Monday 22 December 2014

बाल उपन्यास : एक छोटी बाँसुरी



एक छोटी बाँसुरी
देवेंद्र कुमार
हर दिन ऐसा ही होता था। अमर स्वयं से एक प्रष्न पूछता था, लेकिन उसे कोई उत्तर नहीं मिलता था।
    षाम को सूरज डूबने लगता तो अमर को जैसे कोई भूली हुई बात याद आ जाती। दिन भर वह चाहे कहीं भी रहता पर उस समय घर की छत पर अवष्य पहुंच जाता। अमर की माँ का नाम कुसुम था। माँ ने उसे कई बार चुपचाप सीढि़यों से ऊपर जाते हुए देखा था। वह हैरान हुई थी कि बेटा षाम के समय ऊपर छत पर अकेला क्या करने जाता है? जब कई दिनों तक बहुत सोचने पर भी कुछ न समझ सकी तो दबे पाँव ऊपर जाकर देखा कि अमर क्या कर रहा है?
    अमर छत की मुंडेर पर दोनों कुहनियाँ टिकाए आगे की तरफ झुका हुआ खड़ा था और उसकी आँखें सड़क पर जमी हुई थीं। वह न जाने क्या देखने में मगन था कि माँ के कदमों की आहट भी न सुन सका। वैसे अगर वह पीछे मुड़कर देखता भी तो माँ नजर न आती। क्योंकि वह सीढि़यांे पर दरवाजे की ओट में छिपी हुई, एकटक बेटे की ओर देख रही थी। वह बेटे को चैंकाना नहीं चाहती थी।
    सड़क पर अभी बत्तियाँ नहीं जली थीं, ऊपर पूरब में आकाष का रंग काला हो चला था। एक तारा झलकने लगा था। पष्चिम में गहरी लाली छा गई थी जो धीरे-धीरे कालेपन में बदलती जा रही थी।
    गउएँ बस्ती में लौट रही थीं। उनके गले में बँधी घंटियों की टिनटिन टिंडग टन-टन का मीठा संगीत हवा में निरन्तर गूँज रहा था। इधर-उधर पेड़ों पर पंछी उतरने लगे थे। पत्तों में सरसराहट थी, षोर था। दिन भर चुप रहने के बाद पेड़ जैसे जाग उठे थे और तरह-तरह की आवाजों में बोल रहे थे। सुबह से घोंसलों में माँ-बाप के लौटने की प्रतीक्षा करते नन्हे परिन्दे अपनी बात कहना चाहते थे-चूँ चूँ चिर्र चिर्र किर्र क्रेंक-कर्र गर्र की आवाजें सुनाई दे रही थीं।
    सड़क पर बैलगाडि़याँ थीं, सिर पर पोटलियाँ उठाए जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते लोग थे। दिन भर मेहनत करने के बाद अब हर कोई जल्दी से जल्दी घर पहुँचना चाहता था। 
    कुछ देर में सड़क पर भीड़ कम हो गई। पेड़ों पर मचता  षोर  थम  गया।  सारा  आकाष
काला हो उठा। यहाँ से वहाँ तक तारे बिखर गए। पर अमर अब भी उसी तरह खड़ा था। उसकी आँखें कुछ ढूँढ़ रही थीं। किसी की प्रतीक्षा थी उसे। रोज की तरह आज भी कोई उनके घर की तरफ आता नहीं दिखाई दिया था।
    हर दिन ही तो ऐसा होता था अमर किसी की प्रतीक्षा में छत पर जा खड़ा होता था। वहाँ से दूर-दूर तक देखा जा सकता था-सड़क से परे खेत और फिर पेड़, जो आगे जाकर घने वन का रूप ले लेते थे। सड़क उस वन से गुजर कर बहुत दूर, न जाने कहाँ तक जाती थी। इस बारे में अमर कुछ नहीं जानता था। पर कितनी ही बार उसका मन करता था कि उस सड़क पर दौड़ता जाए, दौड़ता जाए।
    आँखें ढूँढ़ ढूँढ़कर थक जाती थीं, पर वह कहीं नजर न आते थे। न जाने पिताजी कब आएँंगे? अमर हर दिन स्वयं से यह पूछता था। षाम को अँधेरा हो जाने के बाद उसका मन टूटने लगता था। क्योंकि एक उसका घर ही ऐसा था जहाँ कोई नहीं आता था। पिता के इन्तजार में एक दिन और बीत जाता था।
     अमर छत पर फैले अंधेरे में खोया पड़ा था। और सीढि़यों से माँ उसे देख रही थी। वह समझ चुकी थी कि अमर क्यों खड़ा है? किस की प्रतीक्षा है उसे। आखिर वही प्रष्न तो उसका भी था। बस एक फर्क था-अमर माँ से हर रोज पूछता था-“माँ, पिताजी कब आएँगे? और कुसुम आंसू रोकती हुई जवाब देती थी-“जल्दी ही आएंगे” मेरे बेटे। बहुत जल्दी आएँगे।” लेकिन कुसुम यह प्रष्न किसी से नहीं पूछ सकती थी। उसकी कोषिष रहती थी कि पिता की याद में अमर ज्यादा बेचैन न हो उठे।
    कुसुम किवाड़ के पीछे से छत की मुंडेर पर कुहनियाँ टिकाए खड़े अमर को देखती रही। फिर धीरे-धीरे बढ़कर उसके निकट जा खड़ी हुई। लेकिन अमर का ध्यान अब भी भंग नहीं हुआ। वह उसी तरह अपने में खोया खड़ा था। कुसुम ने हौले से बेटे के कन्धे पर अपनी हथेली टिका दी।
    अमर का बदन कुछ कंपकंपाया, वह घूमा और माँ से लिपटकर सिसकने लगा। बेटे की आँखों से बहते आँसू माँ का मन भिगोते रहे। उसकी अपनी आँखंे भी डबडबा आईं। पर कुसुम ने आँसुओं को बाहर न आने दिया। वह अमर के बाल सहलाती खड़ी रही। फिर झुककर बेटे का माथा चूम लिया। रुँधे गले से बोली-“रोता क्यों है पगले। मैंने कहा है न, तेरे पिताजी जल्दी ही वापस आएँगे। अभी थोड़ी देर पहले ही किसी ने उनके बारे में खबर दी थी। मैं तुझे बताना ही  भूल  गई।
अरे हाँ, बताती तो कैसे! तू तो बाहर से सीधा छत पर जो चला आया।”
    माँ की बात सुनकर अमर के आँसू एकाएक थम गए। मन में आषा की  एक लहर उठी जैसे
अँधेरे में रोषनी चमक उठे। पर फिर उदास हो उठा। इस तरह की बातें तो माँ पहले भी कई बार कह चुकी है, पर पिताजी आए कभी नहीं। न जाने कहाँ खो गए हैं। इतने दिन में उसे पता चल चुका था कि बहुत-सी बातें माँ उसका मन रखने को कहती है।
    दोनों कुछ देर छत पर खड़े रहे। हवा तेजी से बह रही थी। कुसुम ने प्यार से बेटे के बाल सहला दिए, उसे सहारा देती हुई सीढि़यों से उतरने लगी।
    अमर ने माँ के बहुत समझाने-बुझाने पर थोड़ा-सा भोजन किया, फिर चारपाई पर लेट गया। कुसुम ने रसोई का काम निबटाया। मन नहीं था, फिर भी थोड़ा-सा खाया और बेटे के पास बैठकर उसका सिर थपकने लगी, जिससे वह सो जाए। कुछ देर उनके छोटे से घर में सन्नाटा छाया रहा। कहीं दूर पेड़ पर परिन्दा दो बार विचित्र आवाज मंे बोल उठा। फिर खामोषी छा गई।
    कुसुम समझी अमर सो गया और उठने लगी, पर तभी अमर ने कहा-“माँ, बताओ न, किसने खबर दी है पिताजी के बारे में। कौन आया था? पिताजी कब आएँगे?”
    अमर की बात सुनकर कुसुम एकदम चैंक उठी। वह सोच न पाई कि क्या कहे। उसने तो अमर का ध्यान बंटाने के लिए ऐसे ही कह दिया था, ताकि बेटे की उदासी कुछ कम हो जाए। न कोई आया था, न किसी ने कुछ बताया था। पिछले आठ सालों से अमर के पिता नरेष का कुछ पता नहंी था। वे सेना में नौकरी करते थे।
    अमर के जन्म लेने से कुछ पहले की बात थी। देष की सीमाओं पर युद्ध छिड़ा हुआ था। नरेष युद्ध के मोर्चे पर गए थे। एक दिन षत्रु सेना से भयानक मुठभेड़ की खबर मिली थी। फिर पता चला कि वह लापता हो गए हैं। कोई नहीं जानता कि उन्हें क्या हुआ था।    
    अमर का जन्म हुआ था तो पति को याद करके कुसुम बहुत रोई थी। दुनिया में और कोई भी नहीं था उसका। पड़ोसी ही आकर हालचाल पूछ लेते थे, उसे धीरज बंधा जाते थे। दूर गाँव में कुसुम के बूढ़े पिता रहते थे। बहुत दिनों से कुसुम उनसे मिलने भी नहीं जा सकी थी। उनकी भी कुछ खबर नहीं थी।
    समय बीतता रहा-हर सुबह कुसुम को उम्मीद रहती थी कि अमर के पिता का कोई समाचार अवष्य मिलेगा, पर उसकी आषा कभी पूरी नहीं हुई। जब मन ज्यादा उदास होता तो वह अमर  को
गोदी में लेकर बैठ जाती। इस तरह उसे अपना दुख कुछ कम होता हुआ लगता था।
    धीरे-धीरे महीने और फिर वर्श बीतने लगे। अब अमर इतना बड़ा हो गया था कि उसे केवल लोरी सुनाकर नहीं सुलाया जा सकता था। कोई मिठाई उसके हर प्रष्न का उत्तर नहीं हो सकती थी। जब दूसरे बच्चों को अपने पिता की गोदी में हँसते-खिलखिलाते देखता तो उसकी उदास आँखें कुछ ढूँढ़ने लगतीं। मन में एक प्रष्न उभरता-“मैं अकेला क्यों हूँ”।
    इसी तरह आठ वर्श बीत गए थे। अमर के पिता का कुछ पता नहीं चला। अब कुसुम को अमर के एक प्रष्न का उत्तर बार-बार देना पड़ता था। हर रात को अमर माँ के पास लेटता तो घर का सूनापन उसे ज्यादा परेषान करता। वह माँ की छाती में मुँह छिपाकर एक ही प्रष्न पूछता-“पिताजी कब आएँगे माँ?”     
    कुसुम चुपचाप बेटे के माथे पर हाथ फिराती रहती। कुछ कहकर उसका मन बहला देती। पर वह जानती थी कि इस तरह अमर की बैचेनी बढ़ती जाएगी।
    एक रात कुसुम की नींद टूटी तो हड़बड़ा कर उठ बैठी। उसका मन घबरा उठा। देखा अमर चारपाई पर नहीं था। फिर खुले दरवाजे पर नजर जा टिकी। दौड़ती हुई बाहर आई। वह जोर-जोर से चिल्ला रही थी-“अमर बेटा! अमर!”
    कुछ देर बाद अमर की आवाज सुनाई दी-“मांँ, मैं यहां हूंँ।”
    कुसुम ने देखा, अमर अंधेरे में सड़क के किनारे खड़ा था। उसने दौड़कर बेटे को गोदी में भर लिया। रुँधे गले से बोली-“कहाँ जा रहा था, पगले? बोल। अपनी माँ को छोड़कर कहां जा रहा था?
    अमर माँ के साथ घर में चला गया। कुसुम ने सावधानी से घर का दरवाजा बन्द किया और बेटे का सिर गोदी में रखकर बैठ गई। एकाएक अमर बोला-“माँ, मैंने सपने में पिताजी की देखा था। वह आए और खिड़की से बाहर खड़े हो गए।”
    उस घबराहट में भी कुसुम के चेहरे पर मुसकान आ गई। “तुझे कैसे पता?”
    अमर एक पल को हड़बड़ा गया, फिर बोला-“इससे क्या! उन्होंने स्वयं कहा-अमर बेटा, मैं तुम्हारा पिता हूंँ।”
    “फिर क्या हुआ?” कुसुम ने पूछ लिया।
    “फिर.... फिर.... सपना टूट गया। आँख खुल गई।”
    “पर तू बाहर क्यों गया था इस समय।” कुसुम ने कुछ गुस्से से कहा।
    “ माँ, मुझे लगा था जैसे पिताजी ने पुकारा हो-“अमर बेटे, यहाँ आओ।” बस, मैं उठकर बाहर देखने गया था कि कौन है, तभी तुम आ गईं।”
    अमर की बात सुनकर कुसुम का मन किसी अनजानी आषंका से कांप उठा। कहीं ऐसा तो नहीं कि..... वह इससे आगे न सोच सकी, आँखें बन्द करके लेट गई।
    थोड़ी देर में कुसुम को नींद आ गई, पर अमर का मन बैचेन था। अब उसे माँ के कहने पर भरोसा नहीं होता था। उसे लगता था जैसे पिता नाराज होकर कहीं जा छिपे हैं। जब तक कोई बुलाकर नहीं लाएगा, वह आने वाले नहीं। लेकिन किससे पूछे? कौन बताएगा कि पिता कहां है?
    आज स्कूल में मास्टरजी ने एक कहानी सुनाई थी। कहानी एक बच्चे की थी, जो अपने खोए हुए भाई की खोज मंे जाता है और अन्त में भाई को ढूंढ़कर घर ले जाता है। बार-बार वही कहानी उसके मन मंे घूम रही थी। वह सोच रहा था-अगर मैं पिताजी की खोज में जाऊँ तो... लेकिन माँ नहीं जाने देगी।
    हर दिन बीतने के साथ अमर का यह विचार पक्का होता जा रहा था कि उसे भी पिता की खोज करनी चाहिए।
    वह एक ऐसी ही रात थी-अंधेरा और सन्नाटा। कुसुम पास वाली चारपाई पर नींद में बेसुध थी-पर अमर की आँखों से नींद बहुत दूर थी। वह सोच रहा था-उस लड़के की कहानी जो अपने खोए हुए भाई की खोज में निकलता है ओर उसे ढूंढ़कर ले आता है। यही सब सोचते-सोचते वह न जाने कब नींद में डूब गया।
    कुछ देर बाद कोई आवाज सुनकर अमर की नींद टूट गई। घर में अंधेरा था। पास की चारपाई पर माँ के खर्राटे लेने की धीमी आवाज आ रही थी। अमर कान लगाकर सुनता रहा। उसने सपने में देखा था-सैनिक की वर्दी मंे एक व्यक्ति घर की ओर बढ़ रहा है। वह आता है और खिड़की के पास खड़ा हो जाता है। बहुत कोषिष करके भी अमर उस व्यक्ति का चेहरा नहीं देख पाया। उसे आवाज सुनाई दी-“अमर बेटा।”   
    अमर हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ। एक बार सोती हुई माँ की ओर देखा, फिर धीरे से दरवाजा खोलकर बाहर निकल आया। सब तरफ अंधेरा था, सड़क पर दूर-दूर पीली बत्तियाँ चमक रही थीं। और कहीं कदमों की आहट उभर रही थी। धीरे-धीरे बढ़कर अमर सड़क  के  किनारे  जा
खड़ा हुआ। उसने देखा सड़क पर कुछ लोग चुपचाप चले जा रहे थे।
    अमर एकटक देखता रहा। वे लोग पंक्तिबद्ध होकर चले जा रहे थे। उन्होंने एक जैसे कपड़े पहने हुए थे। अमर सोचता रहा-“ये लोग कौन हैं, कहां जा रहे हैं?” और फिर एकाएक याद आ गया। वह जैसे अपने से बोला-“ये सैनिक हैं, सैनिक.... मेरे पिता की तरह।” घर में पिता के कई चित्र थे उस तरह की वर्दी मंे।
    लेकिन यह कैसे पता चले कि सैनिक कहां जा रहे हैं? किससे पूंछूं, कौन बताएगा? यह सोचते हुए अमर ने इधर-उधर देखा। थोड़ी दूर पर एक बूढ़ा खड़ा था। अमर बूढ़े के निकट गया। उससे बोला-“बाबा, ये लोग कहां जा रहे हैं?”   
    बूढ़े ने कुछ चैंककर अमर की ओर देखा, फिर बोला-“ये सैनिक हैं। मैं कई दिनों से सैनिकों को इस तरह रात में जाते हुए देख रहा हूंँ। लेकिन यह पता नहीं ये कहाँ जा रहे हैं?” फिर कुछ रुककर बोला-“बच्चे, तू यह सब क्यों पूछ रहा है? जा, घर में जा। देखता नहीं आधी रात हो रही है। नहीं, तो अभी तेरे पिता ढूंढ़ते हुए आएँंगे।”
    अब अमर अपने पर काबू न रख सका। उसने कहा-“बाबा, मेरे पिता भी सेना में हैं। पर वह बहुत दिनों से घर नहीं आए। क्या ये लोग जानते होंगे उनके बारे में?”
    बूढ़ा कुछ पल सड़क पर जाते हुए सैनिकों को देखता रहा। फिर धीरे से बोला-“क्या पता षायद जानते हों। तुम चाहो तो पूछकर देख लो किसी से।”
    अमर की निगाहें सड़क पर जाते सैनिकों पर गड़ गईं। वह सोच रहा था-षायद ये लोग वहीं जा रहे हों, जहां मेरे पिता हैं। लेकिन किससे पूछूं, कौन बताएगा? इसी ऊहापोह में डूबा अमर सड़क के किनारे खड़ा सामने से गुुजरते सैनिकों को देखता रहा। सैनिक चुपचाप चले जा रहे थे-उस सड़क पर जो जंगल की ओर जाती थी।
    एकाएक एक सैनिक ने हंसकर अमर की ओर देखा और फिर आगे बढ़ गया। बदले में अमर भी मुसकरा दिया। अमर को लगा कि षायद इस आदमी से अपनी बात कही जा सकती है। पिताजी के बारे में पूछा जा सकता है। लेकिन जब तक पूरी बात सोच पाता, वह सैनिक दूसरों के साथ आगे चला गया था। अमर भी साथ-साथ बढ़ चला। उसकी आँखें उस सैनिक को खोज रही थीं जो उसे देखकर हंसा था। कौन था वह? अभी-अभी तो दिखाई दिया था! इतनी ही देर में न जाने कहां खो गया था। अमर की आँखें उसकी खोज में इधर से उधर दौड़ती रहीं। अनजाने ही उसके पैर सैनिकों के साथ-साथ आगे बढ़ने लगे थे-उसी सड़क पर जो जंगल, पहाड़ पर करके  न जाने कहां तक जाती थी।
     थोड़ी देर बाद अमर ने अपने को सैनिकों की टुकड़ी के बीच उनके साथ-साथ चलते हुए पाया। उसके कदम साथ-साथ उठ रहे थे। दिमाग में बस एक ही बात थी-ये सब लोग षायद वहीं जा रहे हैं, जहां उसके पिता हैं। हो सकता है, इस तरह इनके साथ वह अपने पिता के पास पहुंच जाए।
    चलते-चलते अमर के पैर थक गए। आँखंे थकान और नींद से बोझिल होने लगीं। उसे चला नहीं जा रहा था। अनजाने ही वह घर से काफी दूर चला आया था। उसकी माँ को कुछ पता नहीं था। वह घर में सो रही थी।
    आखिर न चला गया तो अमर सड़क के किनारे बैठ गया। चारों ओर घना अंधेरा था-बस्ती की रोषनियां कहीं बहुत पीछे छूट चुकी थीं। उसकी आंखंे मुंदने लगीं। अमर को नींद आ रही थी। थोड़ी देर बाद वह सुनसान सड़क के किनारे, ऊबड़-खाबड़ जमीन पर नींद में बेसुध पड़ा था। अब दूर-दूर तक कहीं कोई नहीं था। सैनिकों की टुकडि़याँ दूर जा चुकी थीं। अमर खोए हुए पिता जी की खोज में घर से निकल आया था। परिन्दे पेड़ों में सो रहे थे लेकिन अमर.....
   
   

2.    बाँसुरी बाबा

आकाष की कालिमा फीकी पड़ कई थी। तारे चमक खो चुके थे। जंगल धीरे-धीरे जाग उठा था। पहले एक पंछी बोला था। थोड़ी देर बाद किसी दूसरे परिन्दे ने उसकी पुकार का जवाब दिया, फिर सब घोंसलों में जगाहट हो गई। जंगल में तरह-तरह की आवाजें गूूंजने लगीं, फिर अमर की नींद खुल गई।
    खुली नहीं, नींद इस तरह टूटी जैसे कोई षीषे पर ढेला मारकर उसे तोड़ दे। अमर उछलकर उठा और फटी-फटी आँखों से इधर-उधर देखने लगा-दोनेां और ऊँचे तथा घने पेड़। पेड़ों के नीचे बिछी लम्बी काली सड़क, जो इस समय एकदम सुनसान थी। अमर का दिल जोर से धड़क उठा। ‘यह कहां आ गया मैं।’ और फिर धीरे-धीरे सारी बातें याद आ गईं। रात में घर से बाहर सैनिकों को जाते हुए देखना, बूढ़े से बातचीत और फिर.... फिर.... एक सैनिक के पीछे चल पड़ना, जो उसे देखकर मुसकराया था। फिर न जाने कब नींद आ गई थी। यह कैसे हो गया था! अमर की समझ में नहीं आ रहा था कि वह माँ को बिना बताए इस तरह घर से कैसे चला आया था।
    उसे एकाएक माँ की याद आई थी। घबराहट भरी नजरों से कभी इधर तो कभी उधर देखने लगा। सब तरफ ऊँचे घने पेड़, झाड़-झंखाड़, पशु-पक्षियों की आवाजें। कुछ भी तो नहीं था जिससे अमर को तसल्ली मिलती। सब एकदम अनजान, अपरिचित। वह पिता को खोज नहीं सका था और माँ से भी दूर चला आया था।
    “मां! माँ!” अमर ने जोर से पुकारा और रो पड़ा। वह जानता था कि माँ कितना परेषान हो रही होगी। रात में नींद खुलने पर जब माँ ने उसे चारपाई पर न देखा होगा तो क्या हालत हुई होगी। यही सोच-सोचकर बुरी तरह घबरा गया था अमर। इस समय जल्दी से जल्दी वापस घर पहुँचना चाहता था-लेकिन कैसे जाए? जहां तक नजर जाती, हरियाली का विस्तार था। आकाष में परिन्दों का षोर था, घास पर उड़ते हुए कीट-पतंगे थे।
    अमर सड़क के बीचों बीच खड़ा सोच रहा था कि क्या करे, तभी कानों में एक सुर आया-बाँसुरी की मीठी आवाज... वह अचकचा कर आवाज की दिषा में देखने लगा। आवाज जंगल मंे बाईं ओर से आ रही थी। थोड़ी देर में अमर को एक बूढ़ा नजर आया।
    वह बाँसुरी बजाता हुआ धीरे-धीरे अमर की ओर चला आ रहा था। बीच-बीच में बाँसुरी बजाना बन्द करके गोल-गोल घूमने लगता था। उसने एकदम काले कपड़े पहन रखे थे-चेहरे पर दाढ़ी थी। इस तरह बाँसुरी बजाता हुआ वह बूढ़ा उस जगह आ पहुंँचा जहां अमर खड़ा था।
    अमर से आँखें मिलते ही बूढ़ा जोर से हंसा फिर उसके चारों ओर नाच-नाच कर बाँसुरी बजाने लगा। न जाने क्यों अमर कुछ डर गया। उसके होठों से निकला-“माँ! माँ!
    अमर की आवाज सुन बूढे़ ने बाँसुरी होंठों से हटा ली। अमर के पास ही जमीन पर बैठ गया और झोले में से एक कटोरा निकालकर उसके सामने हिलाने लगा। उसके होठों से आवाज निकली-“ला.... डाल दे इसमें....”   
    “मेरे पास कुछ नहीं है बाबा। मुझे भूख लगी है।” अमर ने सहमे स्वर में कहा।
    “क्या कहा! तेरे पास कुछ नहीं है और तुझे भूख भी लगी है। अरे, मैं पूछता हूं तू है कौन! और यहां क्या कर रहा है। क्या तेरे साथ कोई नहीं है?” बूढ़े ने पूछा और अमर को अपनी बड़ी-बड़ी, लाल आँखों से घूरने लगा।
    “बाबा, मेरे साथ कोई नहीं है। मैं रात को घर से आया था। पिताजी को ढूँढ़ने निकला था। पर रास्ता भूल गया। चलते-चलते थक गया फिर नींद आ गई। पता नहीं यह कौन-सी जगह है।” घबराए स्वर मंे अपनी बात कह गया अमर।
    बूढ़ा ध्यान से उसकी बात सुन रहा था, बीच-बीच में हूंँ हूँ करता जाता। “कहां रहता है तू?”
    “बूंदपुर में घर है हमारा।”
    “बूंदपुर.....”बूढ़े ने कहा और आँखों में अचरज भरकर उसकी ओर देखा। “यह जगह तो बहुत दूर है। रात में ही इतनी दूर आ गया तू! कमाल है।” फिर कुछ देर चुप रहकर बोला-“तू अपने पिता से मिला चाहता है न?”   
    “हाँ, बाबा।”
    “तेरे पिता को मैं जानता हूँ। तूने उनका नाम लिया है और मैं समझ गया। मैं भी सेना में रहा हूँ। हम दोनों साथ-साथ थे.... तेरी सूरत एकदम अपने पिता से मिलती है।”   
    “बाबा, मुझे उनसे मिला दीजिए.... मुझे बताइए वह कहां हैं? मैं तो कब से मिलना चाहता हूं उनसे। बताइए न।” कहते-कहते अमर के होंठ कांपने लगे, आँखों में आँसू झलक आए।
    अमर को रोते हुए देख बूढ़ा जोर से हंस पड़ा। बाँसुरी उठाई और बजाने लगा। फिर बोला....
“घबरा मत... मैं ले चलूंगा, पर तुझे मेरा कहना मानना पड़ेगा। मैं ठहरा बूढ़ा आदमी... धीरे-धीरे चलूंगा। जल्दी मत करना।”   
    “नहीं, जैसे आप कहेंगे, करूँगा, पर मुझे पिताजी से मिला दीजिए...”   
    “जरूर मिला दूँगा... जल्दी ही मिला दूंगा...”
    अमर के आँसू थम गए। मन में उम्मीद जाग गई कि अब वह अपने पिता से मिल सकेगा। उन्हें माँ के पास ले जा सकेगा। अहा! पिताजी को देखकर माँ कितनी खुष होंगी। पिता से मिलते ही वह एक बात जरूर पूछेगा-इतने दिन से कहां छिपे बैठे थे। घर क्यों नहीं आए थे? क्या वह माँ से नाराज थे। लेकिन क्यों? इसी तरह के विचारों में खोया हुआ अमर सड़क के बीचोंबीच खड़ा रह गया। उसके होंठों पर हल्की सी हँसी थी और आँखों में एक चमक। उसे लग रहा था, बस अब वह पिता के पास पहँुचने वाला है। जब वह पिता को लेकर घर पहुँचेगा तो माँ उसे गोद में भर लेगी और....और....
    एकाएक उसके विचारों के दौड़ते घोड़े थम गए। बूढ़े ने उसका हाथ पकड़कर कहा-“आ चलें।”
    “कहां, पिताजी के पास....”अमर ने चैंककर कहा।
    “हाँ, उनके पास ले चलँूंगा पर जहाँ तेरे पिता हैं, वह जगह यहां से बहुत दूर है। हमें वहां पहुँचने में थोड़ा समय लगेगा। अब भी सोच ले, नहीं तो अपने घर चला जा माँ के पास।” कहकर अमर को घूरा।
    “नहीं, बाबा, मैं तो पिताजी के पास जाऊंगा”-अमर ने दृढ़ स्वर में कहा। माँ का चेहरा एक बार आँखों में कौंधकर खो गया। फिर कानों मे आवाज आई-“बेटा अमर, मेरे पास चले आओ, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूंँ। अमर ने सड़क की ओर देखा जो जंगल में बहुत दूर न जाने कहां चली गई थी। हांँ, इसी सड़क पर चलकर वह अपने पिता के पास पहँुचेगा।   
    “चल।” कहकर बूढ़े ने अमर का हाथ पकड़ लिया, फिर उसी तरफ बढ़ चला जिधर से आया था-जंगल में पेड़ों के बीच से होते हुए दोनों बढ़ चले। बूढ़े ने एक हाथ से अमर की नन्ही कलाई  थाम रखी थी, दूसरे में पकड़ी बाँसुरी को होंठों पर सटाकर एक विचित्र धुन निकाल रहा था। दूर पेड़ों के पीछे धुआं उठता दिखाई दे रहा था।
    ऊबड़-खाबड़ पगडंडी ने अमर को थका दिया। बदन पर खरोंचें लग गईं, क्योंकि वे  जंगल
में से बढ़ रहे थे। पेड़ों के आगे षोर सुनाई दे रहा था। अमर बूढ़े के साथ एक खुली जगह में आ पहुँचा। थोड़ी दूर पर लाल खपरैल वाले कई मकान थे। उन्हीं मकानों से उठता धुआं देखा था अमर ने। दूर से पता नहीं चलता था कि उस घने वन में कोई बस्ती भी हो सकती है।
    एक तरफ घना वट वृक्ष था। उसकी डालों से लम्बी, पतली षाखाएँ लटकी हुई थीं-कुछ तो जमीन में भी समा गई थीं।
    चारों ओर तेज धूप फैल गई थी, पर वृक्ष के नीचे घनी छाया थी। बूढ़ा अमर को लेकर छाया में चला गया। पेड़ की जड़ को घेरकर एक टूटा-फूटा चबूतरा बना हुआ था। बूढ़े ने अपनी पोटली चबूतरे पर रख दी। धूप की तेजी से अमर की आँखें चैंधिया रही थीं। उसे जोरों की भूख लगी थी। रात को भी उसने जरा-सा खाया था। और उसके बाद से रात में और आज सुबह से लगातार चलता जा रहा था।
    तब तक कुछ बच्चे उनके सामने आ गए थे और षोर मचा रहे थे। एक झोंपड़ी के बाहर एक बूढ़ी औरत ऊखल में कुछ कूट रही थी। झोंपडि़यों के पीछे दूर खेतों में दो व्यक्ति हल चलाने में लगे थे। बूढ़ा बाँसुरी वाला आँखंे बन्द करके पेड़ के तने से टिक गया। अमर को लगा जैसे वह सो गया हो। अमर ने बूढ़े की ओर देखा-उसक दाढ़ी वाला चेहरा काफी डरावना लगा। तभी बूढ़े ने आँखंे खोलकर अमर को घूरा, फिर कहा-“क्यों थक गया? लेकिन थकने से कैसे चलेगा। मैंने भी कल से कुछ नहीं खाया है। पहले हमें अपने लिए भोजन जुटाना चाहिए। क्यों। भूख तो तुझे भी लगी होगी।” जवाब में अमर ने सिर हिला दिया। सचमुच उसे बहुत भूख लगी थी।
    बूढ़ा सीधा बैठ गया। उसने झोले से बाँसुरी निकाली और होंठांे से लगाकर बजाने लगा। एक मीठी धुन हवा में तैरने लगी। बाँसुरी की आवाज सुन चबूतरे से थोड़ी दूर खड़े बच्चे उछलने लगे। ऊखल में कुछ कूटती बुढि़या ने काम रोक दिया और आँचल से हाथ पोंछती हुई वट वृक्ष के निकट चली आई। फिर तो धीरे-धीरे सभी झोंपडि़यों से औरतें, बच्चे बाहर निकल आए और वट वृक्ष से थोड़ी दूर घेरा-सा बनाकर खड़े हो गए। बूढ़ा आँखें बन्द किए बाँसुरी बजाता रहा, फिर गोल-गोल घूमने लगा, उसी तरह जैसे सुबह अमर ने देखा था उसे। बूढ़ा कुछ देर बाँसुरी बजाता, फिर सामने खड़ी औरतों, बच्चों की भीड़ के बीच जाकर नाचने लगता। काफी देर तब बारी-बारी से इसी तरह करने के बाद बूढ़े ने बाँसुरी बजाना बन्द कर दिया और अपने झोले से निकालकर एक कटोरा अमर को थमा दिया। बोला-“जा, इन लोगों के पास जा।”
    अमर हाथ में कटोरा लिए खड़ा रह गया। समझ न सका कि बूढ़ा क्या कह रहा है। उसे चुप खड़ा देख बूढ़े ने आगे की तरफ धक्का-सा दिया। बोला-“जाता क्यों नहीं, क्यों खाना नहीं खाना है?”
    “खाना तो है।” अमर ने धीरे से कहा।
“तो फिर जाता क्यों नहीं। जाकर कटोरा सबके सामने कर दे। बिना मांगे गाँववाले कुछ देने वाले नहीं.... जो मिल जाए ले आ, फिर आगे चलना है। आखिर सारा दिन तो यहाँ बैठे नहीं रह सकते।” बूढ़े ने रूखी आवाज में कहा।
अब अमर की समझ में सारी बात आ गई। बूढ़ा चाहता था कि अमर कटोरा लेकर सबके सामने जाए और.... इससे आगे सोचकर ही उसका मन लज्जित हो उठा। तो बूढ़ा बाँसुरी बजाकर भीख मांगता था और इस तरह अपना पेट भरता था। वह अमर से भी यही करने को कह रहा था। अमर कटोरा हाथ में लिए खड़ा रहा। तभी बूढ़े ने पीछे से पुकारा-“ऐ लड़के..... सो गया क्या।”   
    अमर जैसे नींद से जागा और कटोरा लेकर वहां खड़ी औरतों, बच्चों के सामने घूम गया। उसकी आँखें जमीन में गड़ी हई थीं। वह महसूस कर रहा था कि कटोरे में कुछ डाला जा रहा है। भीड़ के सामने से होता हुआ वह बूढ़े की तरफ आने लगा तो देखा, कटोरे में कुछ सिक्के और दो केले पड़े थे।
    अमर ने कटोरा पेड़ के नीचे चबूतरे पर रख दिया और सिर झुकाकर बैठ गया। उसकी भूख जैसे एकदम गायब हो गई थाी।
    बूढ़े ने एक केला उठाया और खाने लगा। दूसरा केला कटोरे में पड़ा रहा। एक केला उठाने के साथ-साथ बूढ़े ने सिक्के भी जेब में डाल लिए थे। कटोरे में पड़ा एक केला अमर के पेट में भूख बढ़ा रहा था, फिर भी उसने केला उठाया नहीं। उसे लग रहा था, यह भीख है। इसे नहीं खाना चाहिए। उधर भूख भी जोर से लग रही थी।
    तभी पत्तों में खड़खड़ हुई। एक बन्दर फुर्ती से नीचे उतरा और कटोरे में रखा केला उठाकर पेड़ पर जा चढ़ा। बूढ़े ने गुस्से में अमर का कन्धा झिंझोड़ दिया-“यह क्या कमबख्त। न खुद खाया, न मुझे खाने दिया।” बूढ़े ने अमर का कन्धा इतनी जोर से पकड़ा था कि दर्द करने लगा। उसने आँसू भरी आँखांे से ऊपर ताका-बन्दर एक डाल पर बैठा मजे से केला खा रहा था-उसने केला खाकर जो छिलका फेंका तो ठीक कटोरे में आ गिरा। यह देख, अमर के उदास होंठों पर हँसी आ गई, बूढ़ा भी जोर से हँस पड़ा। फिर बोला-“इस एक केले से तो कुछ भी नहीं हुआ। केसे हैं ये गाँववाले।”
    एक आवाज आई, “नहीं, बाँसुरी बाबा, गाँववाले वैसे नहीं हैं जैसा तुम समझ रहे हो। तुम तो हमारे बरान गाँव में पहले भी आ चुके हो।”
    “ बाँसुरी बाबा” नाम सुनकर अमर ने नजरें उठाईं-सामने एक बुढि़या हाथ में थाली लिए खड़ी थी। उसके होेंठों पर हँसी थी। वह एकटक अमर को देख रही थी।
    बुढि़या ने हाथ की थाली चबूतरे पर रख दी। उसमें चार केले, रोटियां, सब्जी थी। उसने बूढ़े से कहा-“बाँसुरी बाबा, मैं तुम्हें अच्छी तरह जानती हूंँ। लो खाओ, इस बच्चे को भी खिलाओ।”        बूढ़े ने खाना षुरू कर दिया, पर अमर अब भी चुप था। पता नहीं मन कैसा हो रहा था। जोरों से भूख लगी थी, पर मन नहीं था। बुढि़या कुछ पल अमर को देखती रही, फिर उसका हाथ पकड़कर बोली-“बाँसुरी बाबा, मैं इस बच्चे को अपने साथ ले जाती हूंँ। यह वहीं खा लेगा। तब तक तुम खा लो।”   
    बूढ़े ने उस औरत को घूरा फिर जोर से सिर हिलाकर बोला-“ऊँ हँू। यह कहीं नहीं जाएगा। तुम्हें जो खिलाना हो, यहीं ले आओ। हम ज्यादा देर नहीं रुक सकते।” कहकर उसने अमर का हाथ पकड़ा और खींचकर अपने पास बैठा लिया।
    उस औरत की आँखों मंे आष्चर्य का भाव भर गया। वह कुछ पल चुपचाप खड़ी रही, फिर धीरे-धीरे वहाँ से चली गई।
    बूढ़े ने आँखंे सिकोड़कर कहा-“देखो लड़के, इस तरह हर किसी के साथ जाना ठीक नहीं होता। ये लोग ऐसे ही हैं। न किसी के साथ जाना, न किसी से अपनी कहना। नहीं तो तुम अपने पिता के पास नहीं पहँुच सकोगे।”   
    अमर को झटका-सा लगा। लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। उसे बाँसुरी बाबा पर गुस्सा आ रहा था, जो सारा खाना खुद खा गया था।
    तभी वह औरत दूसरी थाली में अमर के लिए भोजन ले आई। मीठे स्वर में बोली-“आओ बेटा, खा लो।”
    न जाने क्यों उसकी आवाज में अमर को माँ के स्वर की झलक मिली। माँ भी  तो  बिल्कुल
इसी तरह पुकारती है। किसी तरह अपने मन के भावों को रोककर वह भोजन करने लगा। आँखों के
सामने माँ का चेहरा उभर आया। पता नहीं, माँ ने अब तक भोजन किया होगा या नहीं।
    “बाँसुरी बाबा, यह बच्चा कौन है? इससे पहले तुम हमेषा अकेले ही आए हो। इसे कहाँ ले जा रहे हो?” औरत ने पूछा।
    “मैं ले जा रहा हूंँ या इसने मुझे बाँध लिया है।” बूढ़े ने जैसे गुर्राकर कहा। फिर बताने लगा-“यह बच्चा आज मुझे सडक पर अकेला खड़ा मिला था। अपने पिता की तलाष में घर से निकल आया है। मुझे इस पर तरस आ गया। मैं इसे पिता के पास ले जा रहा हूंँ।”   
    अमर ने कुछ कहना चाहा पर जैसे गला रुंध गया था।
    अमर ने खाना खत्म किया तो औरत बरतन लेकर चली गई। बाँसुरी बाबा खाने के बाद पेड़ के नीचे चबूतरे पर लेटकर खर्राटे भरने लगा था। उसकी दाढ़ी विचित्र ढंग से फड़फड़ा रही थी। अमर बेहद थका हुआ था, पर उसे नींद नहीं आ रही थी।         
    पेड़ पर परिन्दे षोर कर रहे थे। थोड़ी दूर पर बच्चे उछल-कूद मचा रहे थे। अमर पेड़ की छाया के नीचे से खुले में निकल आया। पेड़ के नीचे उसे कुछ घबराहट-सी महसूस हो रही थी। तभी उसने देखा-वही औरत इषारे से अपनी तरफ बुला रही थी। अमर कुछ झिझकता हुआ-सा उसके पास चला गया।
    औरत ने उसका हाथ पकड़कर धीरे से कहा-“बेटा, जो बाँसुरी बाबा ने कहा, क्या वह सच है?”
    “हाँ!” अमर ने कह दिया।
    “क्या तू जानता है तेरे पिता कहाँ हैं?”
    “नहीं तो, मैंने उन्हें देखा ही नहीं है। बाँसुरी बाबा मुझे वहां तक पहँुचा देगा।” और फिर अमर धीरे-धीरे उसे सारी बात बता गया।
    “बेटा, इस तरह माँ से बिना कहे घर छोड़ना ठीक नहीं। मेरी मान तो तू अपने घर लौट जा। तेरी माँ बहुत परेषान हो रही होगी।”
    “और पिताजी, उन्हें कौन लाएगा? मुझे पता है, वह अपने-आप कभी नहीं आएंगे? मैं उन्हें साथ लेकर माँ के पास जाऊँगा।” अमर ने एकदम कहा।
    “ईष्वर करे तेरी इच्छा पूरी हो। तेरे पिता तुझे मिल जाएँ। लेकिन..... उस औरत ने बीच में ही बात रोक दी, फिर बोली-“बेटा, मेरे पास इस समय दो रुपए हैं। तू रख ले। कभी काम आएँगे।” और दो का नोट अमर की जेब में डाल दिया। अमर मना करता रह गया। फिर फुसफुसाई-“अब तू बाँसुरी बाबा के पास चला जा। तुझे नहीं देखेगा तो नाराज होगा।”
    अमर थके कदमों से लौट आया। बाँसुरी बाबा अभी तक सो रहा था। अमर पेड़ के नीचे जा बैठा।
    दोपहर ढल चुकी थी। थोड़ी देर बाद तेज हवा बहने लगी, वट वृक्ष के पत्तों में अटककर षोर करने लगीं। पत्तों की खड-खड़ के बीच परिन्दों की आवाजें भी गूंज उठती थीं। अब मैदान में कोई नहीं था। सब लोग झोपडि़यों में जा चुके थे। अमर और बाँसुरी बाबा पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठे रहे। समय बीतता रहा। पष्चिम में सूरज पेड़ों के पीछे चला गया था। पेड़ के नीचे चबूतरे पर धुँधलका-सा छा गया था। सामने मैदान के छोर पर बनी झोंपडि़यों में काम करने की आवाजें आ रही थीं, कहीं-कहीं दीपक जल उठे थे।
    अमर का मन बैचेन हो उठा। वह कहाँ चला आया है। अब कहाँ जाना है। यह बाँसुरी बाबा क्या सचमुच मुझे पिताजी के पास ले जाएगा? इस समय भला माँ क्या कर रही होगी-यही बातें अमर के मन में आ-जा रही थीं। “बाबा।” एकाएक अमर बोल उठा।
    “हूंँ।” बूढ़े ने कहा, फिर बाँसुरी बजाने लगा। कुछ देर बजाने के बाद रुककर बोला-“गाँववाले षायद हमंे भूल ही गये। अब यहाँ से चल देना चाहिए।”
    “कहाँ बाबा?”   
    “कहीं भी.... लेकिन रात में भी तो भूख लगेगी.... अब इस गाँव में बाँसुरी बजाकर कुछ मिलनेवाला नहीं....”
    तभी सामने से लालटेन की हिलती-डुलती रोषनी उस तरफ आती दिखाई दी। अमर ध्यान से देखने लगा। इस समय कौन आ रहा था भला? पास आने पर पता चला कि वही औरत है जो दिन में खाना लेकर आई थी। उसके साथ एक बच्चा भी था। उसके हाथ में एक थाली थी।      
    “बाँसुरी बाबा, इस पेड़ के नीचे रात बिताना ठीक नहीं। यहाँ साँप निकलते हैं। अभी कुछ दिन हुए एक आदमी को साँप ने काट लिया था।”   
    साँप का नाम सुनते ही अमर का बदन सिहर उठा। इधर-उधर झाडि़यों में लगातार चिट्-चिट् घूँ-घूँ की आवाजें हो रही थीं। पता नहीं कौन-सा जानवर था।
    बाँसुरी बाबा उठा तो अमर भी उठ खड़ा हुआ। ऊपर आकाष में असंख्य तारे  नजर  आ रहे
थे। कुछ चमकीले, कुछ मद्धिम। अंधेरे में षायद कोई चमगादड़ उड़ता हुआ निकल गया।
    “बाबा, यहां से थोड़ी दूर पर एक पुराना मन्दिर है। चाहो तो वहां रात बिता लो। सुबह चले जाना।” औरत ने कहा।
    “रात को मुझे कम दिखता है।” बूढ़ा धीमे स्वर में बोला। अमर ने उसकी कलाई थाम ली। औरत आगे-आगे लालटेन दिखाती चली। बच्चा साथ था। वह चुपचाप चल रहा था। ऊबड़-खाबड़ रास्ता पार करके वे लोग एक खंडहर मन्दिर के पास पहँुचे। मन्दिर एक टीले पर बना हुआ था। सब तरफ पत्थर बिखरे थे इधर-उधर घनी झाडि़याँ थीं।
    “यह बहुत पुराना मन्दिर है।” उस औरत ने कहा-“कई सौ साल पुराना। गाँव से दूर होने के कारण यहाँ कोई-कोई आता है। कुछ दिन हुए गाँव में ही एक नया मन्दिर बन गया है। सब वहीं जाते हैं। एक पुजारी भी रहता है वहांँ।”
    “हूँ।” बाँसुरी बाबा के मुँह से विचित्र-सी आवाज निकली।
    बच्चे ने थाली लालटेन के पास रख दी और अमर की ओर देखने लगा। अमर उसे देखकर जरा मुसकराया तो बच्चा भी हँस पड़ा, लेकिन बोला अब भी नहीं।
    “यह मेरा पोता है। बोल नहीं सकता। इसका नाम रोहू है। पिछले साल बुखार आया था, तब से आवाज को न जाने क्या हो गया।” औरत कह रही थी। बाँसुरी बाबा ने खाना षुरु कर दिया था। अमर ने भी एक रोटी उठा ली और खाने लगा। रोहू बड़े ध्यान से अमर की ओर देख रहा था।
    दोनों ने खाना खत्म किया तो बच्चे ने थाली उठा ली और औरत ने लालटेन। कुछ पल सोचती रही।-“अंधेरा  है इसलिए लालटेन ले जानी पड़ेगी।” उसने कहा-“नहीं तो छोड़ जाती।”
    अमर ने देखा मन्दिर के अन्दर जलता दीपक बुझने-बुझने को हो रहा था। अंधेरे में उस सुनसान जंगली स्थान पर रात बिताने की कल्पना से मन-ही-मन डर गया अमर, लेकिन और किया भी क्या जा सकता था। एक बार मन में आया-‘यह औरत हमें अपनी झोंपड़ी में भी तो सोने को कह सकती थी।’
    चलते-चलते औरत अमर के पास रुकी, उसके सिर पर हाथ फिराया, फिर टीले के ढालवाँ रास्ते पर उतर गई। अमर खड़ा-खड़ा देखता रहा। झाडि़यों के बीच लालटेन की रोषनी हिलती-डुलती हुई दूर जा रही थी। मन्दिर वाले टीले पर से दूर-दूर तक दिखाई दे रहा था। सब तरफ गहरा अंधेरा और बीच मैदान में लालटेन की रोषनी। जैसे अंधेरी  नदी  की  लहरों  पर  एक
दीपक तैर रहा हो।
    तभी बाँसुरी बाबा की आवाज सुनाई पड़ी-“ऐ लड़के, कहाँ भाग गया। चल इधर।”
    अमर पीछे चला आया। उसने देखा बाँसुरी बाबा मन्दिर के बरामदे में अपनी पोटली का सिरहाना लगाए लेटा था। अमर पास ही बैठ गया। उसक सिर जैसे घूम रहा था। सोच रहा था-“बाबा मुझे पिताजी के पास कब ले जाएंगे।“ तभी वातावरण में एक चीख गँूज उठी। “बच्चे की आवाज।” कहता  हुआ बूढ़ा झटके से उठा और गाँव की ओर देखने लगा।
   

3.    रोहू का क्या होगा

अमर भी उठा। उसने देखा-मन्दिर से थोड़ी दूर लालटेन के प्रकाष में जैसे कुछ हिल रहा है।
    “मैं  देखता हूंँ, क्या गड़बड़ है।” कहकर बूढ़ा आगे की तरफ दौड़ पड़ा। अमर भी साथ-साथ भागने लगा। तलवों में कंकड़ और बदन पर झाडि़यों के काँटे चुभ रहे थे, पर दोनों दौड़ते रहे।
    थोड़ा आगे झाडि़यों के बीच रोहू जमीन पर पड़ा दिखाई दिया। उसके मुँह से अजीब-सी आवाज निकल रही थी। उसकी दादी पास में ही खड़ी थी।    
    इन दोनों को देखते ही वह चीखकर बोली-“इसे साँप ने काट लिया बाँसुरी बाबा! अब क्या होगा? अब क्या होगा मेरे रोहू का?”
    बाँसुरी बाबा झुककर बैठ गया। रोहू के टखने के पास खून निकल रहा था। बाबा ने अपने लबादे से घाव के आस-पास की जगह साफ की, फिर झुककर होंठों से उस जगह को चूसने लगा।
    अमर भी झुककर पास में बैठ गया। लालटेन की पीली रोषनी में रोहू के पैर से मुँह लगाकर चूसता हुआ बाँसुरी बाबा विचित्र लगा अमर को।
    कुछ देर बाद बाँसुरी बाबा ने मँुह परे करके थूक दिया, फिर से घाव पर मुँह लगाकर चूसने लगा। वह क्रिया कई बार दोहराई उसने। रोहू की दादी किसी मूर्ति की तरह पास खड़ी थी। उसके हाथ की लालटेन रह-रहकर हिल उठती थी। लगता था कि उसका बदन काँप रहा है। 
    बीच-बीच में बाँसुरी बाबा रोहू के चेहरे की ओर भी देख लेता था। रोहू की आँखें बन्द थीं। उसके होंठ हिल रहे थे, पर कोई आवाज बाहर नहीं आ रही थी।
    तभी बाँसुरी बाबा ने रोहू को गोदी में उठा लिया और बोला-“इसे घर ले चलो। मुझे लगता है, इसे इलाज के लिए षहर ले जाना पड़ेगा।” आगे-आगे रोहू की दादी लालटेन की रोषनी दिखाती हुई चल रही थी। पीछे बाँसुरी बाबा था रोहू को गोद में उठाए हुए। बाबा से सटकर अमर चल रहा था।
    “रोहू को साँप ने काट लिया। रोहू को साँप ने काट लिया।” झोंपडि़यों के सामने पहुँचकर वह चिल्लाई। तुरन्त झोंपडि़यो में हलचल हुई। दरवाजे खुले और जोर-जोर से बोलते हुए स्त्री-पुरूश बाहर निकले। सब पूछ रहे थे-“कैसे, क्या हो गया।”
    एकाएक बाँसुरी बाबा ने कहा-“अभी कोई सवाल-जवाब नहीं। तुुरन्त बैलगाड़ी  तैयार  करो।
बच्चे को षहर के अस्पताल में ले जाना होगा, नहीं तो इसके प्राण नहीं बचेंगे। इस बीच मैं अपनी दवा देता हूँ। मैंने दिन में आते हुए जंगल में सर्प विश उतारने की एक जड़ी देखी थी। से ढूँढकर लाता हूँ।“ कहकर बाँसुरी बाबा ने लालटेन उठाई और जंगल की तरफ दौड़ा।
    अमर कुछ कह पाता, इससे पहले ही बाबा वहां से जा चुका था। अमर देखता रहा। झाडि़यों में लालटेन की रोषनी हिलती दिखाई दे रही थाी। बाँसुरी बाबा वहां साँप का विश उतारने वाली जड़ी ढूंँढ़ रहा था।
    अमर जमीन पर रोहू के पास बैठ गया। रोहू की दादी पास खड़ी रो रही थी। वह कह रही थी-“मैंने इसे कितना मना किया था कि मेरे साथ मत चल पर यह नहीं माना। हे मेरे भगवान।”
    अमर का मन गहरे दुख से भर उठा। वह सोच रहा था-अगर रोहू की दादी रात को मन्दिर न आती तो रोहू को साँप कभी न काटता। वह इसके लिए अपने को और बाँसुरी बाबा को दोशी मान रहा था। बूढ़े को अंधेरे में जड़ी तलाषते देखकर मन में आया-अगर किसी साँप ने बाबा को भी काट लिया तो...तो.... पर वह इससे आगे नहीं सोच सका।
    थोड़ी देर में बाँसुरी बाबा हाथ में कुछ पत्ते लिए दौड़ा हुआ आया। उसने जल्दी-जल्दी पत्तों को रगड़ा और घाव पर लगा दिया। रह-रहकर किसी जड़ी का रस वह रोहू के मँुह में टपका देता था।
    तभी दो आदमी बैलगाड़ी तैयार करके वहाँ ले आए। बैलगाड़ी के पीछे की तरफ एक लालटेन लटकी हुई थी, उसकी मद्धिम रोषनी फैल रही थी। एक आदमी बैलों की रस्सी थामे खड़ा रहा। तीन जनों ने रोहू को बैलगाड़ी के टप्पर के अन्दर बिछे पुआल पर लिटा दिया।    
    इसके बाद चुप्पी छा गई। षायद गाँववाले यह तय नहीं कर पा रहे थे कि रोहू के साथ कौन-कौन षहर जाए। बाँसुरी बाबा फुर्ती से टप्पर के नीचे जा बैठा, फिर अमर से बोला-“छोकरे, वहाँ खड़ा-खड़ा क्या सोच रहा है। क्या चलना नहीं है?”
    अमर जैसे नींद से जागा हो, इस तरह चैंका, फिर पुआल पर बेसुध पड़े रोहू के पास जा बैठा। इसके बाद और भी कई लोग बैलगाड़ी के अन्दर आ गए। उनमें रोहू की दादी भी थी।
    बैलगाड़ी हिलती-डुलती आगे बढ़ी। तभी बाँसुरी बाबा ने कहा-“जरा पुराने मन्दिर की तरफ से चलना। हमारा सामान तो वहीं रखा है। कौन जाने बाद में कब आना होता है!”
    अब अमर को भी याद आ गया। रोहू की चीख सुनकर बाँसुरी बाबा एकदम ही तो दौड़ पड़ा
था। बैलगाड़ी ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर हिचकोले खाती हुई बढ़ रही थी। रह-रहकर अमर का सिर टप्पर के डंडे से टकरा जाता। अपने को गिरने से बचाने के लिए अमर ने बैलगाड़ी के छाजन से लटकती रस्सी थाम ली और संभलकर बैठ गया।
    टीले के पास बैलगाड़ी रुकी तो बाँसुरी बाबा ने अमर से कहा-“छोकरे, जल्दी से जाकर मेरी पोटली उठा ला। तेरा कुछ सामान हो तो उसे भी ले आना।” फिर जैसे कुछ याद आ जाए, इस तरह बोला-“अरे, तेरे पास तो कुछ भी नहीं है। जा, जल्दी से मेरी पोटली उठा ला।”
    अमर ने सहमी नजरों से टीले पर बने मन्दिर की ओर देखा। अब वहां घुप्प अँधेरा था। षायद मन्दिर के अन्दर जलता दीपक बुझ चुका था। उसको अपने बदन पर कुछ रेंगता हुआ महसूस हुआ। उस अँधेरे में बैलगाड़ी से नीचे उतरकर टीले पर जाना और मन्दिर में रखी बाँसुरी बाबा की पोटली उठाकर लाना अमर को बहुत कठिन काम लग रहा था।
    “जाता क्यों नहीं।” बाँसुरी बाबा चिल्लाया। अब अमर बैठा नहीं रह सका। वह सहमता-सा बैलगाड़ी से नीचे कूद पड़ा और मन्दिर वाले टीले पर चढ़ने लगा। धुँधले आकाष की पृश्ठभूमि में मन्दिर एक गहरी काली छाया जैसा लग रहा था। अमर की समझ में नहीं आ रहा था कि उस घने अँधेरे में वह बाँसुरी बाबा की पोटली कैसे ढूँढ़ेगा। फिर भी उसे मन्दिर मंे जाना ही था- बाँसुरी बाबा की कड़ी आवाज अब भी उसके कानों में गूँज रही थी।
    वह टीले की आँधी ऊँचाई तक चढ़ चुका था तभी पीेछे रोषनी दिखाई दी जो धीरे-धीरे पास आती जा रही थी। अमर को ताज्जुब हुआ कि इस समय और दूसरा कौन आ रहा है टीले पर। वह रुक गया और मुड़कर देखने लगा। रोहू की दादी हाथ में लालटेन लिए हुए बढ़ी आ रही थी। अमर को रुका देख उसने कहा-“बेटा, मैं लालटेन ले आई। सोचा, तू अँधेरे में पोटली कैसे ढूंढ़ेगा।”   
    अमर ने कहा-“लेकिन अम्मा, आपको रोहू के पास रहना चाहिए था। वह कितना बीमार है।”
    रोहू की दादी ने अमर की कलाई थाम ली। अमर को लगा जैसे उनकी उँगलियां काँप रही हों। दादी ने कहा-“हाँ बेटा, पर तू भी तो रोहू जैसे है मेरे लिए। अँधेरे में साँप-बिच्छू निकलते हैं यहां। इसीलिए लालटेन लेकर चली आई।” कहते-कहते रोहू की दादी की आँखों में आँसू चमक उठे।
    लालटेन की रोषनी में बाँसुरी बाबा की पोटली ढूंँढ़ने में दिक्कत नहीं हुई। पोटली यूँ ही एक तरफ पड़ी थी। उसे खोलने का मौका ही नहीं मिला था। अमर  ने  पोटली  उठा  ली।  तब  तक
लालटेन बाहर छोड़कर रोहू की दादी मन्दिर के अन्दर चली गई थी।
    अमर ने मूर्ति के पास ले आती रोने की आवाज सुनी। उसने एक हाथ में पोटली लटका ली, दूसरे से लालटेन उठाकर मन्दिर के अन्दर चला गया। रोहू की दादी आँखें मूँदे प्रार्थना कर रही थी। रोषनी में आँखों से बहते आँसू झलमला उठे। अमर के मन्दिर में पहुँचते ही वह आंसू पोंछकर उठ खड़ी हुई। फिर अमर का हाथ पकड़कर मन्दिर से बाहर निकल आई। टीले से उतरते-उतरते अमर ने पीछे मुड़कर देखा, तभी कानों में आवाज आई-“छोकरे।” बाँसुरी बाबा चिल्ला रहा था। अमर के कदमों में तेजी आ गई। उसने पोटली बैलगाड़ी के अन्दर रख दी, फिर खुद भी चढ़ गया। रोहू की दादी भी एक तरफ बैठ गई।
    मन्दिर वाले टीले को पीछे छोड़ती हुई बैलगाड़ी बढ़ चली। पुआल पर पड़ा रोहू धीरे-धीरे कराह रहा था।
    बैलगाड़ी चली जा रही थी। सब तरफ सन्नाटा और अँधेरा। हर चीज जैसे अँधेरे में खो गई थी। बैलगाड़ी के पहियों के साथ अमर का मन भी भाग रहा था। एकाएक कानों में बाँसुरी का सुर आया। बाँसुरी बाबा जोर-जोर से बाँसुरी बजा रहा था।
    “बाबा।” अमर के रुँधे गले से निकला। वह सोच रहा था, यह क्या बाँसुरी बजाने का समय है। “कोई सो न जाए इसीलिए बाँसुरी बजा रहा हूँ।“ बाबा ने कहा।
    अमर बैलगाड़ी में एक तरफ सिर टिकाकर बैठा था। फिर न जाने कब नींद ने उसे अपनी गोद में ले लिया। रह-रहकर बाँसुरी का सुर कानों में चुभता रहा।
   

4.    उसके लिए

एकाएक झटका लगा और अमर की नींद खुल गई। यह समझने में उसे थोड़ा समय लगा कि वह कहाँ  है, फिर सब याद आ गया। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा।
    बैलगाड़ी रुकी हुई थी, उसके कानों मे बातचीत की आवाजें आ रही थीं। बैलगाड़ी के छाजन से लटकी लालटेन बहुत मद्धिम रोषनी फेंक रही थी। फिर भी इतना देखा जा सकता था कि वह पुआल पर अकेला पड़ा था। बाकी सब कहाँ गए? रोहू, बाँसुरी बाबा, रोहू की दादी और बाकी सब? अमर बैलगाड़ी से नीचे कूद गया। इधर-उधर देखा। बैलगाड़ी एक बड़ी-सी इमारत के पास रुकी हुई थी। अभी दिन पूरी तरह नहीं उगा था। आसमान में तारे फीके पड़ गए थे।
    तभी बाँसुरी बाबा की आवाज आई, “छोकरे, खुल गई नींद?”
    “बाबा, रोहू कैसा है?” उसने पूछा।
    “यह अस्पताल है। रोहू को अन्दर ले गए हैं। मुझे उम्मीद है वह ठीक हो जाएगा, अब हम चलें।”
    “कहांँ।”
    बाँसुरी बाबा जोर से हँसा। “रोहू को साँप ने काटा था, उसका इलाज हो रहा है। अब यहाँ हमारा क्या काम। कहीं और ठिकाना देखते हैं, कुछ खाने-पीने का इन्तजाम भी तो करना है। इन लोगों के सथ कब तक रहेंगे? उन्हें अपना काम करने दो।”
    अमर अनमने भाव से देखता रहा। उसे माँ की याद आ रही थी। घर से निकले दो दिन बीत गए थे। उसे अब तक यह पता नहीं था कि वे कहाँ जा रहे हैं? बात उसके होठों तक आकर रह गई। वह पूछना चाहता था, ‘बाँसुरी बाबा, मुझे पिताजी के पास कब ले चलोगे?’ पर वह चुप रह गया। तभी उसने रोहू की दादी को देखा। वह अस्पताल के दरवाजे से निकलकर उसकी ओर बढ़ीं। चेहरा उदास था।
    “क्या बात है?” बाँसुरी बाबा ने पूछा।
    “डाॅक्टर रोहू को देख रहा है। वह कहता है, हमने आने में देर कर दी, फिर भी वह कोषिष करेगा।”
    “क्या मैं रोहू को देख सकता हूँ?” अमर ने कहा।
    “डाॅक्टर ने सबको बाहर भेज दिया है।”
    “अच्छा माई, अब हम चलते हैं। थोड़ी देर में फिर आएँगे।” बाँसुरी बाबा ने कहा और अमर का हाथ थाम लिया। अमर समझ न पाया कि वे लोग कहाँ जा रहे हैं। उसका मन था कि जब तक रोहू ठीक न हो जाए, वह वहीं रहे, पर बाबा चलने को कह रहा था।
    रोहू की दादी चुप खड़ी देखती रही। बाँसुरी बाबा अमर का हाथ पकड़कर ले चला। आगे बाजार था, लेकिन अभी दुकानें खुली नहीं थीं। दूर एक जगह धुआं उठता दिखाई दिया। वह एक चाय की दुकान थे। दो आदमी बैठे चाय पी रहे थे।
    बाँसुरी बाबा ने अमर को वहीं रुकने का इषारा किया और चाय की दुकान के सामने जमीन पर बैठ गया। बाँसुरी होंठों से लगाकर बजाने लगा। इसी तरह कुछ देर बाँसुरी बजाने के बाद उठा और गोल-गोल घूमने लगा।
    चायवाले ने बूढ़े की तरफ देखा, फिर मुँह सिकोड़कर बोला, “ऐ बूढ़े, यह सुबह-सुबह क्या राग लेकर बैठ गए.... अभी अभी तो दुकान खोली है, बाद में आना।” कहकर अपने काम में जुट गया।
 बाँसुरी बाबा ने हँसकर चाय वाले की ओर देखा। बोला-“हम बरान गाँव से आए हैं। सारी रात चलते रहे हेैं। इस लड़के के छोटे भाई को साँप ने काट लिया। उसे अस्पताल में छोड़कर आया हूंँ। बहुत थक गए हैं। इस समय तो बाँसुरी बजाकर उस बच्चे के लिए और तुम्हारे लिए भगवान से आषीर्वाद माँग रहा हूंँ।”   
बूढ़ा रोहू को उसका भाई बता रहा था, यह सुनकर अमर उसकी सूरत देखता रह गया। उसकी समझ में न आया कि यह सब झूठ कहने की क्या जरूरत थी....लेकिन तभी रोहू की दादी के षब्द कानों में गँूज उठे, जो उन्होंने रात को मन्दिर वाले टीले पर उसे रोषनी दिखाते हुए कहे थे-“तू भी तो रोहू जैसा है।” क्या सचमुच रोहू उसका अपना भाई जैसा नहीं है?
बूढ़े की बात सुनकर चाय पीते दोनों लोग उठकर पास आ गए। वे पूछ रहे थे बच्चे को साँप ने कैसे काट लिया था। बीच में ही उन्होंने चाय वाले से कहा-“इन दोनों को चाय और कुछ खाने को दो।” उनमें एक ने जेब से बटुआ निकाल कर चाय वाले को पैसे दिए फिर दस-दस के कई नोट बाँसुरी बाबा के हाथ पर रखकर बोला-“इनसे बच्चे का इलाज कराना। बच्चा जरूर अच्छा हो जाएगा।”
बाँसुरी बाबा ने हाथ उठाकर दोनों को आषीर्वाद दिया, फिर उस व्यक्ति के पैर छूने के लिए नीचे की तरफ झुकने लगा तो वह हड़बड़ा कर पीछे हटा-“अरे, अरे, यह क्या...यह क्या....” उसने बाँसुरी बाबा के कन्धे थाम लिए।
इसके बाद वे दोनों चले गए। चाय वाले ने बाँसुरी बाबा और अमर को चाय और बिस्किट खाने को दिए। इतनी थकान के बाद गरमागरम चाय अमर को अच्छी लगी। चाय पीकर खड़ा हुआ तो बाँसुरी बाबा ने कहा-“चाय वाले भाई, अस्पताल में पड़े बच्चे के लिए भी कुछ खाने को दो। और भी कई जने हैं। वे सब बहुत परेषान हैं। ईष्वर तुम्हारा भला करेगा।”   
चाय वाला कुछ सोचता-सा खड़ा रहा, फिर उसने कई बिस्किट उठाकर बूढ़े के कटोरे में डाल दिए। अब बूढ़े ने अमर से आगे चलने का इषारा किया।            
“बाबा, मुझे पिताजी के पास कब ले चलोगे?”अमर ने हिम्मत करके पूछ ही लिया।     
“एक बार कह दिया न, ले चलूँगा। मुझे पता है तेरे पिता कहाँ हैं-मेरे अलावा कोई तुझे वहाँ नहीं ले जा सकता।” बूढ़े ने गुर्राकर कहा और फिर बाँसुरी बजाता हुआ सड़क पर चलने लगा।
अमर सहमा-सहमा साथ चलता रहा। फिर बोला-“बाबा, हम अस्पताल चलें। उन लोगों के लिए कुछ खाने को....”
बाँसुरी बाबा ने घूरकर अमर की ओर देखा। फिर बोला-“उन्हंे अपना काम करने दो, हमें अब अपने बारे में भी सोचना चाहिए। क्या तू भूल गया कि तुझे अपने पिता के पास भी जाना है।”
अमर को जैसे जोर का झटका लगा। वह कैसे भूल सकता था यह बात! हर पल उसके दिमाग में एक ही बात तो घूमती रहती थी, पर उसने कहा कुछ नहीं, बाँसुरी बाबा के साथ-साथ बढ़ चला।
बाजारों में चहल-पहल हो गई थी। दुकानें खुलने लगी थीं। एक ऊँचे चबूतरे पर खड़ा होकर बूढ़ा बाँसुरी बजाने लगा। जल्दी ही कुछ लोग जमा हो गए। बूढ़े के इषारे पर अमर कटोरा लेकर चारांे ओर घूम गया। बूढ़े के षब्द उसके कानों में चुभ रहे थे-“माई बाप, मैं बहुत मुसीबत में हूँ। इस लड़के के भाई को साँप ने काट लिया, वह अस्तपाल में है। मदद कीजिए....मदद...”   
कई बाजारों में यह घटना बार-बार दोहराई गई। लोगों ने पैसे दिए, खाने की सामग्री भी दी। दोपहर हो गई तो एक पेड़ के नीचे बैठकर बूढ़ा खाने लगा, उसने अमर को भी दिया।
“बाबा, हमें एक बार रोहू को देखने चलना चाहिए। न जाने उसकी क्या हालत हो।” अमर ने
कहा।
बूढ़ा खाते-खाते गुर्राया। फिर बोला-“मैंने कहा न, उन्हें अपना काम करने दो।”
अमर को गुस्सा आ गया। वह सोच रहा था-’अगर ऐसा था तो फिर रोहू की बीमारी का नाम लेकर पैसे क्यों माँगे? झूठ क्यों बोला।’ पर वह कुछ कह नहीं सका।
थोड़ी देर आराम करने के बाद बाँसुरी बाबा उठ खड़ा हुआ, बोला-“आओ, अब चलते हैं।”
सड़क का मोड़ घूमते ही अमर चैंक उठा। सामने अस्पताल की इमारत दिखाई दे रही थी।
“बाबा।” अमर का गला रुँध गया।
बाँसुरी बाबा हँस पड़ा, बोला-“हाँ, हमें यहीं तो आना था, पर खाली हाथ कैसे आते? इसीलिए बाजारों में इतना घूमना पड़ा। तू पता नहीं क्या-क्या सोच रहा होगा मेरे बारे में।”
अमर आष्चर्य से बाँसुरी बाबा की ओर देखने लगा। कुछ देर पहले और अब की बात में कितना फर्क था? रोहू की दादी तथा दूसरे लोग अस्पताल के बाहर बैलगाड़ी के पास बैठे थे। इन दोनों को देखते ही वे लोग उठ खड़े हुए।
“बच्चा कैसा है?” बाँसुरी बाबा ने पूछा।
“पहले से तो ठीक है, लेकिन...” कहती-कहती रोहू की दादी रुक गई। वह अमर की ओर देख रही थी।
“मैं समझ गया.....सारी बात समझ गया।” बाँसुरी बाबा ने कहा-फिर जमीन पर बैठकर पोटली खोल डाली। उसमें से नोट और ढेर सारे सिक्के निकाले। रोहू की दादी से बोला-“बस, इतने ही हैं। ले लो। इनसे रोहू के लिए दवाई ले आना।”
“बाँसुरी बाबा, यह क्या?” रोहू की दादी फटी-फटी आँखों से कभी बूढ़े की ओर तो कभी नोटांे और रेजगारी की ओर देखने लगी।
“नहीं लोगी। कैसे ले सकती हो? मैं तो तुम्हारी बस्ती मंे आकर भीख मांगता हूंँ।    एक भिखारी भला किसी को क्या दे सकता है! यही सोच रही हो।“ बाँसुरी बाबा ने कहा। अमर को लगा जैसे उसकी आवाज कुछ-कुछ काँप रही थी....
“यही न कि फिर हम क्या करेंगे! अरे, यह बाँसुरी किसलिए है। जरूरत होगी तो बाँसुरी बजाकर पेट भर लेंगे। हो सकता है पहले की तरह तुम्हारे गाँव मंे आ जाऊँ किसी दिन.....” कहकर बाँसुरी बाबा जोर से हँस पड़ा, फिर नोट और रेजगारी उठाकर रोहू की दादी के हाथ में थमा  दिए।
बोला-“ईष्वर का नाम लो, रोहू जरूर ठीक हो जाएगा। मैं उससे मिलने आऊँगा गाँव में...”
“इसे भी अपने साथ लाना।” रोहू की दादी बोली।
“कौन जाने.... क्या पता....” बाँसुरी बाबा ने कहा। फिर अमर को चलने का इषारा करके आगे बढ़ गया।
अमर को दादी के दिए दो के नोट की याद आई। उसने नोट निकाला और रोहू की दादी की तरफ देखने लगा। वह जल्दी-जल्दी पलकें झपका रही थी, जैसे बाहर बहते आँसुओं को रोकना चाहती हो। होंठ फड़क रहे थे। बोली-“तू भी देगा, ला दे... जरूर लूंगी।” कहकर दादी ने अमर की मुट्ठी में दबा दो रुपये का नोट ले लिया। झुककर उसकी कमर थपथपा दी। अमर कुछ कहता, इससे पहले ही बाँसुरी बाबा की आवाज सुनाई दी-“छोकरे।”
अमर ने रोहू की दादी की ओर देखा-एक बार नजर अस्पताल की इमारत पर टिकी, उसका मन था कि अन्दर जाकर रोहू से एक बार मिल ले। जाने वह कैसा है लेकिन....
“छोकरे।” बाँसुरी बाबा इस बार तेज आवाज में चिल्लाया था। अमर तेज कदमों से आगे भाग चला। एक बार जरा गर्दन घुमाकर ताका था-रोहू की दादी उसी की तरफ देख रही थी। अमर के कदम आगे जा रहे थे लेकिन मन तो कहीं पीछे छूट गया था।

5.    रात में जो हुआ

गलियों-बाजारों में घूमते कई दिन बीत गए थे। अमर को ठीक-ठीक याद नहीं था कि कितने दिन हुए थे। बीच में उसने जब-जब बाँसुरी बाबा से पिता की खोज में जाने की बात कही तो उसने भरोसा दिलाया। कहा-“हम उन्हीं के पास तो चल रहे हैं, जल्दी ही पहुँचने वाले हैं तुम्हारे पिताजी के पास।” अमर का मन आषा-निराषा के झूले में झूलता रहता था। कभी लगता था कि बाँसुरी बाबा सचमुच उसे पिता के पास ले जाएगा। फिर मन में आता कि बाँसुरी बाबा उससे झूठ कह रहा है। और तब उसकी निराषा बहुत बढ़ जाती।
    हर दिन ऐसे ही बीत रहा था-बस्ती और बाजारों में जगह-जगह रुक कर बूढ़ा बाँसुरी बजाता। कहीं कुछ मिल जाता, तो कहीं उन्हें खाली कटोरा लेकर ही चल देना पड़ता। रात किसी पेड़ के नीचे, कहीं फुटपाथ पर, खुले मैदान में नंगी जमीन पर बितानी पड़ती।
    बाँसुरी बाबा कभी-कभी दिन भर नाराज रहता। बिना बात अमर को डाँट देता। बीच-बीच में कहता-“छोकरे, तू बाँसुरी बजाना नहीं सीख सका अब तक। क्यों नहीं सीखी भला। तू बाँसुरी बजाना सीख जाए तो मेरी तबीयत खराब होने पर भूखों रहने की परेषानी नहीं उठानी पड़ेगी। बोल, सीखेगा बाँसुरी बजाना?”   
    अमर ने सिर हिलाकर हाँ कह दी थी। बूढ़े ने उसके लिए एक छोटी बाँसुरी खरीद दी। जब भी कहीं आराम करने बैठते, अमर बाँसुरी बजाने की कोषिष करता। बूढ़ा बताता-“ बाँसुरी के छेदों पर इस तरह उँगलियां टिकाओ, इस तरह बजाओ।” कुछ ही दिनों मंे अमर बाँसुरी बजाना सीख गया था। जब भी मौका मिलता, अमर बैठा-बैठा बाँसुरी बजाने का अभ्यास करता रहता। उसे बाँसुरी बजाते देख, बूढ़ा सन्तोश से सिर हिलाता कहता-हाँ, इसी तरह करते रहो।”   
    उस दिन मौसम खराब था। सुबह से ही बादल छाए हुए थे। रुक-रुककर बारिष होती रही। ठंडी हवा चल रही थी। मौसम बदलने लगा था। बाँसुरी बाबा को रह-रहकर खाँसी उठती थी, इसलिए वह ठीक से बाँसुरी नहीं बजा पाता था। वे दोनों सारा दिन बाजारों में घूमे पर उस दिन कहीं कुछ न मिला-न खाने को और न पैसे। अमर का कटोरा खाली रहा।
    षाम ढल रही थी, फिर बारिष होने लगी। उस समय बाँसुरी बाबा और अमर एक सड़क से गुजर रहे थे। सड़क पर ऐसे पेड़ भी नहीं थे, जिनके नीचे खड़े होकर बारिष से बचा जा सकता। सड़क के एक छोर पर एक पीली-सी इमारत दिखाई दे रही थी। अमर का हाथ थामकर बाँसुरी बाबा उसी तरफ बढ़ चला। लेकिन वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते दोनों ही भीग गए।
    वह इमारत एक सराय की थी। सराय के बाहर मैदान में कई बैलगाडि़यां खड़ी थीं। दो घोड़े एक तरफ बँधे हुए थे। सराय का बड़ा दरवाजा खुला था। कई आदमी अन्दर-बाहर आ-जा रहे थे।
    बाँसुरी बाबा ने अपनी पोटली जमीन पर रख दी, फिर खुद भी पास में बैठ गया। अमर खड़ा-खड़ा इधर-उधर देखता रहा। उसे भीगे कपड़ों में ठंड लग रही थी। सराय की रसोई षायद कहीं पास ही थी, क्योंकि हवा के साथ भोजन की सुगंध आ रही थी। उससे अमर की भूख एकदम बढ़ गई। मुँह में पानी आने लगा।
    बूढ़े ने बाँसुरी होंठों से लगाई, पर बजाते ही खाँसने लगा। बाँसुरी उसके हाथ से गिर गई। अमर बूढ़े की पीठ सहलाने लगा। बूढ़े की खाँसी जरा थमी तो भर्राई आवाज में बोला-“बजा....बजा... नहीं तो भूखों रहना पड़ेगा। हो सकता है कुछ मिल जाए।”   
    अमर ने बाँसुरी उठाकर होंठों से लगा ली-एक मीठी धुन उभरने लगी। बूढ़े ने एक बार बाँसुरी बजाते अमर को देखा फिर आँखें मूंँदकर पोटली के सहारे लेट गया। षाम ढल चुकी थी, आकाष से अँधेरा उतरने लगा। सराय के अन्दर रोषनी थी, चहल पहल थी-पर बाहर सन्नाटा हो चला था। अमर काफी देर तक बाँसुरी बजाता रहा, पर कोई नहीं आया। थोड़ी दूर पर खड़े बैल पूँछ हिला रहे थे। बीच-बीच में घोड़े घास चरना छोड़ हिनहिना उठते।
    एकाएक बूढ़ा बोल उठा-“रहने     दे, बन्द कर बाँसुरी। अब कोई नहीं आएगा। सब अन्दर मजे से खा पी रहे हैं। वे हमारी पुकार सुनने वाले नहीं।”
    तभी कदमो की आहट हुई। एक लम्बा व्यक्ति हाथ में लाठी थामे सराय के अन्दर से निकला और दरवाजे के सामने खड़ा हो गया। कुछ देर अमर को बाँसुरी बजाते देखता रहा, फिर जोर से बोला-“चलो भागो। यहाँ तुम लोगों को कुछ मिलने वाला नहीं।”
    बूढ़ा बोला-“सुबह से कुछ नहीं खाया है। यह बच्चा भूखा है।”
    “तो मैं क्या करूँ। इस सराय में तुम जैसे भिखारियों के लिए कोई जगह नहीं है। पैसे हों तो अन्दर चले जाओ, सब कुछ मिल जाएगा।” फिर सराय के दरवाजे के सामने लाठी को टेढ़ी करके उसके सहारे टिक गया। जैसे कह रहा हो, अन्दर जाने की कोषिष करोगे तो लाठी से खबर लूंँगा।
    अमर ने बाँसुरी बजाना बन्द कर दिया। उसने जान लिया कि आज  रात  भूखा  ही  रहना
 पड़ेगा।
    थोड़ी देर में हवा तेज हो गई। अमर का बदन सिहर उठा। लम्बे आदमी ने सराय का दरवाजा बन्द किया और अन्दर चला गया। अमर चुप बैठा इधर-उधर देखता रहा। एकाएक लगा जैसे किसी ने नाम लेकर पुकारा हो-“अमर बेटा, मेरे पास आते क्यों नहीं। मैं कब से तुम्हारी राह देख रहा हूँ।
    अमर ने बूढ़े की ओर देखा जो पोटली का सिरहाना लगाए चुप लेटा था। अमर होठों में बुदबुदाया, “मैं क्या करूं। यह बूढ़े बाबा हर दिन बहाना बना देते हैं। मैं तो रास्ता जानता नहीं जो अकेला आ सकूँ।” फिर माँ का चेहरा आँखों के सामने तैर गया। कितनी परेषान होगी। माँ से पूछकर आना चाहिए था। लेकिन माँ क्या अकेला आने देती। ऊँ हँू कभी नहीं..... बिल्कुल नहीं।
    “मैं पिता को साथ लेकर ही माँ के पास जाऊँगा।” अमर ने जैसे स्वयं से कहा। तभी सामने से रोषनियाँ दिखाई दीं। फिर घोड़ों की टापों की आवाज आई।
     एक घोड़ा गाड़ी सराय के दरवाजे पर आकर रुकी। उसमें से दो आदमी और दो महिलाएँ बाहर आए। उनके साथ बच्चे भी थे। कोचवान सामान उतारने लगा। कई सन्दूक, कई पोटलियाँ।
    सराय का दरवाजा खुल गया। दरवाजे के सामने रोषनी हो गई। वही लाठीवाला लम्बा आदमी सराय से बाहर आया। अमर ने उसकी आवाज सुनी-“आइए सेठ जी, आइए अन्दर आइए। आप लोग लम्बे सफर से थक गए होंगे।” फिर वे लोग अन्दर चले गए। कोचवान ने घोड़ों को खोलकर एक तरफ बाँध दिया। उनके सामने घास डाल दी, फिर वह भी अन्दर चला गया।      सराय का दरवाजा दोबारा बन्द हो गया था। अन्दर बरतनों की झनटन सुनाई दे रही थी, फिर मसालों की खुषबू हवा में तैरने लगी। अमर जान गया कि अभी-अभी मेहमान आए हैं उनके लिए गरमागरम खाना बनाया जा रहा है। सेठ लोगों से सरायवाला कैसी मीठी आवाज में बोला था, और उन लोगों को कैसे बुरी तरह डाँटा था, सोच अमर कर मन दुखी हो गया।
    वह बूढ़े बाँसुरी बाबा के पास चुपचाप लेटा रहा, फिर न जाने कब नींद आ गई। एकाएक बूढ़े की आवाज सुनकर उसकी नींद खुल गई। बूढ़ा चीख रहा था-“चोर...चोर.... दौड़ो-दौड़ो।”
    अमर झटके से उठा। धुँधलके में उसने कई लोगों को खड़े देखा। दो आदमी बाँसुरी बाबा को मारा रहे थे.... डर के मारे अमर की घिग्घी बँध गई।
    फिर एकाएक सराय का दरवाजा खुला। दरवाजे पर रोषनी हो गई। कई आदमी  अन्दर  से
निकले। उन्हें देखकर बूढ़े को पीटते लोग वहाँ से भाग गए।
    “कहाँ हैं चोर..... क्या हुआ....अरे, यह तो वही बूढ़ा है।” एक आवाज आई।
    अमर ने सरायवाले की आवाज पहचान ली। बोला-“उन लोगों ने बाबा को मारा है।”
    सरायवाला लालटेन लेकर आगे आया। लालटेन की पीली रोषनी में बाँसुरी बाबा का खून से सना चेहरा दिखाई दिया। उसके कपड़े फट गए थे। वह कराह रहा था।
    “अरे। बूढ़े को तो बहुत चोट आई है।” सरायवाले ने कहा, फिर साथ खड़े लोगों से बोला-“इसे अन्दर ले चलो, जल्दी। नहीं तो ज्यादा खून निकलने से मर जाएगा।”
    कई आदमियों ने बाँसुरी बाबा को उठा लिया और सराय के अन्दर ले चले। तभी अमर को कुछ ख्याल आ गया। उसने झुककर बूढ़े की पोटली उठा ली और उन लोगों के पीछे-पीछे सराय में चला गया।
    सराय के आँगन में खूब रोषनी थी। एक तरफ कई आदमी खड़े थे-उनके पीछे औरतें भी थीं। बाँसुरी बाबा को एक चारपाई पर लिटा दिया गया। अमर उसके पास जा बैठा। वहाँ खड़े लोग आपस में बातें कर रहे थे-“कौन था, डाकू थे। बूढ़े को मार रहे थे....”
    एक आदमी रुई और दवा लेकर आया। उसने बाँसुरी बाबा के बदन पर लगा खून पोंछा फिर दवा लगा दी। वह वैद्य था, सराय का नौकर उसे पास की बस्ती से बुलाकर लाया था। वैद्य कुछ देर बूढ़े की नाड़ी देखता रहा। कोई दवा पिलाई, फिर उठकर सरायवाले के पास आया। धीरे से बोला-“इसे काफी चोट लगी है। बुखार भी है। मैंने दवा दे दी है। काफी ध्यान रखना पड़ेगा। यह कौन है?”
    अमर दोनों की बातें सुन रहा था। सरायवाला बोला-“पता नहीं कौन है, षायद भीख माँगता फिरता है। साथ में वह लड़का है।” और उसने अमर की तरफ इषारा किया।
    वैद्य ने अमर को अपने पास बुलाया। कहा-“बच्चे, यह बूढ़ा तेरा कौन है?”
    अमर ने सिर झुका लिया, कुछ बोला नहीं। वैद्य ने दवाई की पुडि़या उसके हाथ में थमा दी। बोला-“गरम पानी के साथ रात में थोड़ी-थोड़ी देर बाद देना। सुबह इन्हें लेकर मेरे दवाखाने पर आ जाना। मैं देखकर पट्टी बदल दूंगा।” अमर ने तब भी कुछ नहीं कहा। वै़द्य की बात समझ में नहीं आ रही थी। बस इतना मालूम था कि बूढ़े बाँसुरी बाबा को ज्यादा चोट आई है।
    वैद्य चला गया। तभी बूढ़े ने आँखें खोलीं। धीमे से पुकारा-“छोकरे।”
    “बाबा।” कहता हुआ अमर उसके पास चला गया। बूढ़े ने अमर का हाथ थाम लिया। मीठे स्वर में बोला-“क्यों, डर गया?”
    “नहीं तो।” अमर ने कहा, लेकिन वह सचमुच डर गया था।
    उसी समय सराय का रसोइया गिलास में गरम दूध लेकर आया। बोला-“पी लो।”
    अमर ने बूढ़े को सहारा देकर बैठा दिया। बूढ़ा दूध पीने लगा। नौकर से बोला-“इस बच्चे को कुछ दो, सुबह से भूखा है।”
    नौकर गया और एक थाली में दो रोटी और थोड़ी-सी सब्जी रख लाया। अमर खाने लगा। बूढ़े को चारपाई पर बैठे देख सरायवाला तथा दूसरे कई लोग पास में आ जुटे। सराय वाले ने पूछा, “क्या हुआ बूढ़े बाबा? वे कौन लोग थे। तुम्हें क्यों मारा उन लोगों ने?”
    बाँसुरी बाबा ने बारी-बारी से सबकी ओर देखा, फिर धीमी आवाज में बोला-“मैं बाहर खुले मे लेटा था। तभी कुछ लोग आए और एक बैलगाड़ी के पास खड़े होकर धीमे-धीमे बातें करने लगे। वे बहुत पास थे इसलिए मैं उनकी बातें सुन सकता था। वे आपस में कह रहे थे कि इस सराय में अभी-अभी एक सेठ अपने परिवार के साथ आया है। उसके पास काफी रुपया-पैसा है। मैं समझ गया कि वे चोर-डाकू हैं और सराय में घुसकर लूटपाट करना चाहते हैं।”
    “ऐसा!” सराय वाले ने आष्चर्य भरे स्वर में कहा।
    बूढा जरा दम लेने के लिए रुका। बाकी लोग एकदम चुप खड़े उसकी बात सुन रहे थे। 
    “फिर क्या हुआ?” एक आदमी ने पूछा? वह दो औरतों के पास खड़ा था। उन सभी ने बहुत बढि़या कपड़े पहन रखे थे। षायद वही सेठ था।
    बूढ़े ने आगे कहा, ”मैं उन बदमाषों की बातें सुनकर डर गया। सोचने लगा कि अगर ये लोग सराय में घुस गए तो बहुत गड़बड़ मच जाएगी। बस, मैं एकदम उठा और ‘चोर-चोर दौड़ो-बचाओ’ चिल्लाने लगा। मुझे उम्मीद थी कि मेरे इस तरह चिल्लाने से बदमाष हड़बड़ाकर भाग जाएँगे। लेकिन वे मुझ पर ही टूट पड़े। फिर मुझे पता नहीं क्या हुआ।” इतना कहकर बूढ़ा चुप हो गया। वह हाँफ रहा था। फिर खाँसने लगा। अमर ने उठकर बूढ़े की पीठ सहलानी षुरु कर दी।
    “हाँ, बहुत गड़बड़ मच जाती, क्योंकि सराय में सब सो चुके थे। ऐसे में बदमाष कोई भी षरारत कर सकते थे।” वहाँ खड़े लोगों ने कहा। सरायवाले ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाई।
    सेठ ने कहा-“बाबा, हम लोग तुम्हारा अहसान कभी न भूलेंगे। तुमने अपनी जान की  परवाह
न करके सराय वालों को सचेत कर दिया।”
    सरायवाला बोला-“चोर-चोर बचाओ, दौड़ो की आवाज सुनकर मेरी नींद खुल गई थी। मैं दो नौकरों को लेकर सराय से बाहर आया। हमें देखते ही बदमाष भाग गए।”
    अमर सोच रहा था-रात को अगर सरायवाला हमें अन्दर आने देता तो बाँसुरी बाबा कभी घायल न होते। फिर मन में आया, ‘अगर बाबा को चोट न लगती तो न सराय में जगह मिलती, न खाना ही मिलता।’
    तभी सराय का नौकर आकर बोला-“अपने बाबा को वहाँ ले आओ, उस कोठरी मंे। बीमार आदमी का खुले में लेटना ठीक नहीं है।”
    अमर ने बाँसुरी बाबा को सहारा देकर उठाया और कोठरी में ले गया। वहाँ एक चारपाई पड़ी थी, उस पर कुछ बिछा हुआ नहीं था। बाँसुरी बाबा चारपाई पर गिर-सा पड़ा। सराय के आँगन से कोठरी तक आने में ही वह हांफने लगा था। षरीर पर बंधी पट्टियों पर जगह-जगह खून दिखाई दे रहा था। एक तरफ जलती मोमबत्ती रखी थी। उसकी लौ काँपती तो दीवार पर अजीब छाया पड़ने लगती।
    बाबा कराह रहा था। देखकर अमर की आँखों में आँसू आ गए। सोचने लगा-क्या इस हालत में बाँसुरी बाबा मुझे अपने पिताजी के पास ले जा सकेगा? कैसे ले जाएगा? यह तो बिना सहारे के चल भी नहीं सकता। तो क्या मैं अभी पिताजी के पास नहीं जा सकँूगा, तब तो माँ के पास ही लौट जाना चाहिए। लेकिन कैसे? बहुत देर तक इसी तरह के विचार आते रहे उसके मन में।
    बीच-बीच में बूढ़ा धीरे-से कहता-“बेटा.... छोकरे..... दौड़ो....दौड़ो... ”उसकी आवाज सुनकर अमर डर जाता, उठकर कोठरी के दरवाजे पर जा खड़ा होता। सराय के आँगन में अब अँधेरा छा चुका था... सब लोग अपने-अपने कमरों में सोने चले गए थे। अमर ने सराय के दरवाजे की ओर देखा-बड़ा दरवाजा अन्दर से बन्द था। ‘अब डाकू अन्दर नहीं आ सकेंगे।’ अमर ने सोचा। दिमाग में रह-रहकर एक ही बात आ रही थी-“अगर सराय वालों ने हमें पहले अन्दर आने दिया होता तो यह सब क्यों होता।”
    कुछ देर तक अमर कोठरी के दरवाजे पर खड़ा रहा। फिर अन्दर जाकर चारपाई के पास लेट गया। बूढ़ा बाँसुरी बाबा सो रहा था।

6.    मेरा बाँसुरी वाला

कहीं कौए की काँव-काँव से अमर की नींद टूट गई। वह झटके से उठा। चारपाई पर बाँसुरी बाबा लेटा था। बाहर सराय के आँगन में हलचल थी। उसी समय रातवाला सेठ कोठरी के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ। उससे आँखें मिलते ही अमर के होंठों से निकला-“आप बूंदपुर जा रहे हैं?”   
    सेठ ने आष्चर्य से अमर की ओर देखा “बूंदपुर....क्यों.... वहाँ किसलिए? कौन है वहाँ। कहाँ है बूंदपुर....” अमर चुप रहा, सेठ को पता ही नहीं था कि अमर का षहर कहाँ है। अगर पता होता तो वह उनके साथ चला जाता।
    “बाबा, ओ बाबा, कैसे हो?” सेठ ने पुकारा। बाँसुरी बाबा ने आँखें खोली और बाहर की तरफ देखा। वह बड़े जोर से कराह उठा। उठकर बैठने की कोषिष करता रहा। अमर ने उसे सहारा देकर बैठा दिया। सेठ बोला-“हम लोग जा रहे हैं बाबा। अगर रात को तुम न होते तो न जाने हम लोगों के साथ क्या होता।” ”मैंने कुछ नहीं किया, मैं तो....” और बाँसुरी बाबा फिर कराह उठा।
    “बाबा, मैं वैद्य जी से कहता जाऊंगा। वह आकर तुम्हारी मरहम-पट्टी कर जाएँगे।” सेठ ने कहा। तभी सेठ के पीछे खड़ी औरत ने एक टोकरी कोठरी के अन्दर रख दी। कोठरी में भोजन और फलों की खुषबू भर गई। सेठ ने कहा-“बाबा, यह सब तुम्हारे और बच्चे के लिए है। रख लो मना मत करना।”
    इसके बाद सेठ तथा उसके परिवार के लोग सराय से बाहर चले गए। अमर सराय के दरवाजे पर जा खड़ा हुआ। घोड़ागाड़ी में सामान रखा गया, वे सब बैठे फिर घोड़ागाड़ी धूल उड़ाती हुई चली गई।
    अमर बहुत देर तक सराय के दरवाजे पर खड़ा-खड़ा उस ओर देखता रहा जिधर सेठ की घोड़ागाड़ी गई थी, फिर बाँसुरी बाबा की पुकार सुनकर अन्दर चला गया।
    बूढ़ा टोकरी में से फल लेकर खा रहा था। उसने कहा-“छोकरे, खा ले, पेट भर ले, फिर पता नहीं कब तक न मिले।”
    वे लोग खा रहे थे, तभी वैद्य आ गया। उसने बूढ़े के घाव देखे, साफ करके पट्टियाँ बाँध दीं, फिर बोला-“आज मैं सेठ के कहने से आ गया हूँ। मैं कहीं आता-जाता नहीं। इलाज करवाना है तो मेरे दवाखाने पर आ जाना...समझे। और पैसा टका लेकर आना....सेठ ने सिर्फ आज भर के लिए पैसे दिए थे मुझे....समझे....” और फिर तेजी से बाहर चला गया। बाँसुरी बाबा बिना कुछ बोले बाहर की तरफ देखता रहा, फिर अमर ने देखा बूढ़े का बदन काँप रहा है। उसके चेहरे पर गुस्सा था।
    “बाबा, आप मुझे पिताजी के पास कब ले चलेंगे? अब तो बहुत दिन हो गए हैं।
    बूढ़े ने घूरकर अमर की ओर देखा, चिल्लाकर बोला-“छोकरे, यह क्या रट लगा रखी है। देखता नहीं मुझे कितनी चोट आई है। अपनी ही बात कहे जाता है। अगर बार-बार कहेगा तो मैं नहीं ले जाऊँगा। यहीं छोड़कर चल दूँगा। फिर तू कहीं भी नहीं जा सकेगा। जैसा कहता हूँ, वैसा कर....”   
    बूढ़े की चिल्लाहट सुनकर अमर सहम गया, फिर उसने कुछ न कहा। अपनी नन्ही बाँसुरी हाथ में लेकर सराय से बाहर चला गया-वहाँ कई बैलगाडि़यों खड़ी थीं। एक तरफ पेड़ के नीचे बैठे कुछ लोग बातें कर रहे थे। हवा में ठंडक थी, आकाष में गहरे काले बादल तेजी से दौड़े जा रहे थे। अमर ने बाँसुरी होठों से लगाई और एक पेड़ के नीचे जा बैठा। एक मीठी आवाज हवा में उभरने लगी। उसकी आँखें मुँद गईं। वह वहाँ बाँसुरी बजाता रहा। उसे पता न चला कि पेड़ के नीचे बैठे लोग उठकर सामने आ खड़े हुए हैं। कई लोगों ने उसके सामने सिक्के उछाल दिए। सबके चेहरे पर प्रषंसा का भाव था। धीरे-धीरे और लोग भी आ गए।
    बूढ़ा बाँसुरी बाबा भी अन्दर से निकल आया और लड़खड़ाता -लंगड़ाता हुआ अमर के पास आ खड़ा हुआ। खड़ा-खड़ा सिर हिलाने लगा, फिर धीरे-से अमर की कमर थपथपा दी। अमर ने बाँसुरी बजानी बन्द कर दी। बाँसुरी की आवाज बन्द होते ही भीड़ में खड़े लोग तालियाँ बजाने लगे। कई सिक्के वहाँ धूल में आकर गिरे, जहाँ अमर बैठा हुआ था।
    लेकिन अमर वहाँ रुका नहीं, न ही उसने जमीन पर पड़े सिक्कों की ओर देखा। बाँसुरी हाथ में लिए दौड़ता हुआ सराय में चला गया-कोठरी मंे घुसकर बैठ गया। न जाने क्यों उसे रोना आ रहा था। आँसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे, बहते जा रहे थे।
    बाहर बाँसुरी बाबा जमीन पर पड़े चमकते सिक्कों की ओर देख रहा था। बाँसुरी सुनने के लिए जमा हए लोग बिखरने लगे थे। बाँसुरी बाबा ने एक-एक करके सिक्के उठाने षुरु कर दिए। तभी एक आदमी ने टोका-“ऐ बूढ़े, यह क्या करता है? पैसे क्यों उठा रहा है? वह बच्चा कहाँ गया? ये पैसे उसके लिए हैं।” बाँसुरी बाबा ने हँसकर कहा-“हाँ, वह छोकरा अपना ही है। मैं बाबा हूँ उसका।” और सारे सिक्के उठाकर सराय में चला गया।

7.    झूठ का सच

दिन ऐसे ही बीत गया। सारा समय बादल छाए रहे। षाम ढली तो बारिष षुरु हो गई थी। अँधेरा बढ़ने के साथ-साथ बारिष भी तेज होती गई। उसी बारिष में कुछ मुसाफिर सराय में आए। थोड़ी देर बाद सरायवाला कोठरी में आया। उसने कहा-“बाबा, तुम लोगों को कोठरी खाली करनी होगी। कुछ मुसाफिर अभी-अभी आए हैं। सराय में कमरे खाली नहीं हैं।”
    “लेकिन...” बूढ़ा कहने लगा।
    सरायवाला बोला-“मैं जानता हूंँ, तुम्हारी तबीयत खराब है, लेकिन हमें भी तो सराय को चलाना है। आखिर हम किराया देकर ठहरने वाले मुसाफिरों को तो वापस जाने के लिए नहीं कह सकते।”
    बूढ़े ने इसके बाद कुछ नहीं कहा, अपनी पोटली उठाकर कोठरी से बाहर आ गया। अमर ने सेठ की दी हुई टोकरी उठा रखी थी। उसमें अब भी कुछ फल बचे हुए थे। बाहर आते ही पानी की तेज बौछार ने दोनोें को भिगो दिया। सरायवाले ने कहा-“बाबा, तुम दोनों सराय के दरवाजे पास सो जाना। वहाँ चारपाई वगैरह तो नहीं है, पर ऊपर छत है, इसलिए बारिष से बच जाओगे।”
    बाँसुरी बाबा ने सराय के बड़े दरवाजे के पास जमीन पर पोटली रख दी और लेट गया। जमीन ठंडी थी। हवा का झोंका आता तो पानी की बौछार दोनों को भिगो देती। बाँसुरी बाबा का षरीर काँपने लगा। उसे सर्दी लग रही थी। अमर ने हाथ छूकर देखा, बूढ़े का बदन खूब गरम था।
    “बाबा, तुम्हें तो तेज बुखार है।” अमर बोला।
    बाँसुरी बाबा के होंठों पर हँसी दिखाई दी। बोला-“हाँ है तो सही, पर क्या किया जाए।” और उसने आँखें बन्द कर लीं।
    अमर आँगन में देखता रहा। खूब तेजी से पानी पड़ रहा था। धीरे-धीरे कमरों में जलती रोषनियाँ बुझने लगीं। कुछ देर बाद सब तरफ अँधेरा छा गया। बस, दरवाजे के पास लटकी एक लालटेन जलती रह गई। उसकी चिमनी पर कालिख जमी थी-इसलिए रोषनी बहुत हल्की थी। एक कीड़ा तेजी से लालटेन के चारों ओर मँडरा रहा था। रह-रहकर वह षीषे से टकराता। चट् की हल्की आवाज होती।
    एकाएक कानों में आवाज चुभी-“छोकरे! सो गया क्या?”
    अब अमर को पता चला कि वह सचमुच सो गया था, न जाने कब नींद आ गई थी। दरवाजे के पास लटकती लालटेन लगभग बुझ चुकी थी।
    तभी बाँसुरी बाबा ने फिर पुकारा-“छोकरे, बेटा।”
    “हाँ, बाबा।” कहता हुआ अमर बूढ़े के निकट खिसक गया।
    बूढ़े ने उसका हाथ पकड़ा तो अमर को बहुत गरम लगा। बूढ़े को तेज बुखार था।
    “क्या बात है बाबा।” जवाब में अमर के कानों में रोने की आवाज आई। अरे! बाँसुरी बाबा तो रो रहा था। न जाने क्या बात थी! “बाबा, रोते क्यों हो, क्या चाहिए?” उसने घबराए स्वर में कहा।
    “कुछ नहीं। मैं अब बचँूगा नहीं। लगता है मौत अपने पास बुला रही है।”
    “बाबा, ऐसे मत कहो, मुझे डर लगता है।” अमर ने काँपते स्वर में कहा।
    “मैं तेरे से माफी माँगना चाहता हूँ। बोल, माफ कर देगा।” बाँसुरी बाबा बोला।
    अमर चुप रहा।
    बूढ़ा कह रहा था-“बेटा, मैंने तुझे बहुत परेषान किया, न जाने कहाँ-कहाँ भटकाया। तेरे से भीख मँगवाई। तूने कभी षिकायत नहीं की। तूने मेरी हर बात मानी, पर मैं अच्छा आदमी नहीं हूँ। मैंने तेरे से झूठ कहा था। मैं तेेरे पिता से कभी नहीं मिला। मैंने उन्हें कभी नहीं देखा। मैं तुझे तेरे पिता के पास नहीं ले जा सकता।”
    “बाबा।” अमर चीख उठा। उसका सिर चकरा उठा, बदन काँपने लगा जैसे सब कुछ गोल-गोल घूम रहा था। क्या बाबा सच कह रहा है। वह सच में नहीं जानता कि मेरे पिता कहाँ हैं! उसे एकाएक बहुत तेज गुस्सा आ गया। वह उठा और बाँसुरी बाबा की छाती पर मुक्के बरसाने लगा “झूठा....झूठा......झूठा, बोलो तुमने झूठ क्यों कहा।”
    बाँसुरी बाबा ने उसके हाथ नहीं रोके। उसके छोटे-छोटे मुक्कों की मार सहता रहा। फिर बोला-“बेटा, मैं ठहरा बूढ़ा आदमी। अब ठीक से चला नहीं जाता। सोचा था तू मेरे साथ रहेगा तो मुझे आराम रहेगा। रात को ठीक से दिखता भी नहीं, इसलिए झूठ बोला था बेटा। लेकिन अब झूठ नहीं बोलूँगा। तुझे सच बताकर ही चैन मिलेगा। मैंने तेरे से झूठ बोला था।” और पीछे गिरकर हाँफने लगा।
    अमर उठकर आँगन की तरफ चला आया। बारिष की तेजी पहले से कम जरूर हो गई थी, पर बूँंदें अब भी गिर रही थीं। आँगन के दाएँ कोने से मेंढ़कों की टर्र-टर्र सुनाई दी-अमर का मन हुआ कि अब यहाँ रहना ठीक नहीं.... तुरन्त चल देना चाहिए....“मैं माँ के पास  जाऊँगा।  माँ...” उसके  होठों  से
निकला। वह बारिष में भीगता खड़ा रहा।
     कुछ देर बाद पीछे लौटा तो देखा बूढ़ा जमीन पर चुप लेटा था-एकदम खामोष। उसी समय सराय के एक कमरे से कोई निकला और दरवाजा खोलकर सराय से बाहर चला गया। अमर की नजर दरवाजे से बाहर गई-घुप्प अँधेरा। बस, दूर एक बत्ती चमक रही थी। उसने एक बार चुप पड़े बाँसुरी बाबा की ओर देखा फिर दौड़कर सराय से बाहर निकला। अँध्ेारी सुनसान सड़क पर भागने लगा। भागता चला गया। बारिष रुक चुकी थी। एक बादल के पीछे से चाँद झाँक रहा था। अमर कींचड़ में छप-छप करता हुआ भागा जा रहा था। कहाँ, किधर यह उसे पता नहीं था।
    न जाने कितनी देर तक दौड़ता रहा अमर। फिर उसके कदम धीमे हो गए। एकाएक कानों में कहीं से बाँसुरी की आवाज आई। वह रुका और मुड़कर देखने लगा। पीछे काफी दूर सराय की इमारत में हल्की रोषनी दिखाई दे रही थी। अमर के कदम रुक गए। वह वहीं सड़क के किनारे बैठ गया। उसने चेहरा हाथों में छिपा लिया। जोर से रो पड़ा। उसकी समझ मंे नहीं आ रहा था कि क्या करे। कई चेहरे एकसाथ आँखों के सामने तैरने लगे। कानों में तरह-तरह की आवाजें गूँजने लगीं। कभी माँ दिखाई देती थी तो कभी रोहू की दादी हाथ में लालटेन लिए नजर आती, फिर आवाज सुनाई देती-‘बेटा अमर, तुम आते क्यों नहीं। मैं तुम्हारी राह देख रहा हूँ।’ बाँसुरी की आवाज कानों में गूँज रही थी....
    अमर सराय की दिषा में देखने लगा। अब आवाज आनी बन्द हो गई। वह उठा और सराय की ओर लौट चला.... मन ही मन कह रहा था-‘बाँसुरी बाबा ने मुझसे सच कहा है, तो मैं भी उसे साफ-साफ बता दूँगा कि अब उसके साथ नहीं रहूँगा। हाँ, नहीं रहूँगा। पर एक बार कहँूगा जरूर।”
    थोड़ी देर बाद अमर सराय के पास जा पहुँचा। सराय का दरवाजा खुला हुआ था। अन्दर रोषनी हो रही थी। दरवाजे में घुसते ही उसने देखा-सामने कई लोग खड़े थे, वे धीरे-धीरे आपस में बातें कर रहे थे।
    “बाबा।” अमर ने पुकारा।
    तभी सरायवाले ने बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया। उसे अन्दर की तरफ ले जाता हुआ बोला-“तेरा बाबा अब नहीं है, चल बसा.... तू कहाँ चला गया था.... कोई आवाज सुनकर हम आए तो उसे मरा हुआ देखा।”   
    लेकिन अमर ने जैसे कुछ नहीं सुना। धरती घूम गई। उसके पैर काँपने लगे। आँखें मुँद गईं, वह बेहोष होकर गिर पड़ा।
8.    वे दोनों आए

सरायवाला बहुत परेषान था। पहले बूढ़े बाँसुरी वाले को लेकर दिक्कत हुई थी। पुलिस आई थी। तरह-तरह के सवाल किए थे-पुलिस को लगता था, षायद बूढ़े को किसी ने मार दिया था, क्योंकि उसके बदन पर घाव थे, पट्टियाँ बँधी थीं। सराय में टिकनेवाले मुसाफिरों से सवाल-जवाब किए गए थे। आखिर पुलिस बूढ़े की लाष को ले गई थी। सरकारी खर्च से उसका दाह-संस्कार कर दिया गया था।
    बूढ़े के बाद अमर की पेरषानी थी। वह आधी बेहोषी की हालत में सराय के एक कमरे में पड़ा था। थोड़ी-थोड़ी देर बाद एक डाॅक्टर उसे दवा देता था। जिस दिन अमर बेहोष हुआ था, उससे अगले रोज डाॅक्टर रायजादा सराय में आए थे। कोई व्यक्ति एकाएक बीमार हो गया था। उसी को देखने आए थे डाॅक्टर। तब सरायवाले ने अमर के बारे मंे बताया था। डाॅक्टर रायजादा अमर को यों अकेला देखकर हैरान रह गए थे। उन्होंने सरायवाले से पूछा था। उसने परेषान स्वर में कहा था-“हम तो खूब चक्कर में फंस गए डाॅक्टर साहब। न जाने वह बूढ़ा भिखारी कहाँ से आ गया था सराय में। यह लड़का उसी के साथ था। देखने से किसी भले घर का लगता है। कह नहीं सकता कि उस बूढ़े के चंगुल में केसे फँस गया। षायद इसे बहला-फुसलाकर घर से भगा लाया होगा वह बदमाष बूढ़ा। 
    “हाँ, ऐसा हो सकता है।” डाॅक्टर रायजादा ने अमर की नाड़ी देखते हुए कहा। फिर बोले-“बच्चा काफी बीमार है। यह पता नहीं कि इसका घर-द्वार कहाँ है?”   
    “कौन जाने साहब! और हम इस चक्कर में क्यों पड़ें। आप इसे किसी तरह ठीक कर दीजिए तो हमारी जान बचे। मैं तो उस रात इन लोगों को सराय में जगह देकर पछता रहा हूँ। वरना यह सब क्यों होता। यह ठीक हो जाए और अपना रास्ता ले। मैं बस यही चाहता हूँ।”
    डाॅक्टर रायजादा सरायवाले की ओर देखकर धीरे से हँसे, फिर कहा-“यह बच्चा काफी बीमार है। अगर आप इसे यहाँ नहीं रखना चाहते तो अस्पताल में दाखिल करा दीजिए।”
    “नहीं, नहीं, अस्पतालवाले न जाने क्या-क्या पूछताछ करेंगे।” सरायवाला घबराहट भरी आवाज में बोला-“बस, आप इतना कर दीजिए कि इसका बुखार उतर जाए और थोड़ा चलने-फिरने लगे। फिर मैं इसे यहां से जाने को कह दूंगा। चाहे जहां जाए, मेरी बला से।” डाॅक्टर ने अमर को दवा दी और किसी सोच-विचार में डूबे हुए वहाँ से चल दिए। उन्होंने सरायवाले की किसी बात का उत्तर नहीं दिया। न उन्होंने पैसे माँगे, न सरायवाले ने दिए।
     कोठरी से बाहर निकलते-निकलते डाॅक्टर रायजादा दरवाजे पर ठिठक गए। एकटक चारपाई पर लेटे अमर की ओर देखते रहे। उसकी आँखें बन्द थीं, चेहरा पीला पड़ा हुआ था। वह आधी बेेहोषी की हालत में था। डाॅक्टर रायजादा जानते थे कि बच्चे की तबीयत काफी खराब है। उसे निरन्तर देखभाल की जरूरत है। लेकिन सरायवाले से बात करने के बाद उनका मन कुछ परेषान हो उठा।
    डाॅक्टर रायाजादा वहाँ से सीधे अपने दवाखाने चले गए। काफी मरीज जमा थे। षहर में डाॅक्टर का बड़ा नाम था। यों उनका पूरा नाम आषुतोश रायजादा था, पर लोग उन्हें डाॅक्टर रायजादा के नाम से जानते थे। डाॅक्टर रायजादा एक के बाद दूसरा मरीज देखते रहे, पर उनका चित्त कुछ विचलित था। वह रह-रहकर सराय की कोठरी में पड़े उस बच्चे के बारे में सोचने लगते।
    मरीजों की भीड़ कम हुई। डाॅक्टर साहब उठकर घर की तरफ चल दिए। षहर की एक अच्छी बस्ती में उनका षानदार बँगला था। वहाँ अपनी पत्नी अचला और बेटी रचना के साथ रहते थे।
    घर जाकर डाॅ0 रायजादा चुपचाप कुर्सी पर बैठ गए। हर रोज दवाखाने से लौटने पर वह रचना से कुछ देर जरूर हँसी-मजाक करते, पत्नी से बातें करते, पर आज ऐसा कुछ न हुआ। वह चुपचाप बैठे रहे। रचना उछलती हुई डाॅक्टर के पास आई, उसने धीरे से पुकारा-“पापा।” पर पिता रायजादा अपने ध्यान में इस तरह खोए हुये थे कि उन्होंने अपनी प्यारी बेटी की आवाज न सुनी। रचना कुछ देर कुर्सी के पास खड़ी चुपचाप उनकी ओर देखती रही, फिर माँ के पास चली गई।
    दूसरे कमरे में खड़ी अचला ने भी यह सब देखा था। वह जान गई कि डाॅक्टर साहब किसी बात को लेकर ज्यादा परेषान हैं। आमतौर पर ऐसा तभी होता था, जब डाॅक्टर साहब का कोई मरीज ज्यादा बीमार होता और उनके इलाज से रोगी को कोई फायदा न हो रहा होता।
    अचला ने पास जाकर कहा-“क्या बात है, तबीयत कुछ खराब है? रचना आपके पास खड़ी रहकर चली गई, पर आपने उसकी तरफ देखा तक नहीं। उसके पुकारने पर भी नहीं बोले।”
    डाॅक्टर रायजादा ने पत्नी की ओर देखा, फिर गम्भीर स्वर में  बोले- “कुछ  ऐसी  बात  है।
उससे मन परेषान हो उठा। समझ में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए।”
    डाॅक्टर बताने लगे-“सराय में एक बच्चा बीमार पड़ा है। वह अकेला है।” “अकेला बच्चा! क्या उसके साथ कोई नहीं है?”-अचला ने उत्सुक स्वर में पूछा।
    “सराय वाला कहता है, उस बच्चे के साथ एक बूढ़ा भिखारी था। वह बाँसुरी बजाकर भीख माँगा करता था। कल रात उनकी मृत्यु हो गई। तभी से वह बच्चा बीमार है। एकदम बेसुध पड़ा है। बहुत कमजोर हो गया है।” पति की बात सुनकर अचला का चेहरा भी गम्भीर हो गया। वह जानती थी कि उसके पति का मन बहुत कोमल है। वह किसी को दुखी नहीं देख सकते। बहुत से गरीब रोगी डाॅक्टर साहब से मुफ्त दवा ले जाते थे। डाॅक्टर उन लोगों से कभी एक पैसा नहीं लेते थे और लगातार दवाई देते रहते थे।
    अचला ने कहा-“तो इसमें परेषानी की क्या बात है। आपने उसे दवा दी है तो ठीक हो जाएगा।”
“लेकिन मैं उसे ज्यादा समय तक दवा नहीं दे सकूँगा।” डाॅक्टर रायजादा ने कहा “और फिर उस अनाथ बच्चे का क्या होगा, यह कहना मुष्किल है। हमें गाँव जाना है।”   
अब अचला एकदम समझ गई कि उसके पति क्यों इतना परेषान थे। चार दिन बाद गाँव में डाॅक्टर आषुतोश की बहन की षादी थी। डाॅक्टर साहब को पत्नी और बेटी के साथ कल ही गाँव के लिए चल देना था। यही बात उन्हें परेषान कर रही थी कि अमर का इलाज बीच में छोड़कर गाँव जाना पडे़गा।
“तो फिर?”-अचला ने पूछा।
“यही सोच रहा हूँ कि क्या किया जाए। बच्चे की तबियत अभी काफी गड़बड़ है। मैं डाॅक्टर हँू, जानता हूँ वह एक दिन में स्वस्थ नहीं हो सकता। सरायवाला उसे अब अपने यहाँ रखने को तैयार नहीं है। मेरे गाँव जाते ही वह लड़के को निकाल बाहर करेगा। एक बार भी यह नहीं सोचेगा कि उस अनाथ और बीमार बालक की मदद करनी चाहिए।”
    “हमें तो जाना ही है।” अचला ने कहा।
    “हाँ जाना ही है।” डाॅ0 रायजादा ने जैसे पत्नी की बात दोहराई। कमरे में चुप्पी छा गई। रचना एक कोने में चुप और सहमी-सहमी खड़ी थी। वह बारी-बारी से कभी माँ को देखती तो कभी
पिता को। उसके नन्हे दिमाग में यह बात नहीं आ रही थी कि आज दोनों को क्या हो गया है?
    रात को अचला ने डाॅक्टर को जगाकर कहा-“मैं उस बच्चे को देखना चाहती हूँ।”
    डाॅक्टर रायजादा ने घड़ी की ओर देखा। रात का डेढ़ बज रहा था। “इस समय!” उन्होंने आष्चर्य से कहा। “काफी रात हो रही है।”
    “हाँ, इसी समय। मुझे नींद नहीं आ रही है। हमंे देखना चाहिए कि बच्चा कैसा है? आपने कहा था न कि उस बच्चे की तबीयत काफी खराब है।” अचला ने कहा।
    “हाँ, कहा तो था।” डाॅक्टर रायजादा बोले। उन्होंने कपड़े पहने, तब तक अचला भी तैयार हो गई। रचना आराम की नींद में सो रही थी। अचला ने नौकर को जगा दिया, फिर दोनों पति-पत्नी कार में बैठकर सराय की ओर चल दिए। रास्ता सुनसान था। डाॅक्टर स्वयं कार चला रहे थे।
    सराय का बड़ा दरवाजा बन्द था। डाॅक्टर ने खटखटाकर दरवाजा खुलवाया। डाॅक्टर तथा अचला को इतनी रात गए वहाँ देखकर सरायवाला ताज्जुब करने लगा। “वह बच्चा कैसा है?” डाॅक्टर ने पूछा।
    “बच्चा, कौन बच्चा।” सरायवाला अचकचा उठा। फिर जैसे कुछ याद आया हो, बोला-“अच्छा, उस छोकरे की बात कह रहे हैं, जो बूढ़े के साथ आया था यहाँ।”
     “हाँ, हाँ, वही। कैसा है?”
    “जी, मैं देख नहीं पाया। कुछ काम था, इसलिए देखने का समय न मिला। मैंने नौकर से कह दिया था दवा वगैरह देने के लिए।” सरायवाला बोला। वह डाॅक्टर से आँखें नहीं मिला पा रहा था। इतना सुनते ही डाॅक्टर तेजी से अमर की कोठरी की तरफ बढ़ चले। पीछे-पीछे अचला भी थी।
    अमर की कोठरी में अँधेरा था और कराहने की हल्की आवाजें आ रही थीं। डाॅक्टर ने दवाओं के बैग में से टार्च निकाली। टाॅर्च की रोषनी में अमर एक टूटी चारपाई पर लेटा हुआ दिखाई दिया, उसकी आँखें बन्द थीं। पर जैसे ही चेहरे पर टाॅर्च की रोषनी पड़ी, उसने आँखें खोल दीं उसके सूखे होंठों से धीमी आवाज निकली, “ओह माँ! पिताजी, कहाँ हो?”
    अचला बढ़कर चारपाई पर अमर के पास आ बैठी। उसके माथे पर हाथ फिराने लगी। उसने कहा-“अरे, इसे तो बहुत तेज बुखार है।” डाॅक्टर अमर की कलाई पकड़े हुए थे। उन्होंने सिर हिलाया, “हाँ। लगता है, इसे दवा नहीं दी गई, कुछ खाया भी नहीं होगा।”
    तभी बाहर लालटेन की रोषनी झलकी। सरायवाला हाथ में लालटेन थामे अन्दर घुसा। “एक
बरतन में ठंडा पानी और एक कपड़ा लेकर आओ।” डाॅक्टर ने कहा। “जल्दी।” जब तक सराय वाला बरतन मंे पानी लेकर आया डाॅक्टर ने अमर को इन्जेक्षन दे दिया। अचला उसके माथे पर गीली पट्टियाँ रखने लगी। वह ध्यान से अमर के चेहरे की ओर देख रही थी, सोच रही थी-“कितना छोटा बच्चा है। न जाने इसके माँ-बाप कहाँ होंगे।”   
    अमर बीच-बीच में आँखें खोलकर अचला और डाॅक्टर की तरफ देखता, उसके होंठ हिलते, पर कोई आवाज बाहर न आती। उसकी आँखों के सामने धुँधलका सा छाया हुआ था। वह ठीक से सोच नहीं पा रहा था। जब अचला ने उसके सिर पर गीली पट्टियाँ रखीं तो उसने आँखें खोलकर देखा था। एक बार लगा कि था जैसे वह घर पर लेटा हो और माँ उसका सिर सहला रही हो, फिर माँ का चेहरा खो गया। रोहू की दादी दिखाई दी। कानों में आवाजें बार-बार गूँजती रहीं, ’बेटा....छोकरे...यहाँ आओ, मेरे पास.... मैं कब से बाट देख रहा हूँ।’
    दवा के प्रभाव से अमर को नींद आ गई। उसका बुखार कम हो गया था। अचला ने पानी की पट्टियाँ रखनी बन्द कर दी थीं और अमर के उलझे हुए बालों में उँगलियाँ फिरा रही थी। सरायवाला कोठरी के दरवाजे पर असमंजस की मुद्रा में खड़ा था।
    डाॅक्टर रायजादा ने घड़ी की ओर देखा, उन्हें अमर के पास आए हुए एक घंटा बीत चुका था। अचला ने पति की ओर देखा, फिर बोली-“इसे घर ले चलें?”
    डाॅक्टर चुपचाप अचला की ओर देख रहे थे-“बोले, “हमें तो जाना है।”
    “देखा जाएगा। पर में इतना जानती हूँ कि अगर यह बच्चा यहाँ रहा तो मर जाएगा। कितनी खराब जगह है। सराय के अन्दर इतने लोग मौजूद हैं, एक बेसहारा बीमार बच्चा तड़प रहा है, कोई उसे दो बूँद पानी तक देनेवाला नहीं।” कहते-कहते अचला के स्वर में गुस्सा झलकने लगा।
    डाॅक्टर रायजादा ने सरायवाले की ओर देखकर कहा-“हम लोग इस बच्चे को अपने घर ले जा रहे हैं।” और उन्होंने अमर को गोदी में उठा लिया। अचला ने एक हाथ में डाॅक्टर का बैग उठा लिया। सरायवाला कोठरी में रखी लालटेन उठा लाया और रास्ता दिखाने लगा। सब चुप थे।
    डाॅक्टर ने अमर को कार की पिछली सीट पर, अचला के पास आराम से लिटा दिया। स्वयं आगे जा बैठे, कार स्टार्ट की तो सरायवाला झपटकर उनके पास गया। बोला-“डाॅक्टर साहब, क्षमा करें। मैं डर गया था कि कहीं उस बूढ़े भिखारी की तरह इस बच्चे को भी कुछ न हो जाए। बूढ़े को सराय में जगह देने के कारण मैं बहुत मुसीबत में पड़ गया था। पुलिस ने काफी परेषान किया था मुझे।”   
    डाॅक्टर ने सरायवाले की किसी बात का जवाब नहीं दिया, कार स्टार्ट कर दी। उस समय तक तीन बज चुके थे। सुनसान सड़कों पर तेजी से दौड़ती हुई कार डाॅक्टर के बँगले में घुसी। नौकर रचना का हाथ पकड़े दरवाजे पर खड़ा था।
    अचला ने नौकर को आवाज दी। फिर तीनों सहारा देकर अमर को अन्दर ले गए। एक कमरे में पलंग पर उसे लिटा दिया गया। इस बीच रचना कमरे के दरवाजे पर खड़ी अचरज से यह सब देख रही थी। सोच रही थी-पापा यह किस लड़के को ले आए हैं।
    डाॅक्टर ने अमर का बुखार देखा, एक इन्जेक्षन और दिया और अमर के पलंग के पास कुर्सी डालकर बैठ गए। अचला भी वहाँ आ गई। उसने रचना को गोदी में उठा रखा था। पति से बोली-“आप जाकर सो जाइए। मैं देखती रहूँगी बच्चे को।”
    “अब बुखार कम हो गया है। चिन्ता की कोई बात नहीं है। सराय में बिना देखभाल के पड़ा था, इसीलिए यह स्थिति हो गई थी। मैं सिर्फ इसलिए बैठा हूँ कि अपने को अनजान जगह में पाकर एकाएक घबरा न उठे।”
    ‘न जाने कौन, कहाँ का है? क्या कहानी है इसकी?” अचला ने जैसे अपने से पूछा।
    “वह सब बाद में। अभी तो यह सोचना है कि आगे क्या किया जाए।”
    “मैंने सोच लिया है।” अचला बोली, “यह भी हमारे साथ गाँव चलेगा। वहाँ यह आपकी देखरेख में रहेगा और गाँव की ताजी हवा मिलेगी तो जल्दी ठीक हो जाएगा। फिर देखा जाएगा।”
    “लेकिन वहां षादी है, मेहमान जुटेंगे। न जाने कोई क्या सोच बैठे।” डाॅक्टर साहब सोच में डूबे थे।
    “सब ठीक हो जाएगा। देखभाल मैं कर लूंगी, आप दवा देंगे। क्यों।” कहते-कहते अचला के होंठों पर हंँसी आ गई। डाॅक्टर रायजादा भी मुसकरा दिए। अमर आराम से सो रहा था।




9.    ओ छोटी बाँसुरी

इतनी बातें हो गई थीं, पर अमर को कुछ पता नहीं था। हाँ, इतना जरूर मालूम था कि अब वह सराय की अँधेरी कोठरी में नहीं, आरामदेह कमरे में, नरम बिस्तर पर लेटा है।
    सुबह अचला उसे दूध और बिस्किट देने आई तो उसने कुछ पूछना चाहा, पर अचला ने कहा दिया-“अभी कोई बात नहीं करनी है। पहले तुम्हारी तबीयत ठीक हो जाए तो फिर सब बातें पूछ लेंगे।” कहकर वह अमर के बाल सहलाने लगी।
    इस बीच अमर का बदन साफ करके, उसके कपड़े बदल दिए गए थे। नौकर बाजार जाकर कई जोड़ी नए कपड़े ले आया था। उसका बुखार कम हो गया था। तबीयत पहले से ठीक थी, लेकिन डाॅक्टर जानते थे कि अगर अमर की ठीक तरह से देखभाल नहीं की गई तो उसकी तबीयत फिर बिगड़ सकती थी।        
    अचला गाँव जाने की तैयारियाँ कर रही थी। सामान बाँधा जा रहा था। कई अटैची केस, कई बड़े डिब्बे और न जाने क्या क्या....
    अमर सोच रहा था....“न जाने कौन हैं, मुझे सराय से कहाँ ले आए हैं और अब षायद यहाँ छोड़कर जा रहे हैं। तो क्या मैं इस जगह अकेला रहूँगा। रह-रहकर उसे बाँसुरी बाबा की याद आतीं उसे लगता कि अभी बाँसुरी की आवाज सुनाई देगी और बूढ़ा बाँसुरी बजाता हुआ कमरे में घुसकर उसका हाथ पकड़ लेगा। कहेगा-“छोकरे, जल्दी से चल। अपने पिता के पास नहीं जाना क्या।” पिता, माँ रोहू की दादी..... सबके चेहरे एक साथ आँखों में तैर रहे थे। ‘पता नहीं माँ कैसी होगी? कितना परेषान हो रही होगी?’ वह पछता रहा था कि उस रात माँ से बिना कहे क्यों चला आया था। ‘न जाने यह कौन सी जगह है। बूंदपुर कितनी दूर है यहाँ से। किससे पूछँ, कौन बताएगा?”
    अमर ने पलंग पर बैठने की कोषिष की तो सिर चकरा गया। वह बहुत कमजोरी महसूस कर रहा था। अगर मैं अकेला रह गया तो कैसे क्या होगा?-यही सोचकर परेषान हो रहा था।
    नौकर ने सामान निकालकर बाहर रख दिया। डाॅक्टर साहब कार में जा बैठे। कार का इंजन स्टार्ट हो गया। खिड़की से अमर को बाहर का सब दिखाई दे रहा था। तभी अचला कमरे में आई हँसकर बोली-“आओ बेटा।”
    “कहाँ?” अमर के होंठों से निकला।
    “हमारे साथ और कहाँ।” कहकर अचला ने अमर का हाथ पकड़ लिया और बाहर की तरफ ले चली। कार की पिछली सीट पर रचना हाथ में खिलौना लिए बैठी थी। अचला ने अमर को उसके पास बैठने का इषारा किया और खुद भी पास बैठ गई। डाॅक्टर साहब ने गर्दन घुमाकर अमर की तरफ देखा और मुसकरा पड़े। बोले-“सब ठीक है न।”   
    “जी।” अमर कह गया।
    “तो अब चला जाए।” कहकर डाॅक्टर साहब ने कार आगे बढ़ा दी। कुछ देर बाद उन्होंने कहा-“अचला, बच्चे को दवा दी?”
    “अभी देती हूँ। सब चीजें साथ लाई हूँ, आप कोई चिन्ता न करें।” अचला ने कहा। फिर बैग में से निकालकर अमर को दवा दी। कार बढ़ती जा रही थी। सड़क के दोनों ओर खड़े पेड़ तेजी से पीछे की तरफ खिसकते जा रहे थे। अमर कार के षीषे में से सामने देखता रहा। वह सोच रहा था-न कुछ पूछा, न कुछ बताया, पता नहीं अपने साथ कहाँ ले जा रहे हैं। पर जो कुछ भी था, वह पहले से आराम महसूस कर रहा था। बुखार नहीं था, बदन हल्का महसूस हो रहा था। कार चलने से हल्के झटके लग रहे थे,, वह पहली बार बैठा था कार में। थोड़ी देर बाद ऊँघने लगा। उसका सिर रह-रहकर एक तरफ को ढुलक जाता।
    अचला स्नेह से अमर की ओर देख रही थी। उसने एक तकिया अमर के सिर के एक तरफ लगा दिया। वह आराम से सो रहा था। कार दौड़ी जा रही थी डाॅक्टर आषुतोश रायजादा के गाँव की तरफ।
    दो घंटे बाद, एक छायादार पेड़ के नीचे डाॅक्टर साहब ने कार रोक दी। वह एक छोटा-सा बाजार था। दुकानों पर चहल-पहल थी, कई रेडियो बज रहे थे। इधर-उधर कई ट्रक और बैलगाडि़याँ खड़ी थीं। डाॅक्टर रायजादा कार से उतरकर कुछ फल खरीद लाए।
    अचला ने धीरे से अमर को जगा दिया। कहा-“अब कुछ खा-पी लो, फिर तुम्हें दवा लेनी है।” अमर इधर-उधर देखने लगा। उसने चुपचाप अचला के हाथ से दूध का गिलास पकड़ लिया, कुछ बिस्किट खाए, फिर दवा ले ली। वह देखता रहा, डाॅक्टर साहब और अचला कार के बाहर खड़े चाय पीते हुए बातें कर रहे थे। अमर के पास ही रचना हाथ में गुडि़या थामे हुए सो गई थी। अमर तकिए पर सिर टिकाए अनमने भाव से सामने देखता रहा। उसे रोहू का गाँव याद आ रहा था। वहाँ
भी तो ऐसा ही पेड़ था जिसके नीचे वह और बाँसुरी बाबा जाकर बैठे थे। हाँ, यहाँ चबूतरा नहीं  था,
न ही कोई बस्ती थी।
    तभी एक मीठी धुन गूँज उठी। एक गुब्बारे बेचने वाला बाँसुरी बजाता हुआ सामने से आया और कार के पास पेड़ के नीचे बैठ गया। अमर सीधा बैठ गया और ध्यान से गुब्बारे वाले की ओर देखने लगा। उसने एक लम्बे बाँस पर रंग-बिरंगे गुब्बारे बाँध रखे थे। गुब्बारे हवा में लहरा रहे थे। उनके साथ ही धागों से बँधी कुछ बाँसुरियाँ और दूसरे खिलौने झूल रहे थे।
    बाँसुरी की आवाज से अमर का मन बैचेन हो उठा। उसकी उँगलियाँ जैसे मचलने लगीं। उसे अपनी छोटी सी बाँसुरी याद आई, जो पता नहीं कहाँ खो गई थी। एकाएक उसने गुब्बारे वाले को इषारा किया, फिर पुकार उठा, “ऐ भाई।”
    उसकी आवाज सुनकर गुब्बारेवाला दौड़ा हुआ आया, “हाँ बाबू। क्या लेगा?”
    अमर चुप हो गया। उसने पुकारना तो नहीं चाहा था, कुछ लेना भी नहीं था, फिर भी न जाने कैसे होंठों से आप से आप आवाज निकल गई थी।
    उसने लज्ज्ति होकर सिर झुका लिया, पर डाॅक्टर साहब ने यह सब देख लिया था। वह तुरन्त वहां आए। प्यार से बोले-“क्या लेना है?”
    “जी.... जी.... कुछ नहीं।” अमर ने संकोच से कहा।
    “जो चाहिए ले लो। बताओ।” डाॅक्टर साहब पूछ रहे थे।
    “मेरे पास एक बाँसुरी थी.... षायद वह कहीं खो गई।”
    इतना सुनते ही डाॅक्टर रायजादा ने गुब्बारेवाले से एक बाँसुरी लेकर अमर को थमा दी। बोले-“और जो चाहिए बता दो, संकोच न करो।”
    “जी,बस.... और कुछ नहीं चाहिए।” अमर कसी तरह कह गया।
    थोड़ी देर बाद कार फिर चल दी। अमर बाँसुरी हाथ में लिए बैठा था। अब पीछे की सीट पर सिर्फ वह और रचना थे। अचला भी डाॅक्टर साहब के साथ आगे जा बैठी थी। रह-रहकर अमर बाँसुरी होंठों से लगाता और फिर हटा लेता, फिर धीरे-धीरे वह बाँसुरी बजाने लगा। षुरू-षुरू में सुर सध नहीं रहा था, उसकी उँगलियां काँप रही थीं। फिर एक मीठी धुन कार में गूँजने लगी। डाॅक्टर रायजादा ने कार चलाते-चलाते अचला की ओर देखा। दोनों की आँखंे मिलीं तो वे मुसकरा दिए। फिर डाॅक्टर ने होंठों पर उँगली रखकर चुप रहने का इषारा किया। वह चाहते थे  कि  अमर
को छेड़ा न जाए।
    अमर आँखें मूंदे बाँसुरी बजाता रहा। कार में मीठी धुन बिखरती-गूँजती रही। रचना उसी तरह गुडि़या को हाथ में लिए सो रही थी। कुछ देर बाद अमर ने बाँसुरी बजाना बंद कर दिया। अब डाॅक्टर साहब बोल उठे-“बहुत खूब। मुझे पता नहीं था, तुम इतनी अच्छी बाँसुरी बजाते हो। तुम तो कलाकार हो।” इतनी अच्छी बाँसुरी तो मैंने कभी नहीं सुनी।” अचला मुसकराती हुई अमर की ओर देखने लगी। अमर के होंठों पर मुसकान आ गई। बोला-“बाँसुरी बाबा ने सिखाई थी मुझे। वह बहुत अच्छी बाँसुरी बजाते थे।”
    “बाँसुरी बाबा। यह कैसा नाम है!” अचला ने कहा।
    “सब उन्हें इसी नाम से पुकारते थे।” अमर बोला। उसे ख्याल आ रहा था, उस रात जब वह सराय में लौटा था, उसके बाद बाँसुरी बाबा वहाँ नहीं दिखाई दिया था। अमर को अब याद नहीं था कि बाँसुरी वाला बूढ़ा मर चुका था। यह बात डाॅक्टर और अचला दोनों ने ही छिपाई थी उससे। हालाँकि बेहोष होने से पहले सरायवाले ने भी यही बताया था उसे।
    उसके बाद अचला फिर अमर के पास जा बैठी और धीरे-धीरे उसके बारे में सवाल करने लगी। अमर एक के बाद दूसरी बात बताता गया। षुरू से लेकर आखिर तक सब कुछ। पिता की खोज में घर से निकलने से लेकर सराय में आने तक।
    अचला ध्यान से सुन रही थी। कार चलाते हुए डाॅक्टर रायजादा भी सुन रहे थे, पर दोनों चुप रहे। अमर की कहानी ने दोनों को चैंका दिया था। कार चलती रही। दिन में दो बार डाॅक्टर ने अमर का बुखार देखा, दवा दी। अब उसकी तबीयत ठीक हो रही थी। डाॅक्टर जानते थे कि अगर वे अमर को अपने साथ लेकर न आते, तो उसकी दषा बिगड़ सकती थी। बिना देखभाल के वह मर भी सकता था। उन्हें खुषी थी कि उस अकेले बच्चे के बारे में उनका निर्णय ठीक था।
    षाम ढल रही थी-सड़क पर अँधेरा हो रहा था-तब डाॅक्टर की कार अपने गाँव कनसारा मंे पहुँची। कनसारा एक छोटा-सा गाँव था। नदी किनारे बसा था। कार गाँव की धूल भरी सड़क पर चली तो सब तरफ षोर मच गया-“डाॅक्टर आ गए। डाॅक्टर भैया आ गए।” कनसारा के निवासी डाॅक्टर रायजादा की कार को खूब पहचानते थे। डाॅक्टर कार से ही गाँव आया-जाया करते थे।     गाँव के बीचों-बीच डाॅक्टर रायजादा के पिता का पक्का और बड़ा मकान था। गाँव से थोड़ा आगे नदी किनारे की जमीन पर उनके खेत थे। वह बड़े और सम्पन्न किसान थे।  कार  हवेली  के
दरवाजे पर रुकी तो वहाँ काफी भीड़ जमा थी। वहाँ डाॅक्टर के माँ-बाप, परिवार के दूसरे लोग तथा
षादी में आए मेहमान थे।
    अचला ने सहारा देकर अमर को उतारा तो सब लोग उसकी ओर देखने लगे। अमर ने आँखें उठाकर इधर-उधर देखा, फिर नजरें झुका लीं। सबकी आँखें उसी पर टिकी थीं। सब एक ही बात सोच रहे थे-यह किसे ले आए डाॅक्टर। षायद घरेलू नौकर होगा। पर जिस तरह अचला अमर को सहारा देकर हवेली में ले गई उससे तो ऐसा नहीं लगता था। घर में अमर को लेकर चर्चा षुरू हुई।
    डाॅक्टर ने किसी की बात का जवाब नहीं दिया। सबसे पहले उन्होंने एक कमरे में अमर का बिस्तर लगावा दिया। उसे लेटने को कहा। बोले-“अमर, तुम सफर से थक गए होंगे, थोड़ी देर आराम कर लो। कल यहाँ मेरी बहन की षादी है। षादी के बाद तुमसे बात करूँगा। मैंने तुम्हारी पूरी बात समझ ली है। तुम जहाँ कहोगे वहाँ पहुँचा देंगे।” कहकर डाॅक्टर कमरे से बाहर चले गए।
    पलंग के पास खिड़की थी। उससे हवेली का आँगन दिखाई देता था। आँगन में खूब रोषनी थी। रंग-बिरंगे कपड़े पहने कई औरतें वहाँ बैठी थीं। उनमें अचला भी नजर आई। फिर उसने अचला को एक तरफ जाते देखा। कुछ देर बाद अचला दूध और दवा लेकर अमर के पास आई। अमर ने दवा ले ली, फिर बोला-“क्या आप मुझे माँ के पास ले जाएँगी?”   
    “हाँ हाँ, क्यों नहीं। जरूर ले जाएंगे, पर अभी नहीं, पहले षादी का काम पूरा हो जाए। तुम्हारी तबीयत सुधर जाए, फिर चलेंगे।” थोड़ी देर अमर के पास बैठकर अचला नीचे चली गई। अमर चारपाई पर लेटा-लेटा आँगन में होती हलचल देखता रहा, सोचता रहा।
    अब उसका मन षान्त था-उसे माँ की याद आ रही थी।
   

10.    अँधेरे के पार

अगले दिन डाॅक्टर आषुतोश की बहन का विवाह था। बारात दूर से आई थी। ढेर सारे लोग, खूब रोषनी, कितनी चहल पहल।
    अचला के कहने पर अमर ने नए कपड़े पहने, फिर आँगन में पड़ी कुर्सी पर जाकर बैठ गया। वहाँ बहुत सारे मेहमान बैठे थे। सब उसकी ओर देखते हुए कुछ बातें करने लगते। अमर की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उसके बारे में क्या बातें कर रहे थे।
    तभी अचला ने कहा-“अमर बेटा, अब तुम अपने कमरे में जाकर सो जाओ, नहीं तो थकान से फिर बुखार आ जाएगा।”
    “नहीं, मैं षादी देखूँगा। अब मेरी तबीयत ठीक है।” अमर ने कहा तो अचला हंँस पड़ी। बोली-“अगर ऐसा है तो मजे से बैठो।”
    अमर सब लोगों के बीच आँगन में बैठा रहा। उसने षादी का पूरा कार्यक्रम देखा। उसे बड़ा मजा आया। डाॅक्टर साहब की बहन लाल साड़ी में सुन्दर लग रही थी और दूल्हा उसे देखकर कैसे हँस रहा था।
    विवाह का कार्यक्रम पूरा हुआ।
    उसके बाद सबने दूल्हेे से गाना सुनाने को कहा। दूल्हे ने दो गीत सुनाए, और भी कई लोगों ने गाया। अचला ने भी एक भजन सुनाया। तभी डाॅक्टर साहब ने कहा-“आप जानते हैं, यह बच्चा बहुत अच्छी बाँसुरी बजाता है।”
    सबकी नजरें अमर की तरफ मुड़ गईं। अमर षर्म से लाल हो उठा। तभी डाॅक्टर ने बाँसुरी उसकी तरफ बढ़ा दी। वह हँस रहे थे। बोले-“अमर जरा सबको बताओ तो सही कि तुम कितनी अच्छे कलाकार हो।”
    “हाँ, हाँ, अमर। बजाओ।” यह अचला की आवाज थी।
    अमर ने बाँसुरी होंठों से लगा ली और बजाने लगा। अत्यन्त मधुर सुर गूँजने लगा। सन्नाटा छा गया। सब प्रषंसा के भाव से उस छोटे से बच्चे की ओर देख रहे थे। ‘बहुत होनहार बच्चा है। आगे चलकर बहुत बड़ा कलाकार बनेगा।’ किसी ने कहा। कुछ देर बाद अमर ने बाँसुरी रख दी और आँगन तालियों से गूँज उठा। कई लोगों ने आकर अमर की पीठ थपथपा दी। अमर का  मन  खुषी
से भर उठा। वह सोच रहा था-अगर इस समय माँ होती तो कितना अच्छा लगता।
    थोड़ी देर बाद डाॅक्टर रायजादा की बहन की विदाई हुई। वह दूल्हे के साथ कार में जा बैठी। उन्हें विदा देने के लिए सब लोग गाँव से बाहर तक गए। अमर भी साथ था। कार फूलों से सजी हुई थी। आगे-आगे बैंड बज रहा था। कार के पीछे, दाएँ-बाएँ डाॅक्टर साहब के परिवार के लोग थे। महिलाएँ उदास थीं, कुछ आँचल से आँखें पोंछ रही थीं। एकाएक अमर ने महसूस किया, उसकी आँखें भी धुँधली हो गई हैं। वह रो रहा था, न जाने किसके लिए।
    सब लोग काफी देर गाँव के बाहर खड़े रहे। फिर धीरे-धीरे हवेली की तरफ लौट आए। थोड़ी देर तक सब चुपचाप बैठे रहे-अमर थकान महसूस कर रहा था। वह जाकर चारपाई पर लेट गया और आँखें बन्द कर लीं।
    तभी कमरे में कदमों की आहट सुनाई दी। अमर को लगा कोई कमरे में धीरे-धीरे चल रहा है। उसने देखा डाॅक्टर साहब थे। वह उठने लगा तो डाॅक्टर साहब ने रोक लिया। बोले-“लेटे रहो। अभी तुम्हें कुछ दिन और आराम की जरूरत है।”
    “जी, अब मैं ठीक हूँ।” अमर ने कहा।
    “देखो भई, मैं हूँ डाॅक्टर। और मैं तुम्हारे बारे में तुमसे ज्यादा जानता हूँ।” डाक्टर साहब हँसकर बोले-“तुम पहले से ठीक हो, पर इतने ठीक नहीं हो जितना तुम्हें होना चाहिए। अभी तुम्हें दवा और आराम दोनों चाहिएं, समझे।” कहकर उन्होंने धीरे-से अमर का कन्धा थपथपा दिया। फिर बोले-“तुम्हारी दवाई का समय हो रहा है। मैं दवाई लाता हूँ, उसके बाद तुम्हें आराम करना है। ताकि फिर सफर कर सको।”   
    “हम कहाँ जाएँगे, डाॅक्टर साहब?”
    डाॅक्टर रायजादा मुसकराते हुए अमर की ओर देखते रहे, बोले नहीं। उनकी बात ने अमर के मन में खलबली मचा दी। वह समझ न सका कि डाॅक्टर साहब कहाँ जाने के लिए कह रहे हैं। क्या वह पिताजी के बारे में कुछ जानते हैं, या बाँसुरी बाबा की तरह बाद में मना कर देंगे। बाँसुरी बाबा का ख्याल आते ही अमर उदास हो गया। बूढ़े के साथ बिताए गए दिन याद आने लगे। फिर रोहू का ख्याल आया। उसे साँप ने काट लिया था, पता नहीं अब कैसा होगा और बाँसुरी बाबा कहाँ चला गया भला! फिर दिखाई ही नहीं दिया। उसका मन माँ से मिलने को बचैन हो उठा। वह  सिर
झुकाए सोच में डूबा बैठा रहा गया।
     डाॅक्टर रायजादा की नजरें अमर पर गड़ी थीं। उन्हें अमर सब कुछ बता चुका था। थोडा-थोड़ा वह और अचला भी पूछते रहे थे। वह जानते थे कि इस समय अमर के मन में कैसे विचार आ रहे हैं अमर को उसी तरह बैठा छोड़कर वह दूसरे कमरे में दवाई लेने चले गए। जब दवा लेकर लौटे तब भी अमर उसी तरह बैठा हुआ था-सिर झुकाए जमीन की तर देखता हुआ।
    डाॅक्टर रायजादा ने धीरे से अमर के कन्धे पर हाथ रख दिया। प्यार भरी आवाज में बोले-“अमर, इस तरह उदास क्यों हो। लो, दवा खा लो।”
    अमर ने चैंककर डाॅक्टर की तरफ देखा और दवा ले ली। उसे डाॅक्टर और अचला बहुत पसन्द थे। अचला तो बिल्कुल माँ की तरह प्यार करती थी उसे।
    “अब लेटकर आराम करो।” डाॅक्टर ने कहा और दरवाजा बाहर से बन्द करते हुए नीचे चले गए।
    अमर लेटा-लेटा खिड़की से हवेली के आँगन में देखता रहा। इस समय वहाँ एकदम सन्नाटा था। कल रात कितनी चहल-पहल थी। कितनी रोषनी थी। उसके बाँसुरी बजाने पर सबने कैसी षाबाषी दी थी। अमर लेटा-लेटा मुसकराता रहा। उसे अच्छा लग रहा था।
    हवेली के कमरों में जलने वाला प्रकाष बुझता जा रहा था। सब सोने की तैयारी कर रहे थे।
    तभी हवेली का दरवाजा खटखटाया जाने लगा। कोई पुकार रहा था-“डाॅक्टर साहब। डाॅक्टर साहब।”
    डाॅक्टर साहब के कमरे में रोषनी हुई। अचला और डाॅक्टर साहब की आवाजें सुनाई दीं, फिर डाॅक्टर साहब आँगन में निकल आए। बाहरी दरवाजा खुला तो तीन आदमी अन्दर चले आए। 
    “क्या बात है?“ डाक्टर रायजादा ने पूछा।
    एक आदमी जल्दी-जल्दी कुछ बताने लगा। अमर ने कान लगाकर सुनना चाहा पर कुछ समझ में नहीं आया। डाॅक्टर साहब ने आवाज लगाई, “अचला, जरा मेरा बैग तो देना। मैं मरीज देखने जा रहा हूँ।”
    अचला बैग ले आई, बोली-“आधी रात हो चुकी है। सुबह ये लोग मरीज को यहाँ लाकर दिखा सकते हैं। इस समय जाना ठीक नहीं है।”
    अमर भी आँगन में आ पहुँचा। वह जानना चाहता था कि आधी रात में डाॅक्टर  साहब  कहाँ
जा रहे हैं?”
    डाॅ0 रायजादा का बैग एक आदमी ने पकड़ लिया। फिर उन्होंने अचला से कहा-“तुम जानती हो अगर रात में कोई बुलाने आता है तो मैं अवष्य जाता हूँ। यह बात हमें समझनी चाहिए कि रोगी की तबीयत ज्यादा खराब होने पर ही लोग रात में डाॅक्टर को बुलाने आते हैं।” तभी उनकी नजर अमर पर पड़ी। बोले-“अरे, तुम अभी तक जाग रहे हो? क्यों, तबीयत तो ठीक है न?”
    “जी, ठीक है।” अमर ने कहा।
    “तो जाकर सो जाओ। मैं लौटकर तुम्हें एक बात बताऊँगा।” और दरवाजे से बाहर निकल गए। अचला भी उनके पीछे गई। वे दोनों बाहर कुछ देर तक बात करते रहे। अमर भी धीरे-धीरे वहाँ जा पहुँचा। बाहर एकदम घुप्प अँधेरा था। आकाष में चाँद भी नहीं था। डाॅक्टर साहब कार मेें बैठकर चल दिए। अमर कुछ हैरान हुआ। कार का मतलब कहीं दूर जा रहे हैं। सामने अँधेरे में एक रोषनी हिलती दिखाई दी। अमर की आँखों के सामने बरान गाँव का दृष्य तैर गया। वह टीले पर पुराने मन्दिर के बाहर खड़ा है और रोहू अपनी दादी के साथ वापस जा रहा है। फिर रोहू की चीख सुनाई देती है। उसे साँप ने काट लिया था। उस दिन भी दूर से रोहू की दादी की लालटेन की रोषनी ऐसे ही हिल रही थी।
    रोहू की याद आते ही अमर को जैसे जोर का झटका लगा। वह सिहर उठा। षब्द होंठों तक आकर रुक गए। न जाने कैसा होगा रोहू? उसने अस्पताल में रोहू से मिलना चाहा था, पर बाँसुरी बाबा ने जाने नहीं दिया था। पता नहीं फिर क्या हुआ?
    बाँसुरी बाबा का ध्यान आया, जो उसे पिता के पास ले जा रहा था, लेकिन फिर कानों में स्वर आया-‘अमर! अमर बेटा, कहाँ चला गया तू?’ और अमर की आँखें आँसुओं से भर उठीं। उसने अपने को रोकने का प्रयास किया, पर आँसू थे कि बहे चले आ रहे थे।
    कन्धे पर किसी ने छुआ तो वह हड़बड़ा गया। देखा अचला है। अमर का हाथ थामकर वह अन्दर ले गई। अमर नेे मौका पाकर झट से आँसू पोंछ लिए। अगर अँधेरा न होता तो....और फिर नींद आ गई।
    अमर की नींद टूटी तो दिन का उजाला पसरने लगा था। उसने देखा अचला हवेली के बड़े दरवाजे पर खड़ी थी। “तो क्या डाॅक्टर साहब नहीं लौटे?” वह भागता हुआ अचला के पास जा खड़ा हुआ। तभी सामने से डाॅक्टर साहब की कार आती दिखार्द दी।
    “आ गए।” अचला ने कहा।
    कार हवेली के दरवाजे पर आकर रुकी पर उसमें से एक अजनबी बाहर निकला। डाॅक्टर साहब नहीं आए थे। वह अजनबी अचला से कुछ देर बातें करता रहा। दोनों इतने धीमे स्वर में बोल रहे थे कि अमर नहीं सुन पाया।
    उसने पूछा तो अचला ने कहा-“डाॅक्टर साहब की अपनी तबीयत कुछ ठीक नहीं है। मुझे वहा बुलाया है?”
    “क्या हुआ?”
    अचला के होंठों पर मुसकान आ गई। अमर का हाथ थामकर बोली-“घबराने की कोई बात नहीं है।” अमर कुछ और पूछ पाता, इससे पहले ही अचला ने कह दिया-“तुम्हें भी मेरे साथ चलना है।”
    अमर के मन में एक लहर-सी उठी। बोला-“मैं!” जैसे विष्वास नहीं हो रहा था।
    “हाँ....झटपट तैयार हो जाओ, तब तक मैं भी.....” कहती हुई अचला अन्दर चली गई।
    कुछ देर बात दोनों कार में बैठ गए। सूनी सड़क पर कार तेजी से दौड़ने लगी। थोड़ा आगे घूमकर सड़क नदी के साथ-साथ बनी हुई थी। सुबह के धँुधले उजाले में वातावरण चुप था। हर पेड़-पौधा गीलेपन की चादर से ढँका था। अमर खिड़की के षीषे से बाहर देख रहा था। नदी के ऊपर कुहरे की परत छाई थी। उसने नदी के पार देखना चाहा, पर आँखें कुहरे की चादर को भेद न सकीं। कार दौड़ी जा रही थी।

11.    उन्होंने बुलाया

झटके से अमर की नींद टूट गई। कार रुक गई थी। उसने बाहर देखा धूप निकल गई थी। कार एक पेड़ के नीचे खड़ी थी। बहुत सारे बच्चे कार को घेरकर षोर कर रहे थे। वह बाहर निकला-नजर घुमाकर देखा ऊँचा, घना वट वृक्ष। डालियों से लटकती लम्बी पतली षाखाएँ-कुछ जमीन को छूती हुई। वह कुछ सोचता खड़ा रहा। फिर सब याद आ गया।
    बरान गाँव....रोहू....हाँ, बाँसुरी बाबा के साथ आकर पेड़ के नीचे इसी चबूतरे पर तो बैठा था वह। तो क्या फिर से रोहू के गाँव आ पहुँचे हैं। अचला दिलचस्पी से अमर की ओर देख रही थी। दोनों की नजरें मिलीं तो वह हँस पड़ी। बोली-“हैरान क्यों हो?”
    ‘बरान गाँव, रोहू....बरगद.....’ अमर जैसे अपने से बात कर रहा था।
    “हाँ, बरान गाँव, तुम्हारे दोस्त रोहू का घर। उससे मिलोगे नहीं?”
    “रोहू.... कहाँ है वह कैसा है?”-अमर ने जल्दी से कहा और इधर-उधर देखने लगा।
    “आओ, रोहू के पास चलें।” अचला ने कहा। तभी डाॅक्टर साहब की आवाज कानों में पड़ी-“आ गए अमर।”   
    “डाॅक्टर साहब। आपकी तबीयत...”
    “मैं बिल्कुल ठीक हूँ अमर.... जानते हो डाॅक्टर कभी बीमार नहीं होता। अगर वह बीमार हो जाएगा तो रोगी कैसे स्वस्थ होंगे!” कहकर डाक्टर हँस पडे़।
    डाॅक्टर साहब और अचला के साथ अमर बरान गाँव की गली में बढ़ चला। हवा में धुआं मँडरा रहा था। तभी एक दरवाजे पर उसने रोहू की दादी को खड़े देखा। अमर को देखकर वह भी आगे चली आई। उसे अपने से लिपटा लिया। बालों में हाथ फेरती हुई बोली-“आ गया।“
    “हाँ, अम्माँ, रोहू कैसा है। ठीक तो है न!.... साँप ने काटा था न उसे।”
    “हाँ, वह ठीक है। इधर कुछ दिनों से बीमार था, पर अब ठीक है। डाॅक्टर साहब उसे दवा दे रहे हैं।” डाॅक्टर साहब रोहू को दवा दे रहे हैं-अमर ने अचरज से डाॅक्टर रायजादा की ओर देखा। वह धीरे-धीरे मुसकरा रहे थे। बोले-“पहले तुम्हंे ठीक किया था, अब रोहू की बारी है। वह एकदम ठीक है। आओ, अपने दोस्त से मिलो।” कहते हुए डाॅ0 रायजादा उसे एक कोठरी में ले गए।
दीवार से सटी चारपाई पर रोहू लेटा था।
    “रोहू!” अमर के होंठों से निकला और फिर दोनों ने एक-दूसरे का हाथ थाम लिया। “कैसे हो रोहू?” अमर ने पूछा और फिर ध्यान आया-‘अरे, रोहू तो बोल ही नहीं सकता। जवाब कैसे देगा।
    रोहू ने अमर को अपने पास बैठा लिया। वह मुसकरा रहा था। उसकी उँगलियाँ अमर की हथेली पर रेखाएँ खींच रही थीं-जैसे वह लिख रहा हो-‘मेरे दोस्त, मैं ठीक हूँ...तुम कैसे हो?
    फिर एक आवाज उभरी-“अमर....अमर बेटा....” अमर किसी चाबी भरे खिलौने की तरह घूम गया। सामने माँ खड़ी मुसकरा रही थी।
    “माँ....” अमर चीखा और जोर से रो पड़ा। छोटी-सी कोठरी में उसके रोने की आवाज बिखरने लगी। रोहू अपलक उसे और कुसुम को ताक रहा था। कोठरी में और कोई नहीं था।
    सिसकियों के बीच अमर के थरथराते होंठों से बस एक ही षब्द बार-बार निकल रहा था-“माँ....माँ....”
    कुसुम झुककर बैठ गई और उसका आँसू-भीगा चेहरा चूमने लगी। बीच-बीच में कह रही थी-“मेरा बच्चा... मेरा बेटा.....मेरा बच्चा.... मुझे बिना बताए घर से क्यों चला गया था। सोचा नहीं, माँ का क्या होगा। वह जिन्दा कैसे रहेगी....” कहती-कहती कुसुम जोर से रो पड़ी। वह अपने को रोक नहीं पा रही थी.... और अब कोठरी में कुसुम की सिसकियाँ गूँज रही थीं। अमर उसे चुप कराने लगा। उसके आँसू पोंछता जाता और कहता.....“माँ.... मेरी अच्छी माँ.... मैं कहीं नहीं जाऊँगा।” फिर पूछा बैठा.... “माँ, मेरे पीछे से पिताजी आए?”
     कुसुम की सिसकियाँ थम गईं। उसने कुछ कहा नहीं.... वह एक हाथ से उसका सिर सहला रही थी और दूसरे से उसे अपने से जैसे चिपका लिया था। तभी डाॅक्टर साहब अन्दर चले आए। बोले-“अमर.... मैं तुमसे यही कहना चाहता था। असल में मैंने तुम्हारी माँ और रोहू को अपने गाँव में बुलाया था। मैं वहीं तुम्हें मिलवाना चाहता था, पर पता चला कि रोहू बीमार है, इसीलिए मैं रात को यहाँ चला आया था। उसके बाद तो तुम जानते ही हो।” अमर ने अचला की ओर देखा। वह मुसकरा रही थी। बोली-“अमर, मुझे पता था कि हम कहाँ और किसलिए जा रहे हैं, पर डाॅक्टर साहब ने मना कर दिया था कि बरान गाँव पहुँचने से पहले तुम्हें कुछ न बताऊँ।”   
    अमर ने षिकायत वाली नजरों से डाॅक्टर रायजादा की ओर देखा तो वह बोले-“अमर बेटा, तुमने अपनी बीमारी के दौरान मुझे सब कुछ बता दिया था। मैं बाँसुरीवाले बूढ़े के मरने के बाद तुम्हें अपने साथ ले गया था। फिर मैंने सराय में जाकर पूछा तो धीरे-धीरे पूरी बात पता चली  थी- मैंने
अस्पताल मे जाकर रोहू को भी देखा था।”
    कोठरी में सब मौजूद थे, पर कोई कुछ नहीं बोल रहा था। केवल डाॅक्टर रायजादा की आवाज गूँज रही थी-“अमर, तुमने अपनी बेहोषी में बूंदपुर का नाक कई बार लिया था। मैं समझ गया कि तुम्हारा रहस्य जानने के लिए मुझे बूंदपुर जाना होगा। तुम्हारा बूंदपुर छोटा-सा कस्बा है। वहाँ मुझे कई लोग जानते भी हैं। वहाँ जाकर पता लगाना कठिन नहीं था। तुम्हारी माँ तुम्हारे चले जाने से कितनी परेषान थी, इसे भी लोग जानते थे। मैं इनसे मिला। इन्हें पूरी बात बता दी। यह तो उसी समय आकर तुमसे मिलना चाहती थीं, पर मैं जानता था, तुम्हारी समस्या का हल खोज लूँ। मैं तुम्हें तुरन्त बूंदपुर ले जा सकता था, पर कौन कह सकता था, तुम पिता की खोज में फिर घर से नहीं चले जाओगे।”
    फिर उन्होंने कुसुम की ओर इषारा किया। कुसुम ने कहा-“हाँ, मैंने ही इनसे कहा था कि वह अगर फिर इसी तरह मुझे छोड़कर चुपचाप पिता की खोज में निकल गया तो क्या होगा।” और आँचल से आँसू पोंछने लगी। अमर ने माँ का हाथ थाम लिया। जैसे कह रहा हो-माँ, अब ऐसी गलती नहीं होगी।
    डाॅक्टर साहब ने कहा-“और तभी मुझे रोहू का ध्यान आया। मुझे तुमने बताया था कि रोहू को साँप ने काटा था, इस बात से तुम कितने दुखी थे। मैंने बहुत सोचा और मुझे लगा, अगर रोहू तुम्हारे साथ रहने लगे तो बात बन जाएगी।”   
    “क्या रोहू मेरे साथ रहेगा?” अमर ने खुषी भरी आवाज में कहा और रोहू का हाथ थाम लिया। रोहू की समझ में षायद कुछ नहीं आया। वह आष्चर्य से इधर-उधर ताक रहा था।
    डाॅक्टर साहब ने कहा-“अमर, रोहू के बहरेपन का इलाज हो सकता है। मुझे पूरा विष्वास है, लेकिन यहाँ बरान गाँव में रहकर दवाई नहीं हो सकती। मान लो अगर यह तुम्हारे बूंदपुर वाले घर में तुम्हारे साथ रहे तो कैसा रहे! मैं वहीं आता-जाता रहूँगा।”
    “तब तो मजा ही आ जाएगा।” अमर चहककर बोला।
    “और कान ठीक होने के बाद यह तुम्हारे साथ स्कूल भी जा सकेगा।” अचला ने कहा।
    “और रोहू की दादी। यह गाँव....” अमर ने उलझन भरे स्वर में कहा।
    “अरे पगले, रोहू क्या अपनी दादी के बिना रह सकता है? वह भी षहर जाएँगी।  जब  चाहो
तुम और रोहू यहाँ भी आ सकोगे।”
    “हम कब चलेंगे?” अमर ने पूछा।
    “बेटा, मैंने बैलगाड़ीवाले से कह दिया है। वह आता ही होगा।” रोहू की दादी बोली। अमर ने देखा कोठरी में कई पोटलियाँ बँधी हुई रखी थीं। यानी यात्रा की पूरी तैयारी थी।
    दिन ढल गया। बैलगाड़ी दरवाजे के सामने आ लगी। रोहू के साथ दादी और कुसुम टप्पर के नीचे बिछे पुआल पर जा बैठीं। अचला और डाॅक्टर रायजादा कार में बैठ गए। लेकिन अमर अभी बाहर खड़ा था जैसे असमंजस में हो। अचला ने उसकी ओर देखा तो झिझकते हुए बोला-“मैं रोहू के साथ बैठ जाऊँ।”
    “हाँ, हाँ, बैठ जाओ।” अचला के इतना कहते ही वह उछलकर बैलगाड़ी में चढ़ गया। माँ की गोद में जा बैठा। तब तक अचला भी कार से उतर आई। उसने डाॅक्टर रायजादा से कहा-“अगर मैं भी बैलगाड़ी में यात्रा करूँ तो कैसा रहे? बचपन में बस एक बार बैठी थी।”
    “तो मैं भी क्यों पीछे रहूँ।” डाॅ0 रायजादा और अचला भी बैलगाड़ी में चढ़ गए। गाँव के बहुत से लोग रोहू और उसकी दादी को विदा करने आए थे-औरतें, बच्चे, कई पुरुश। सब चुप खड़े थे।
    रोहू की दादी ने हाथ जोड़कर विदा ली। बोली-“रोहू का इलाज करवाने जा रही हूँ। आषीर्वाद दो कि बच्चे के कान ठीक हो जाएँ।”   
    “घबरा मत दादी, रोहू जरूर अच्छा हो जाएगा।” गाँववालों ने सम्मिलित स्वर में कहा। चरमर-चूँ की आवाज के साथ बैलगाड़ी बढ़ चली। अमर सोच रहा था-उस दिन भी तो ऐसे ही बैठे थे बैलगाड़ी में। तब सब कितने चुप थे। रोहू को साँप ने काट लिया था। कुछ देर बाद बैलगाड़ी पुराने मन्दिर वाले टीले के पास से होकर गुजरी। उस दिन का दृष्य फिर आँखों में तैर गया- बाँसुरी बाबा के कहने पर वह कैसे डरता हुआ अँधेरे में मन्दिर से पोटली लेने आया था और तभी रोहू की दादी लालटेन लेकर आ गई थी। लेकिन आज तो सब तरफ उजाला था।
    न जाने कब अमर के हाथों में बाँसुरी आ गई। एक मीठी धुन हवा में बिखरने लगी। अमर को बाँसुरी बजाते देख कुसुम की आँखें अचरज से फैल गईं। वह कुछ कहने को हुई तो डाॅक्टर रायजादा ने इषारे से मना कर दिया। फुसफुसा कर बोले-“बस, सुनती रहिए। सवाल बाद में.... मैं सब बता दूँगा।”
    हिचकोले खाती बैलगाड़ी रास्ते पर धीरे-धीरे बढ़ रही थी। अमर की बाँसुरी टेर रही थी। रोहू की उँगलियाँ अमर की कलाई पर कस गईं जैसे अब दोनों कभी अलग नहीं होंगे।