Saturday 30 July 2016

चिड़ियों की टोली



ग्यारह चिड़ियों की टोली हर दोपहर स्कूल बस से उतरती थी और उनका स्वागत करते थे उनके और सबके बाबा-दादी. लेकिन एक दिन दोनों ही दरवाजे पर नहीं थे,आखिर क्या हो गया था?


चिडि़यों की टोली उतरती है दोपहर में एक बजे। स्कूल बस ग्लोरी अपार्टमेंट्स के सामने रुकती है। सबसे पहले रजत की आवाज गूंजती है, ‘‘दादी, हम आ गए।’’ हम यानी ग्लोरी अपार्टमेंट्स के ग्यारह फ्लैटों में अलग-अलग रहने वाले अणिमा, नागेश, अनामिका, संतोष, रवि, तरला, अपर्णा, ललित, रमेश, विनय और रजत। बच्चे भले ही अलग-अलग हैं, पर दादी सबकी एक हैं। उन्होंने ही बच्चों को नाम दिया है-चिडि़यों की टोली।
बस का दरवाजा खुलता है। पहले सबसे छोटा संतोष उतरता है। दादी हाथ पकड़कर उतारती हैं। सिर पर हाथ फिराती हैं। फिर दूसरा बच्चा उतरता है, फिर तीसरा और सबसे अंत में रजत। वह चिडि़यों की टोली का मुखिया है। उम्र में सबसे बड़ा है। कुछ सवाल बच्चों से रोज पूछे जाते हैं-होमवर्क मिला, नाश्ता किया, डांट तो नहीं खाई? शिकायतें शुरू हो जाती हैं- ‘‘दादी, आज अणिमा ने मुझे धक्का दिया,’’ तरला कहती है।
‘‘और तूने जो मेरा कान पकड़ा था वह भी तो बता!’’ अणिमा ने मुंह फुलाकर कहा। नन्हा संतोष चुप है। आज उसकी कापी खो गई। दादी यानी उमा देवी हंसती हुई सबको एक-एक थैली पकड़ाती हैं। ‘‘अच्छा अब शिकायतें बंद। जाओ, हाथ-मुंह धोकर इसे खाना। आज मैंने तुम्हारी मनपसंद मिठाई बनाई है। शाम को आना नई कहानी सुनाएंगे तुम्हारे बाबा।“
बच्चों के बाबा हैं उमादेवी के पति अजयसिंह। वह भी एक तरफ खड़े हंस रहे हैं। बच्चे धम-धम करते, बस्ते झुलाते, एक-दूसरे को धकियाते भागते हैं। बस चली जाती है। अजयसिंह के साथ उमादेवी भी अपने फ्लैट में लौट आती हैं। उनकी चिडि़यों की टोली सही-सलामत लौट आई है।
उमादेवी और अजयसिंह एक फ्लैट में अकेले रहते हैं। उनके दो बेटे हैं-श्यामल और सुरेश। दोनों अपने-अपने परिवार के साथ अमरीका जाकर बस गए हैं। बीच में जब भारत आते हैं तो माता-पिता से एक बार जरूर कहते हैं-‘‘यहां क्या रखा है? अमरीका चलकर रहिए न।’’ दोनों मुस्कराकर चुप रहते हैं-यानी उत्तर साफ है कि उन्हें कहीं नहीं जाना। दादी और बाबा चिडि़यों की टोली को कैसे छोड़ें! उनका यह मौन उत्तर घर के नौकर बिलासी  को भी अच्छा लगता है। आखिर वह कहां जाएगा उमादेवी और अजयसिंह के अमरीका जाने के बाद? जिस दिन कहीं न जाने का यह फैसला सुनाया जाता है उस दिन बिलासी शाम को बहुत बढि़या खाना बनाकर खिलाता है।
1

एक दिन उमादेवी ने बच्चों के लिए मिठाई के छोटे-छोटे ग्यारह लिफाफे तैयार किए। हर दिन टाफी, चाकलेट,कोई-न-कोई मिठाई बच्चों को बस से उतरने के बाद देती हैं उनकी दादी। लेकिन तभी उनके पेट में दर्द शुरू हो गया। अजयसिंह तुरंत डॉक्टर से दवा लेने चले गए।
एक बजे स्कूल बस सोसायटी के मुख्य द्वार के सामने रुकी। रजत ने पुकारा, ‘‘दादी, हम आ गए?’’
‘‘दादी कहां हैं?’’ नागेश ने इधर-उधर देखते हुए कहा।
‘‘और बाबा भी दिखाई नहीं दे रहे हैं,’’ तरला ने कहा।
‘‘पता नहीं, क्या बात है?’’ अणिमा अनामिका से फुसफुसा रही थी।
बच्चे कुछ देर अपार्टमेंट के मुख्य द्वार पर खड़े रहे, फिर धीरे-धीरे दादी के फ्लैट की तरफ बढ़े।
‘‘दादी, क्या बात है?’’ रजत की आवाज आई तो उमादेवी झट उठ बैठीं।
‘‘आज आपकी गैरहाजिरी लग गई,’’ अणिमा बोली।
‘‘दादी मिठाई!’’ संतोष जाकर उमादेवी की गोद में चढ़ गया।
‘‘जरा पेट में दर्द हो गया। तुम्हारे बाबा जल्दी घबरा जाते हैं। झट डॉक्टर से दवा लेने चले गए। तुम्हारी मिठाई तैयार है। चलो, पहले बस्ते रखकर हाथ-मुंह धो लो। फिर...’’
तभी अजयसिंह हड़बड़ाए से अंदर घुसे, ‘‘अब दर्द कैसा है?’’ देखा उमादेवी बच्चों से घिरी बैठी हैं। हंस रही हैं। वह भी हंस दिए, ‘‘तो यह क्यों नहीं कहा कि चिडि़यों की टोली को बुला लाओ। मैं डॉक्टर के पास न जाकर स्कूल चला जाता।’’
‘‘देख रहे हैं न, एक साथ कितने डॉक्टर मेरा इलाज कर रहे हैं। दर्द की क्या मजाल ठहर सके। कान दबाकर ऐसा भागा... कि...’’ कहकर उमादेवी जोर से हंस पड़ीं। सचमुच अब दर्द में आराम महसूस हो रहा था।
बिलासी बोला, ‘‘बाबूजी, अम्माजी के दर्द की दवा हमें भी पता चल गई है। आप चिंता मत करो।’’
एक सप्ताह बाद की बात है। एक दिन सुबह-सुबह उमादेवी चाय पीकर प्याला रसोईघर में रखने गईं तो फिर बाहर न आई। अजयसिंह ने जाकर देखा फर्श पर बेहोश पड़ी थीं। तुरंत बिलासी डॉक्टर को बुला लाया, लेकिन उमादेवी फिर न उठीं। बच्चों को दोपहर की मिठाई खिलाने से पहले ही सदा के लिए चली गईं।
2


फ्लैट के नीचे लोग आ जुटे। अमरीका टेलीफोन कर दिया गया। लेकिन वहां से कोई भी इतनी जल्दी नहीं आ सकता था। तय हुआ कि क्रियाकर्म कर दिया जाए।
एक बजे स्कूल बस आकर रुकी। रजत ने आने की खबर दी, ‘‘दादी, हम आ गए!’’
दादी के फ्लैट के नीचे भीड़ जमा थी। रजत ने देख लिया बाबा चुपचाप बैठे थे। दादी कहां है?’ वह सोच रहा था।
शाम को बच्चों ने दादी को सदा के लिए जाते देखा। वे सब एक झुंड में एक तरफ चुप खड़े थे।
अमरीका से उमादेवी के दोनों बेटे परिवार के साथ आ गए। और भी कई रिश्तेदार आ पहुंचे।
अगली दोपहर बिलासी एक बजे दरवाजे पर खड़ा था। उसे देखते ही बच्चों ने घेर लिया। सब एक साथ पूछने लगे-क्या हुआ था दादी को?’
बिलासी ने सब-कुछ बता दिया। ‘‘और बाबा?’’ रजत ने पूछा थ।
जवाब देने से पहले कुछ देर चुप रहा बिलासी। रजत ने देखा उसकी आंखें डबडबा आई थीं। रुंधे गले से बोला, ‘‘बाबू तो एकदम चुप हो गए हैं। किसी से कुछ नहीं बोलते।’’
‘‘खाना खाते हैं?’’ अणिमा ने पूछा।
बिलासी ने सिर हिला दिया। बोला, ‘‘सबके कहने पर थाली के सामने बैठ जरूर जाते हैं, पर खाते कुछ नहीं। अनछुई थाली मैं ही तो उठाता हूं। पता नहीं क्या होगा अब?’’
उस शाम रजत ने अपने साथियों को बुलाया और कहा, ‘‘हमें एक बार बाबा के पास जरूर जाना चाहिए।’’
‘‘मैं कैसे बात करूंगी उनसे? मुझे तो एकदम रोना आ जाएगा!’’ तरला बोली।
‘‘तुमने सुना, बिलासी क्या कह रहा था, बाबा ने खाना-पीना छोड़ दिया है। दादी के सिवा उनका था ही कौन?’’
शाम को रजत और बच्चे डरते-डरते सीढि़यां चढ़कर ऊपर पहुंचे। घर में काफी लोग थे, पर बाबा कहीं नजर नहीं आए। बच्चे कुछ देर झिझकते से खड़े रहे, फिर नीचे उतर आए।
तेरहवीं की शाम को सब मेहमान चले गए। अजयसिंह के बेटे श्यामल और सुरेश ने पिता से कहा, ‘‘अब यहां क्या है आपका? हमारे साथ चलते क्यों नहीं?’’
अजयसिंह ने कहा, ‘‘सोचकर बताऊंगा।’’
3

बेटे पिता का उत्तर समझ गए और दो दिन बाद वे दोनों अमरीका वापस चले गए। अब अजयसिंह अकेले रह गए थे।
रजत बिलासी से उनके बारे में पूछता रहता था। खुद बिलासी ही आकर बता जाता था कि ‘‘आज बाबू ने चाय नहीं पी, खाना भी नहीं खाया। रात को जब-जब आंख खुली तो उन्हें कमरे में अम्माजी की तस्वीर के सामने खड़े पाया, जैसे उनसे बात कर रहे हों।’’
स्कूल बस सुबह बच्चों को ले जाती थी, दोपहर में ठीक समय पर छोड़ जाती थी। एक दिन रजत ने अणिमा से कहा, ‘‘ऐसे कैसे रहेंगे बाबा? न खाते हैं, न बोलते हैं। और तो और हमसे भी बात नहीं करते!’’
‘‘हां, पहले तो दादी के साथ दोपहर में रोज आकर खड़े होते थे बाहर,’’ तरला बोली।
एक सुबह बस बच्चों को लेकर ग्लोरी अपार्टमेंट्स से चली तो रजत ने चिल्लाकर कहा, ‘‘मैंने बाबा को देखा था। दरवाजे से दूर एक खंभे के पीछे खड़े हुए थे। वहां क्या कर रहे थे वह?’’
‘‘बाबा! भला वहां इस तरह छिपकर क्या करेंगे! कोई और होगा!’’ अपर्णा बोली।
रजत ने कहा, ‘‘मैं क्या बाबा को पहचानता नहीं जो धोखा खा जाऊं! मैं शर्त लगाकर कह सकता हूं कि जिन्हें मैंने खंभे की ओट में खड़े हुए देखा था, वह हमारे बाबा ही थे।’’    
बात किसी की समझ में नहीं आ रही थी। उस दिन स्कूल की आधी छुट्टी  में भी इसी बात पर चर्चा होती रही।
‘‘बाबा को भला छिपकर खड़े होने की क्या जरूरत है? क्या वह आकर दरवाजे पर खड़े नहीं हो सकते?’’ अनामिका ने रजत से कहा।
‘‘हमसे बात क्यों नहीं करते?’’ रमेश बोला।
‘‘अगर यह बात है तो हमने ही उनसे कब बात की है। वह अकेले हो गए हैं, परेशान हैं। हम ही उनके पास कितनी बार गए?’’ रजत ने कहा। उसका गुस्सा सबके साथ-साथ खुद पर भी था।
दोपहर में बस दरवाजे पर रुकी। रजत की तेज नजर ने बाबा को खंभे की आड़ में खड़े देख लिया था।
अजयसिंह सुबह बच्चों को स्कूल जाते समय और दोपहर में लौटते समय खंभे की ओट में छिपकर देखा करते थे।
अगली सुबह बस घुरघुराती हुई चली गई। खंभे के पीछे खड़े अजयसिंह अंदर जाने के लिए मुड़े तो सब बच्चे उनके सामने मौजूद थे, एकटक देखते हुए। बच्चे स्कूल गए ही नहीं थे।
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अजयसिंह हड़बड़ा गए। इधर-उधर देखने लगे।
‘‘आज हमने चोरी पकड़ ली।’’ रजत ने रमेश की तरफ मुड़कर कहा।
‘‘हम भी तो कहें कि हमें छिपकर कौन देखता है, सामने क्यों नहीं आता?’’ अपर्णा बोली।
‘‘चोरी!’’ अजयसिंह के मुंह से बस एक ही शब्द निकल सका। वह कुछ समझ नहीं पा रहे।
‘‘हां, चोर,आप क्यों देखते हैं हमें यों छिपकर?’’
‘‘मैं तो बस...’’ अजयसिंह ने कहना चाहा फिर बोले,‘‘लेकिन तुम सब आज स्कूल क्यो नहीं गए? बस तो चली भी गई। क्या बात है?
‘‘आपको पकड़ने के लिए ही हमने यह योजना बनाई थी, बाबा!’’ रजत ने कहा।
‘‘हां, आप दादी की तरह मेन गेट पर भी तो खड़े हो सकते हैं। यह लुका-छिपी क्यों?’’ अनामिका कह रही थी।
‘‘दादी की तरह...?’’ अजयसिंह की आंखों से आंसू बह चले।
बच्चे उन्हें घेरकर खड़े हो गए। ‘‘बाबा, आप रोते क्यों हैं?’’ नन्हे संतोष ने कहा और उनका हाथ पकड़कर हिलाने लगा। अजयसिंह ने उसे गोद में उठा लिया, उसका सिर सहलाने लगे।
उन पर एक के बाद दूसरा सवाल बरस रहा था। रजत ने कहा, ‘‘हमें पता है आप सुबह चाय भी नहीं पीते। रात को कमरे में घूमते रहते हैं...क्यों?’’ बाबा हैरान! बच्चे सच कह रहे हैं कि चाय छोड़ दी, खाने का मन नहीं करता और रात में नींद भी नहीं आती। पर बच्चों को यह सब कैसे पता? उन्हें क्या मालूम था कि बिलासी उनकी पूरी दिनचर्या का हिसाब बच्चों को बता देता था।
संतोष उनकी गोद में था। बाकी सब उन्हें घेरकर फ्लैट की तरफ ले चले। अजयसिंह रह-रहकर इतना भर कह उठते, ‘‘अरे यह क्या...रुको, ठहरो तो सही।’’
कुछ देर बाद दादी की चिडि़यों की टोली बाबा अजयसिंह के साथ बड़े कमरे में बैठी चहचहा रही थी, जहां दादी की हंसती हुई तस्वीर लगी थी।
थोड़ी देर में अपर्णा अपनी सहेलियों के साथ चाय व नाश्ता बाबा के सामने ले आई।
‘‘और तुम लोग?’’ बाबा ने पूछा।
‘‘अब दादी तो हैं नहीं जो हमें मिठाई खिलाएं। आपको मिठाई बनानी नहीं आती तो...चाकलेट और टाफियां ही दे दीजिए हमें, लेकिन रोज देनी होंगी।’’ रजत मुस्करा रहा था।
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‘‘कौन कहता है कि मैं मिठाई बनाना नहीं जानता कुछ मिठाइयां तो तुम्हारी दादी को मैंने ही सिखाई थी,’’ कहकर बाबा हंस पड़े।
‘‘तो बनाकर खिलाइए। तभी आपकी बात पर विश्वास होगा।’’ अपर्णा ने कहा।
रजत बोला, ‘‘बाबा, आपको परीक्षा में पास होकर दिखाना होगा। दादी की तरह हर रोज हमारे लिए मिठाई का जुगाड़ करना होगा आपको।’’
बिलासी एक तरफ खड़ा मुस्कराते हुए कह रहा था, ‘‘मैं भी तो जानता हूं, मिठाई बनाना।’’
चिडि़यों की टोली चहचहा रही थी। रजत बोला, ‘‘बाबा, आप सुबह उठते ही चाय पीकर हमें स्कूल के लिए छोड़ने बाहर आएंगे।’’ अपर्णा बोली, ‘‘दिन में सही समय पर नाश्ता करेंगे।’’ संतोष बोला, ‘‘दोपहर में आप हमें दादी की तरह सोसायटी के दरवाजे पर मिलेंगे।’’ अणिमा बोली,‘‘दोपहर का भोजन हमारे साथ करेंगे आप।’’
‘‘और हां, इस तरह खंभे के पीछे छिपकर नहीं देखेंगे।’’ रजत बोला।
बच्चों की बातें सुन अजयसिंह जोर से हंस पड़े-शायद बहुत दिन बाद पहली बार. “ ठीक है, अब ऐसी गलती नहीं होगी।’’
‘‘बाबा मान गए...’’ शोर मचाते, धम-धम करते बच्चे नीचे उतर गए।
अगली दोपहर स्कूल बस आकर रुकी तो बस का दरवाजा बाबा ने खोला। चिडि़यों की टोली चहचहा रही थी, ‘‘रात का खाना खाया? नींद ठीक से आई?’’
बाबा मुस्करा उठे, उन्होंने जवाब देने के बाद सवाल दाग दिए, ‘‘नाश्ता किया? होमवर्क मिला? डांट तो नहीं खाई?’’
हर बच्चे को लिफाफा थमाते समय बाबा यह कहना नहीं भूले, ‘‘मिठाई मैंने अपने हाथों से बनाई है। बिलासी ने मेरी कोई मदद नहीं की।’’
दादी गई नहीं थी, बाबा में लौट आई थीं। ( समाप्त )
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Thursday 14 July 2016

बच्चे फूल हैं



क्या सचमुच बच्चे फूल होते हैं? अपने चारों और देखता हूँ तो इस वाक्य पर संदेह होने लगता है. क्यों न उन दोनों  बच्चों से पूछ लिया जाए. जो कुछ  और ही नजर आ रहे हैं.

-देवेन्द्र कुमार
सुबह का समय। छुट्टी का दिन था। अभी सूरज पूरी तरह उगा नहीं था। सैलानी बाग में सैर कर रहे थे। हल्की हवा बदन पर अच्छी लग रही थी। पेड़-पौधों के पत्ते और टहनियों पर झूलते सुंदर सुगंधित फूल धीरे-धीरे हिल-डुल रहे थे जैसे आपस में बातें कर रहे हों। फूलों की मीठी-मीठी खुशबू हवा में तैर रही थी।
दो व्यक्ति एक क्यारी के पास रुककर वहां खिले फूलों को देखने लगे। बहुत सुंदर दृश्य था। एक ने दूसरे से कहा-‘‘अद्भुत। अति सुंदर।’’
दूसरे ने जवाब दिया-‘‘आपने ठीक कहा। फूल ऐसे लग रहे हैं जैसे सुंदर-सलोने बच्चों के झुंड।
-‘‘हां, बच्चे इन फूलों जैसे सुकोमल होते हैं।’’ दोनों व्यक्ति कुछ देर  फूलों की क्यारी के पास रुककर इसी बारे में बातें करते रहे---फूलों जैसे बच्चों और बच्चों जैसे फूल।
फूल भी उनकी बातें ध्यान से सुन रहे थे। उन दोनों के जाने के बाद एक फूल ने दूसरे फूल से कहा-‘‘तुमने सुना इन दोनों ने क्या कहा।‘’
‘‘हां, सुना। वे बच्चों की तुलना हम फूलों से कर रहे थे।’’
‘‘लेकिन बच्चे तो मनुष्य की संतान हैं। वे हम फूलों जैसे कैसे हो सकते हैं।’’
दूसरा फूल बोला-‘‘यह सब मैं नहीं जानता। लेकिन अक्सर ही मां-बाप कहते हैं-मेरा बच्चा फूलों जैसा कोमल है, नाजुक है।’’
खामोशी छा गई। हवा का झोंका आया तो फूल फिर से डालियों पर हिलडुल करने लगे। फूल ने हवा से पूछा तो हवा ने भी वही कहा। फूल बोला-‘‘मैं भी देखना चाहता हूं उन बच्चों को जिनकी तुलना उनके मां-बाप  हमसे  करते हैं। लेकिन मैं भला कैसे कहीं जा सकता हूं। मैं तो टहनी से जुड़ा हूं।’’ तभी हवा का दूसरा तेज झोंका आया और पौधे को हिला गया। एक कोमल टहनी पौधे से अलग हो गई। टहनी पर एक फूल खिला हुआ था। हवा फूलवाली टहनी को उड़ा ले  चली ।
‘‘वाह!’’ फूल ने कहा। उसे लग रहा था जैसे वह बंधन मुक्त हो गया है। अब कहीं भी जा सकता है। हवा फूल को उडाए लिए जा रही थी। आगे कूड़े का बड़ा ढेर पड़ा था . हवा कूड़े के ढेर के ऊपर से गुजरी तो बदबू से सामना हुआ। फूल ने देखा दो बच्चे कूड़े के ढेर में जैसे कुछ खोज रहे थे। कूड़े में से निकालकर कुछ चीजें पास में रखी एक बड़ी बोरी में डालते जा रहे थे।
फूल ने हवा  से पूछा-‘‘क्या इन बच्चों को हम फूलों जैसा कहा जा सकता है?’’
हवा बोली-‘‘भले ही ये दोनों बच्चे गंदे और मैले-कुचैले हैं, पर शायद इनके मां-बाप को इनका चेहरा फूलों जैसा सुंदर लगता होगा।’’
फूल ने कहा-‘‘ये तो बहुत गंदे हैं। देखो तो सब तरफ कितनी बदबू फैली है।’’

हवा बोली-‘‘ये गरीब हैं न। घर गंदा, बस्ती गंदी। पेट भरने के लिए इन बच्चों के मां-बाप कूड़े के ढेर में से काम लायक चीजें चुनकर बेचते हैं, तब इनका घर चलता है। ये बच्चे इस काम में अपने मां-बाप की मदद करते हैं। लो, इनसे बात करो। इनका हाल-चाल पूछो।’’ इतना कहकर हवा ने फूल को बच्चों के पास कूड़े के ढेर पर छोड़ दिया और आगे चली गई। अब फूल कूड़े के बड़े ढेर पर पड़ा हुआ सोच रहा था-‘‘यह मैं कहां आ गया!’’
दोनों बच्चों के नाम थे किशोर और कमल। कूड़े के ढेर में काम लायक चीजें ढूंढ़ते हुए एकाएक कमल के हाथ रुक गए। उसने गहरी सांस ली। उसके मुंह से निकला-‘‘वाह! कितनी अच्छी खुशबू है।’’
किशोर ने कमल की ओर देखा। बोला-‘‘इस बदबू के बीच खुशबू कहां से आ गई।’’ फिर उन दोनों की नजर एक साथ फूल पर जा टिकीं। लाल रंग का सुंदर फूल। इसी में से भीनी-भीनी  खुशबू आ रही थी। दोनों ने फूल को उठाने के लिए हाथ  बढ़ाए फिर रुक गए। दोनों की हथेलियां गंदगी से काली हो रही थी।
‘‘फूल को मत छुओ। उसे देखो। देखो न हमारे हाथ कितने गंदे हैं।’’ कमल बोला। मेरी मां कहती है फूल कोमल होते हैं। उन्हें तो दूर से देखना चाहिए। छूना या तोड़ना नहीं चाहिए।’’
किशोर ने कहा-‘‘अरे हमने इस फूल  को तोड़ा कहां है। यह तो हवा में उड़कर अपने आप हमारे पास आ गया है। मैंने तो कभी किसी फूल को छूकर नहीं देखा है।’’ कहते-कहते किशोर ने फूल को उठाकर अपने गंदे गाल से लगा लिया। गाल कालिख से काला हो रहा था।
‘‘अरे ये फूल गंदा हो जाएगा। शीशे में अपना मुंह तो देख ले जरा।’’ कमल ने उसे चिढ़ाया। पर किशोर फूल को इसी तरह अपने गाल से सटाए खड़ा रहा, फिर जोर-जोर से सूंघने लगा। ‘‘वाह, कितनी अच्छी खुशबू है।’’
‘‘क्या फूल की सारी खुशबू तू खुद ही सूंघ लेगा। जरा मुझे भी तो  छूने  दे इस फूल को।’’ कमल ने याचना भरे स्वर में कहा।
‘‘जरा अपना मुंह और अपनी हथेलियां तो देख।’’ कहकर किशोर मुस्कराया और उसने फूलदार टहनी कमल को थमा दी। ‘‘सचमुच बहुत अच्छी खुशबू है। न जाने गंदगी के इस ढेर पर इतना सुंदर सुगंधित फूल कहां से आ गया।’’ कमल ने कहा। फिर दोनेां बारी-बारी से फूल को छूते और सूंघते रहे। वे गंदगी के ढेर से काम लायक चीजें ढूंढ़ने का अपना काम भूल चुके थे।
‘‘इस तरह हम फूल को बार-बार छुएंगे तो यह मुरझा जा जाएगा। इसकी खुशबू खत्म हो जाएगी।’’ किशोर ने कहा।
‘‘चलो, यहां से चलें और साफ-सुथरी जगह पर बैठकर इस फूल से इसका हाल-चाल पूछे।’’ कमल बोला।
‘‘मगर बोरी नहीं भरी तो बप्पा नाराज हो जाएंगे।’’ किशोर ने कहा.
पर  कमल ने जैसे किशोर की बात सुनी ही नहीं थी। उसकी आंखें कूड़े के ढेर पर कुछ खोज रही थी। कुछ दूरी पर एक टूटा हुआ गमला पड़ा था। कमल ने गमले को उठा लिया, फिर मिट्टी डालकर फूलदार टहनी को गमले में बिठा दिया।
‘‘ अब बन गई बात!’’ किशोर ने कहा।‘’ कई बार बाग से गुजरते हुए गमलों में लगे फूल देखे हैं मैंने  पर यह गमला तो टूटा हुआ है। फूल इसमें कैसे टिकेगा?’’
‘‘मैं इसे घर ले जाऊंगा।’’  कमल  बोला-‘‘और इसे मां को दे दूंगा। वह इसे संभालकर रखेगी। कुछ दिन बाद टहनी पर और भी फूल आ जाएंगे।’’

‘‘दम घुट जाएगा  बेचारे फूल का तुम्हारी झोपड़ी में। फूलों को हवा और धूप चाहिए।‘’—किशोर बोला
‘‘तब क्या करें?’’
‘‘फूल को यही रहने दो। बोरी भरने का काम भी तो पूरा करना है। वरना डांट पड़ेगी।’’ कमल ने अपने भरी बोरी को हिलाकर देखा। वह फूल को भूल जाना चाहता था। पर आंखें थी कि उस तरफ से हट ही नहीं रही थी।
किशोर और कमल फिर से अपने काम में लग गए। पास में टूटे गमलों में फूल हवा में हिलडुल रहा था।
‘‘मैं तो फूल से बात करूंगा।’’ कमल ने बोरी को एक तरफ रखते हुए कहा , ‘’ काम तो हम  रोज ही करते हैं।’’
‘‘आओ फूल से बातें करें।’’
‘‘हां, दोस्ती करें। इस काम में हाथ गंदे करते हुए सारा दिन बीत जाता है।
‘‘सुबह-शाम कुछ पता ही नहीं चलता।’’
‘‘मैं बप्पा से कहूंगा कि कूड़े में हाथ गंदे न करें। कमल ने कहा।
‘‘मैं भी यही कहूंगा।’’ किशोर ने हां में हां मिलाई। ‘‘लेकिन वह तो कूड़े वाला काम ही जानते हैं। हमसे भी यही करवाते हैं।’’
‘‘मैं तो फूलों का काम करूंगा।’’
‘‘फूलों का काम! कैसा काम!’’
‘‘कोई भी काम...फूलों के बीच रहूंगा। फूलों से बात करूंगा। कूड़े से नफरत है मुझे।’’
‘‘मुझे भी...आओ अपने इस दोस्त से बात करें।’’ और दोनों टूटे गमले को बीच में रखकर बैठ गए। कूड़े के विशाल ढेर से बदबू आ रही थी। नीले आकाश में परिंदे शोर कर रहे थे। टूटे गमले में लगा फूल खुश था उसे दो नए दोस्त मिल गए थे। तीन फूल हंस रहे थे।
देवेन्द्र कुमार
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