी नहीं थी. सगे सम्बन्धियों और पड़ोसियों की भीड़ जमा हो गई. श्यामा अपने इकलौते बेटे प्रेम को गोद में लिए बैठी सिसक रही थी. सब उन्हें सांत्वना दे रहे थे. सबकी जबान पर एक ही चर्चा थी कि रामेश्वर अचानक कैसे चले गए, इन बातों के बीच कई बार बर्तनों      की खनक सुन पड़ी. सब की नज़रें बार बार रसोई की तरफ उठने लगीं .’ क्या रसोई में कोई भोजन बना रहा था.’ पर यह कैसे हो सकता था! जिस घर में मौत होती है वहां कई दिनों तक भोजन नहीं बनता , खाना रिश्तेदार और पड़ोसियों के घरों से आता है. तब फिर रसोई में क्या हो रहा था?
एक पड़ोसन ने उठकर रसोई में झाँका तो कामवाली लता बर्तन साफ करती नज़र आई. पड़ोसन ने गुस्से से कहा-‘’ यह बंद करो. बाहर सबको लग रहा है जैसे खाना बन रहा हो.’’ लता ने कहा-‘’ गंदे बर्तन साफ कर रही हूँ.’’
‘’ तो बाद में आकर कर देना.’’-पड़ोसन ने कहा. लता की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे. इस मौके पर श्यामा से भी कुछ पूछना मुश्किल था. कुछ सोच कर लता ने कहा-‘’ मैं एक काम करती हूँ , जूठे बर्तनों को अपने घर ले जाती हूँ. साफ करके ले आउंगी.’’ चतुर पड़ोसन को लगा कि लता इस तरह कई बर्तन अपने घर में रख सकती थी, वह बोली –‘’ बर्तन गिन कर ले जाना और उसी तरह वापस ले आना.’’ यह बात लता को बहुत बुरी लगी,बोली-‘’ कम से कम मुझे चोर तो मत कहो.’’ पड़ोसन ने बात बनाते हुए कहा-‘’ अरे नहीं मेरा वह मतलब नहीं था.’’ और बाहर चली गई. लता कुछ पल चुप खड़ी रही फिर बर्तनों को एक बोरी में डाल कर अपने घर ले गई. बाहर निकलते समय उस पड़ोसन से आँखें मिलीं तो उसने सिर घुमा लिया.
घर पर बेटी जया बोरी देख कर हैरान रह गई. कहा-‘’ माँ, इतना सामान क्यों ले आई हो! शाम को आने वाले मेहमानों के लिए पापा पहले ही मिठाई – नमकीन ले आये हैं.’’ बेटी की बात सुन कर वह मुस्करा दी. बोली-‘’ बोरी में वैसा कुछ नहीं है जैसा तू समझ रही है.’’ और उसने बोरी खोलकर उलट दी.
गंदे बर्तन झन- टन करते हुए फर्श पर बिखर गए. फिर लता हंस दी तो जया भी मुस्करा दी. जया के पूछने पर उसने पूरी बात बता दी. सुन कर जया उदास हो गई. वह रामेश्वर बाबू को अच्छी तरह जानती थी. माँ-बेटी ने मिल कर बर्तन साफ करने के बाद घर की झाड़-पोंछ शुरू कर दी. शाम को जया को देखने कुछ लोग आने वाले थे. तख़्त पर नई चादर और टेबल पर सुंदर मेजपोश बिछा दिया गया. अब प्लेटों में नाश्ता लगाने की बारी थी. प्लेटों में नाश्ता लगाते हुए लता की आँखें धोकर रखे गए बर्तनों पर टिक गईं . स्टील के बर्तन धूप में चमक रहे थे. कितने सुंदर लग रहे थे. अब आँखें घर की प्लेटों पर गईं. घर की प्लेटें पुरानी और घिसी हुई हैं पर आज कुछ ज्यादा ही बदरंग लग रही थीं. मन ने कहा – इन प्लेटों में मेहमानों के सामने नाश्ता भूल कर भी मत रखना वर्ना बात बिगड़ जाएगी, लता कुछ देर सोचती रही फिर श्यामा की नई प्लेटें उठा कर उनमे नाश्ता सजा दिया. हाँ यह करते हुए उसकी उँगलियाँ काँप रही थीं. लग रहा था जैसे चोरी कर रही हो.
सज संवर कर जया आई तो देख कर चौंक गई, बोली-‘’ माँ, यह क्या ! हम जैसे हैं ठीक हैं . आज तुम्हे अपनी प्लेटें क्यों बुरी लग रही है इसे मै खूब समझ रही हूँ.’’ पर उसे चुप होना पड़ा क्योंकि मेहमान आ गए थे. वे चार थे – लड़का, उसकी बहन और माता-पिता. स्वागत के  बाद मेज  पर नाश्ते की  प्लेटें लगा दी गईं. जया सुंदर दिख रही थी, जब वह धीरे से मुस्कराई तो  लड़के ने ध्यान से उसकी तरफ देखा, लड़के की माँ ने जया को अपने पास बैठा लिया और बोली –‘’ जया मुझे पसंद है.’’ कुछ देर बाद मेहमान चले गए. उनके जाते ही माँ बेटी आलिंगन में बंध गईं ,लता ने जया का माथा चूम लिया. बोली –‘’ आज शुभ दिन है. ‘’ फिर बर्तनों को बोरी में भर कर श्यामा के घर की तरफ चल दी.वह श्यामा के बारे में सोच रही थी कि उनका लड़का सुंदर अभी बहुत छोटा है. श्यामा की उमर भी ज्यादा नहीं है, भले ही पैसे की कोई दिक्कत नहीं है. लेकिन पति का इस तरह एकाएक चले जाना जिन्दगी को उलट पलट कर देता है. बर्तनों की बोरी को कंधे पर रखे लता यही सब सोचती हुई चली जा रही थी.
लता चुप थी लेकिन बोरी में बंद बर्तन आपस में बातें कर रहे थे. लता को उनकी बातें नहीं सुनाई दे रही थीं. बर्तन तो हमेशा ही बातें करते हैं ,लोगों को उनकी बातें झन- टन की आवाजों के रूप में सुनाई देती हैं . एक कटोरी ने थाली से कहा-‘’ दीदी, तुमने देखा होगा लता की बेटी जया   कितनी सुंदर लग रही थी. ‘’ थाली बोली-‘’ तुमने ठीक कहा. दोनों की जोड़ी खूब जमेगी.’’ एक चम्मच बीच में बोला-‘’ अगर आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँ.’’ ‘’ हाँ, तू भी कह डाल .’’ थाली ने कहा.
‘’आप सबने लता के घर के पुराने बर्तनों को तो देखा ही होगा. कितने पुराने और घिसे हुए थे.   तभी तो उसने नाश्ते की प्लेटें बदल दी थीं. अगर नाश्ता पुरानी प्लेटों में दिया जाता तो क्या होता?’’
‘’ चुप शैतान.’’ थाली ने कहा.’’ हमेशा बुरा सोचता है यह क्यों नहीं कहता कि जया का जीवन सुखी हो जाए.’’
लता श्यामा के पास पहुंची तो देखा काफी लोग चले गए हैं . श्यामा की दो बहनें बैठी थीं. वे खाना लेकर आईं थीं पर श्यामा ने कुछ भी नहीं खाया था, सुंदर भी भूखा था.  
    लता ने बर्तनों की बोरी एक तरफ रख दी और श्यामा के पास बैठ कर उसका सर सहलाने लगी. धीरे से बोली-‘’ आप नहीं खाएंगी तो सुंदर भी भूखा रहेगा . आपको उसकी कसम.’’ फिर एक प्लेट में खाना लगा कर ले आई और श्यामा तथा सुंदर को खिलाने लगी. चम्मच बोरी के एक छेद से बाहर गिर गया था, वह लता की बातें देख सुन रहा था. लता रसोई में प्लेट रखने गई तो उसने चम्मच को फिर से बोरी में डाल दिया,  चम्मच ने थाली से कहा –‘’ मैंने लता का अजीब व्यवहार देखा है. अपने घर में वह कितना हंस रही थी. लेकिन यहाँ दुःख का कैसा दिखावा कर रही है.’
थाली ने उसे डांट दिया. बोली-‘’ मैं लता को अच्छी तरह जानती हूँ. वह दिल की साफ़ है. अपने घर पर वह खुश थी तो अपनी बेटी का रिश्ता तय हो जाने की आशा में. और यहाँ वह श्यामा के दुःख में मन से शामिल है. सुख और दुःख दो भाई हैं . दोनों हर घर में आते जाते रहते हैं. आज यहाँ दुःख आया है तो कुछ समय बाद इसका भाई सुख भी आएगा. ‘’ इस सबसे अनजान लता श्यामा को सांत्वना दे रही थी. दोनों की आँखों में आंसूं थे.                  ( समाप्त )     

Wednesday 2 December 2015

बाल कहानी : डबल ड्यूटी

                                                           
                                                              डबल ड्यूटी



लखमा तेजी से हाथ चला रही है. आज उसे जल्दी घर जाना है. कोई  मेहमान आने वाला हैं. लेकिन काम तो पूरा करना ही है. लखमा बाज़ार में तीन दुकानों में सफाई का काम करती है.  पति मजदूर है. दोनों के काम करने पर भी घर मुश्किल से चलता है. एक बेटा है अमर.  
दुकानों के बाहर बरामदे में पोंछा लगाते हुए लखमा की नज़र एक बच्चे पर पड़ी जो कुछ आगे एक दुकान के बाहर सफाई कर रहा था. लखमा देखती रही- बच्चा सात आठ साल का लग रहा था. वह उसे देखती रही- बच्चा कोशिश कर रहा था पर सफाई उससे हो नहीं रही थी. पानी की बाल्टी खिसकाते हुए वह फिसल गया और बाल्टी उलट गई. अब लखमा रुक न सकी. उसने बढ़ कर बच्चे को गोदी में उठा लिया और सिर सहलाते हुए बोली-‘’ तेरा नाम क्या है?’’
‘’ जानी.’’ उसने कहा.
‘’ तू यह काम क्यों कर रहा है? यह तेरे बस का नहीं है. ‘’ पूछने पर लखमा ने जान लिया कि जानी की माँ रेशमा बीमार है. वह भी लखमा की तरह दुकानों में सफाई का काम करती है. और उसने ही जानी को सफाई करने भेजा था. ऐसी स्थिति से कई बार लखमा को भी गुजरना पड़ा था. वह जानती थी कि ऐसे में काम हाथ से निकल जाता है. इसीलिए जानी की माँ ने उसे काम करने भेजा होगा.
लखमा ने जानी से कहा-‘’ बेटा , तू रहने दे. जा बच्चों के संग खेल. मैं अभी निपटा देती हूँ. ‘’ जानी हंसने लगा और सडक पर खेलते बच्चों के बीच चला गया. हालांकि लखमा को घर जाने की जल्दी थी पर उसे जानी का अधूरा काम पूरा करना ही था. उसने जल्दी जल्दी काम निपटाया फिर घर की तरफ चल दी . उसने देखा जानी सड़क पर दूसरे बच्चों के साथ खेल रहा था, लखमा के होटों पर मुस्कान आ गई. उसे अच्छा लग रहा था. पर घर पहुँच कर मूड बिगड़ गया, उसे घर लौटने में देर हो गई थी. इसलिए मेहमान बिना मिले चला गया था.
अगली सुबह लखमा काम पर पहुंची तो जानी फिर वहाँ दिखाई दिया. इसका मतलब था कि जानी की माँ अभी बीमार थी. ‘ मुझे न जाने कितने दिन डबल ड्यूटी करनी होगी. ‘ वह यह सोच कर पछता रही थी कि उसने क्यों यह मुसीबत अपने ऊपर ले ली. वह जानी को सफाई करते देखती रही. वह ठीक तरह से काम कर नहीं पा रहा था. पर लखमा ने उसकी मदद नहीं की. लेकिन पोंछा लगाते हुए जब जानी दो बार फिसल गया तो लखमा रह न सकी. उसने जानी का हाथ पकड़ कर जोर से अपनी ओर खींचा और चिल्ला कर बोली –‘’ कल तुझे मना किया था न कि तू यह काम नहीं कर सकता. बता फिर क्यों आया ?’’
हाथ खींचने से जानी रो पड़ा. सुबकते हुए बोला-‘’ माँ ने भेजा है. उनकी तबीयत ठीक जो नहीं है.’’
‘’ चल मैं चलती हूँ तेरी माँ के पास, चाहे जो हो बस तुझे यहाँ नहीं आना है.’’ लखमा ने कहा और जानी के साथ उसकी माँ से मिलने चल दी. उसने जानी का काम अधूरा छोड़ दिया. वह कुछ सोच रही थी.
जानी की माँ छोटे से कमरे में जानी के साथ रहती थी. उसका पति दूसरे शहर में नौकरी करता था ओर कभी कभी ही यहाँ आया करता था. बीमारी में जानी की माँ की देखभाल करने वाला कोई नहीं था. लखमा जानी की माँ को देख कर समझ गई कि उसकी तबीयत जल्दी ठीक नहीं होगी. उसने कहा –‘’ जानी की माँ , तुम काम की चिंता मत करो. पर जानी को मत भेजा करो. अभी तो इसके पढने – खेलने के दिन हैं. ‘’ जानी की माँ रेशमा ने कोई जवाब नहीं दिया,
अगली सुबह लखमा ने देखा कि जानी फिर वहां खड़ा था. लखमा को देखकर वह दूर चला गया, शायद जानी लखमा से डर गया था. लखमा उस दुकान वाले के पास गई जहाँ जानी सफाई कर रहा था. उसने कहा-‘’ जानी की माँ तो बीमार है. शायद वह काफी समय तक काम करने नहीं आ सकेगी ‘’ दुकानवाले ने कहा – ‘’ तो तुम कर लो उसकी जगह . हमारी दो दुकानें और हैं.’’ लखमा खुश हो गई . उसे अच्छे पैसे मिलने की उम्मीद हो गई. डबल ड्यूटी में मेहनत  ज्यादा थी पर पगार भी तो दुगनी मिलने वाली थी. हाथों के साथ दिमाग भी भाग रहा था. वह सोच रही थी कि अतिरिक्त पैसों से क्या कुछ हो सकेगा. अब जानी दुकान पर नहीं आता था. बस एक चबूतरे पर बैठा लखमा को देखता रहता था. लखमा सोचती थी जानी यहाँ क्या कर रहा है. रेशमा के पास क्यों नहीं बना रहता. मन हुआ कि जानी से रेशमा का हाल पूछे पर चुप रह गई.
लखमा ने महीने के आखिरी सप्ताह में रेशमा के बदले काम किया था. दुकानवाले ने पैसे दिए तो बोली-‘’ रेशमा के पैसे भी दे दो , उसे जरुरत होगी.’’ दुकानवाले ने कहा-‘’ रेशमा के पैसे उसी को दूंगा.’’ सुन कर लखमा सोच में पड़ गई. वह रेशमा के बारे में सोच रही थी. एक तो काम नहीं ऊपर से बीमारी का खर्च. पिछले काम के पैसे भी नहीं मिल रहे हैं. बाज़ार में जानी दिखा तो पूछा-‘’ यहाँ क्या कर रहा है ? माँ के पास क्यों नहीं टिकता?’’
‘’ माँ ने काम खोजने को कहा है. ‘’ – जानी बोला.
‘’ तुझे कौन काम देगा भला. ‘’ लखमा ने व्यंग से कहा. ‘’ चल मैं तेरी माँ से बात करती हूँ.’’ और उसके साथ रेशमा से मिलने चल दी. लखमा ने देखा कि रेशमा की तबीयत पहले से   ज्यादा ख़राब है. साफ़ था कि उसे तुरंत काफी पैसे चाहिएं ताकि ठीक से दवा - दारु और देख   भाल हो सके. लखमा ने कहा-‘’ तुम जानी को पढने भेजो न कि काम की तलाश में. ‘’
में क्या करूँ समझ में नहीं आता,’’ रेशमा ने उदास स्वर में कहा.
सब ठीक हो जाएगा . लेकिन सबसे पहले तुम मेरे साथ चलो. ‘’- कह कर लखमा ने रेशमा को अपने सहारे से बैठा दिया . पास रखी शीशी से बालों में तेल लगा कर सँवारने लगी. बोली – ‘’ अब तुझे मेरे साथ चलना है. ‘’’फिर बता दिया कि दुकानदार उसी को पैसे देगा फिर हाथ पकड़ कर दुकानदार के पास ले गई. कहा-‘’ रेशमा खुद अपने पैसे लेने आ गई है.’’
दुकानदार ने पैसे देते हुए कहा-‘’ तुम तो ऐसे सिफारिश कर रही हो जैसे तुम दोनों आपस में बहनें हों. लेकिन तुम दोनों के धर्म तो अलग अलग हैं , फिर बहनें कैसे हो सकती हो.’’ लखमा से पहले रेशमा बोल उठी-‘’ बहन होने के लिए  धर्म एक होना जरुरी नहीं.’’ और मुस्करा दी. लखमा सोच रही थी कि कहीं दुकानदार काम के बारे में उसकी बात रेशमा को न बता दे. तब तो रेशमा उसे लालची समझ बैठेगी. पर वैसा कुछ न हुआ. लखमा रेशमा को उसके घर ले आई. रास्ते भर वह कुछ सोचती रही थी. और फिर उसने फैसला कर लिया. रेशमा ने उसे अपनी बहन कहकर उसके मन को छू लिया था. लखमा को   अपनी छोटी बहन याद आ गई जो गाँव में रहती थी. लखमा काफी समय से बहन से मिल नहीं पाई थी.
अगली सुबह काम पर जाने से पहले वह रेशमा के पास जा पहुंची. कहा-‘’ रेशमा-‘’ आराम कर, तेरा काम मैं संभाल लूंगी. पर एक शर्त है. आज के बाद जानी को काम पर मत भेजना . उसे पढना चाहिए. ‘’
‘’ कौन पढ़ाएगा जानी को?’’ रेशमा ने उदास स्वर में कहा.
‘’मैं इसे मास्टरजी के पास ले जाऊँगी जो मेरे बेटे को पढ़ाते हैं. ‘’ –लखमा ने कहा. उसने आगे बताया कि मास्टरजी बच्चों को पढ़ाने के पैसे नहीं लेते . किताबें और कॉपी पेंसिल भी अपनी जेब से देते हैं. वे उन बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं जो स्कूल नहीं जा पाते.
रेशमा को लखमा की बात माननी पड़ी. लखमा जानी को मास्टरजी के पास ले गई. और जब जानी पहले दिन मास्टरजी से पढ़ कर आया तो वह ख़ुशी से रो पड़ी. लखमा रेशमा के बदले काम करती रही.महीना पूरा हुआ तो लखमा ने रेशमा की दुकानों के पैसे लाकर रेशमा के हाथ में रख दिए. वह लेने को तैयार नहीं हुई. तब लखमा ने कहा-‘’ मान ले कल अगर मैं बीमार हो जाऊं तो क्या तू मेरी मदद नहीं करेगी?’’ इस बात ने रेशमा को चुप कर दिया. अब कहने को कुछ नहीं था, लखमा अपने घर की ओर चली तो मन पर बैठा बोझ उतर गया था.( समाप्त)