Saturday 6 February 2016

बाल कहानी :चिडिया का झूठ

                                                                  चिडिया का झूठ


पड़ोस के घर में सफाई का काम चल रहा था. उमा ने बच्चों से कहा –‘’ आओ हम लोग भी सफाई कर लें. ‘’ फिर दोनों बच्चों- सिमी और रजत के साथ स्टोर से पुराने अख़बारों के कई बण्डल बाहर ले आई. उमा के पति अजय ने कहा-‘’ तराजू भी निकाल लेना क्योंकि कई कबाड़ी तोल में हेराफेरी करते हैं.’’ इसीलिए वह बाज़ार से तराजू खरीद कर लाये थे. उमा ने खोजा पर तराजू कहीं नहीं मिली. कई बार पडोसी तराजू मांग कर ले जाते थे. लेकिन इस समय याद नहीं आ रहा था कि कौन ले गया होगा.
अजय गुस्सा होने लगे. फिर उन्हें कुछ और भी याद आ गया. बोले-‘’ और अपनी अल्मीनियम की सीढ़ी भी नहीं दिखाई दे रही है.’’ सीढ़ी दरवाज़े के पास खडी रहती थी. बगल वाले फ्लैट में काम के दौरान मजदूर कई बार सीढ़ी मांग कर ले जाते थे और फिर वापस रख भी जाते थे. लेकिन आखिरी बार सीढ़ी कौन ले गया था यह उमा को याद नहीं आ रहा था, अजय का गुस्सा और भी बढ़ गया. सब को पता था कि अजय का गुस्सा जल्दी ठंडा होने वाला नहीं.  
उमा ने लंच बॉक्स अजय को देते हुए कहा-‘’ आपको ऑफिस के लिए देर हो रही होगी,  तराजू और सीढ़ी हम दूंढ़ लेंगे. ‘’ अजय चले गए तब बच्चे कुछ सहज हुए. अब उमा भी मुस्करा दी .लेकिन सिमी और रजत को पता था कि शाम का प्रोग्राम ठप हो गया. आज अजय बच्चों को आइस क्रीम खिलाने ले जाने वाले थे. लेकिन अब शायद कई दिन और इंतजार करना होगा.
‘’पता नहीं तराजू और सीढ़ी मिलेंगी भी या नहीं!’’- रजत ने माँ से कहा.  उमा उसके बाल सहलाने लगी जैसे कह रही हों – सब ठीक हो जाएगा. सिमी बोली – ‘’ अगर आज दादी होती तो पल भर में सब ठीक हो जाता .’’
‘’ लेकिन दादी तो तस्वीर में रहती हैं.’’ – रजत ने कहा. उसकी आँखें दीवार पर टंगे दादी के फोटो पर टिकी थीं. बच्चे कई बार देख चुके थे कि कैसे दादी उन्हें मम्मी- पापा के गुस्से से बचाया करती थीं. लेकिन अब क्या होगा – दोनोँ  यही सोच रहे थे. पर कोई उपाय नहीं सूझ रहा था. जैसे –जैसे शाम निकट आ रही थी बच्चों की घबराहट बढती जा रही थी. अजय आये तो चुपचुप थे यानि तराजू और सीढ़ी की बात भूले नहीं थे. तभी सिमी दादी का एक फोटो लेकर उनके पास चली गई . बोली –‘’ मैं दादी का एक एलबम बना रही हूँ. मुझे आपके बचपन का ऐसा फोटो चाहिए जिसमें आप दादी के साथ खड़े हों.’’
सुन कर अजय के होंठों पर मुस्कान आ गई. बोले- ‘’ मेरे बचपन में आज की तरह फोटो नहीं उतारे जाते थे. तब इक्के दुक्के लोगों के पास कैमरे हुआ करते थे . माँ के साथ मेरे बचपन का फोटो तो शायद न मिले पर बचपन की कई घटनाएं आज भी अच्छी तरह याद हैं.’’
‘’ तब वही सुना दो बच्चों को.’’ – उमा ने कहा. ‘’ वैसे प्रोग्राम तो आइसक्रीम का तय हुआ था.’’ अब अजय खुल कर हंस दिए. बोले-‘’ प्रोग्राम पक्का है.’’ कमरे में हंसी गूंजने लगी,  .तनाव फुर्र हो गया. बच्चों ने अपने पापा को उनके बचपन में पहुंचा दिया था.
अजय सुनाने लगे-‘’ तब हम गाँव में रहते थे. माँ घर के पास वाले कुएं से पानी भरा करती थीं. एक बार माँ की तबीयत खराब थी. घर में पानी नहीं था. मैं बाल्टी-डोर लेकर कुएं  पर जा पंहुंचा , माँ मना करती रह गई. इससे पहले मैंने कभी कुएं से पानी नहीं खींचा था. पर मुझे तो शौक चढ़ा हुआ था. फिर वही हुआ जिसका डर था. बाल्टी कुएं में गिर गई. मैं डर के कारण देर तक घर नहीं गया. लेकिन पिताजी ने मुझे ढूँढ लिया और पकड़ कर घर ले गए, बाल्टी कुएं में गिरने की खबर मुझसे पहले घर पहुंच चुकी थी.
‘’ तब तो दादाजी ने आपको बहुत फटकारा होगा.’’ – सिमी ने पूछा .
‘’ उन्होंने कुछ कहा तो नहीं पर वह इस बात को लेकर परेशान थे कि बाल्टी के साथ अगर मैं भी कुएँ में गिर जाता तो क्या होता? मुझे देखते ही माँ ने मुझे गोद में भर लिया और सर पर हाथ फिराती हुई बोली-‘’ मैं एक नहीं दस नई बाल्टियाँ मंगवा लूंगी. मेरी कसम खा कि फिर कभी कुएं की तरफ नहीं जाएगा.’’ मैने हाँ में गर्दन हिला दी. अब पिताजी को मनाना था,’’-
‘’ उन्हें आपने कैसे मनाया.?’’ – रजत ने जानना चाहा. वह सोच रहा था कि पिता का गुस्सा दूर करने के लिए क्या करना होगा. ‘’ वह भी एक अजीब कहानी है.’’ – अजय ने हंस कर  कहा. सिमी को लगा पापा का गुस्सा धीरे धीरे उतर रहा है.
अजय ने आगे कहा-‘’ कई दिन बीत गए पर पिताजी ने मुझसे बात नहीं की. यही सब सोचता हुआ मैं नदी किनारे बैठा था ,तभी मुझे एक पंख दिखाई दिया. कुछ सोचता हुआ मैं उसे घर ले आया. मैंने उस पर कई जगह हरा और लाल रंग लगा दिया. जब रंग सूख गए तो मैं पंख को पिताजी के पास ले गया. मैंने उनसे कहा-‘’ जरा इस पंख को देखिए .’’ पिताजी ने एक नज़र रंग लगे पंख को देखा और बोले-‘’ इस पर तो रंग लगे हैं. यह क्या तमाशा है. ‘’
मैंने कहा-‘’ नदी के किनारे मुझे ऐसे पंखों वाली चिड़िया दिखाई दी थी. रंग मैंने इसलिए लगाये थे ताकि उसके पंखों के रंग याद रहें.’’ अब पिताजी ने पंख को हाथ में लेकर देखा और बोले –‘’ भई , मैंने तो आज तक ऐसी कोई चिड़िया देखी नहीं. शायद मेरे दोस्त श्याम को कुछ मालूम हो.’’ श्याम चाचा पक्षियों के विशेषज्ञ थे . पिताजी पंख को उनके पास ले गए . मैं भी साथ था, मैंने श्याम चाचा को भी वही कहानी सुना दी. उन्होंने पंख को उलट पलट कर देखा फिर बोले-‘’ ऐसे पंखों वाली चिड़िया तो मैंने भी कभी नहीं देखी लेकिन अगर अजय की बात सच है तो यह एक चमत्कारिक खोज होगी.’’  
‘’ तो आपने झूठ बोला था.’’ रजत ने कहा.
‘’ हाँ, बोला तो था.’’ –अजय ने कहा, ‘’ पर तब पिताजी का गुस्सा दूर करने का कोई उपाय सूझ ही नहीं रहा था. ‘’
‘’ तो आपके पिताजी का गुस्सा दूर हुआ या नहीं?’’ उमा ने पूछा . वह मुस्करा रही थी.
‘’ यह तो पता नहीं पर फिर तो घर में उसी विचित्र चिड़िया की चर्चा होने लगी. कई बार श्याम चाचा भी मुझे साथ लेकर उस चिड़िया की खोज में गये थे. ‘’ और अजय धीरे से हंस दिए.  फिर बोले-‘’ कई बार सोचा कि पिताजी को सच बता दूं. पर हिम्मत न हुई.’’
कुछ देर कमरे में चुप्पी छाई रही. अजय ऑंखें मूंदे कुछ सोच रहे थे,  रजत और सिमी की आँखों के सामने दादी की तस्वीर तैर रही थी. रजत बोला –‘’ दादी के साथ आपके बचपन की तस्वीर ...’’ अजय ने उसका सर सहला दिया. कहा-‘’ इतनी देर से तुम्हारी दादी के साथ अपने बचपन की तस्वीरें ही तो दिखा रहा था.’’ उमा ने कहा-‘’ अब चलिए , नहीं तो आइसक्रीम पिघल जाएगी.’’
‘पापा तो अपने बचपन की गलियों में ही घूम रहे हैं अभी तक.’’ सिमी ने हंस कर कहा.
‘’ बच्चो, बात तो तुम्हारी ठीक है. मेरा एक मन बचपन में है तो दूसरा तुम्हारे पास मौजूद है.’’ कह कर अजय बच्चों के हाथ पकड़ कर आइस क्रीम पारलर की ओर चल दिए. उमा मुस्कराती हुई पीछे पीछे चल रही थीं. दादी ने एक बार फिर बच्चों को उनके पापा के गुस्से से  बचा लिया था.                                        
                                                      ( समाप्त )                       


बाल कहानी:उपहार

                                                                         उपहार


बाबा 75 वर्ष के हो जाएंगे। इसे लेकर घर में काफी उत्साह है। खास तौर से रचना और राजन बेहद उत्तेजित हैं। रह-रहकर मम्मी-पापा से पूछ रहे हैं कि ये दोनों बाबा को जन्मदिन का क्या उपहार देने वाले हैं।
पापा यानी रमेश हंसकर कहते हैं-‘‘बच्चों, मैं भला तुम्हारे बाबा को क्या दे सकता हूं। मैं उनके पैर छूकर आशीर्वाद  लूंगा।’’ बच्चों की मम्मी साधना भी यही कहती हैं और हंस देती हैं।
बच्चों के बाबा यानी श्यामजी का जन्मदिन उनके मना करने पर भी मनाया जाता है। उनके बेटे-बेटियां तथा दूसरे रिश्तेदार बधाई देने आते हैं। घर में खूब रौनक होती है। शाम को जब लोग विदा होने लगते हैं तो श्यामजी हरेक को एक बंद लिफाफा थमाते जाते हैं। हर बार ऐसा ही होता है लेकिन इस बार...
हां, इस बार उनके 75 वर्ष पूरे होने पर रमेश ने विशेष आयोजन किया है। ज्यादा लोगों को बुलाया गया है। हालांकि श्यामजी बार-बार मना करते हैं। कहते हैं-‘‘जन्मदिन तो बच्चों का मनाया जाता है बूढ़ों का नहीं।’’ पर उनकी बात कोई नहीं सुनता।
धीरे-धीरे मेहमान आने लगे। श्यामजी का परिवार बड़ा है। नाते-रिश्तेदार तथा उनके मित्र भी आए हैं। सबके हाथों में रंगीन कागजों में लिपटे उपहार के पैकेट हैं। रचना और राजन एक तरफ खड़े देख रहे हैं। एकाएक श्यामजी ने पूछा- ‘‘बच्चों, क्या तुम मुझे कोई उपहार नहीं  दोगे ?’’
सुनकर रचना और राजन दूसरे कमरे में दौड़ गए और रंगीन पन्नी में लिपटा एक बड़ा-सा पैकेट ले आए। सब उनकी ओर देखने लगे। बाबा ने कहा-‘‘रचना और राजन, लगता है आज तुम मुझे कोई बड़ा उपहार देने वाले हो।’’
सुनकर दोनों शरमा गए, बढ़कर उपहार का पैकेट बाबा को थमा दिया। फिर उनके पैर छूने के लिए झुकने लगे तो श्यामजी ने उन्हें आलिंगन में बांध लिया फिर पूछा- ‘‘इसमें क्या है?’’
‘‘खोलकर देख लीजिए।’’ रचना ने कहा।
बाबा कुछ देर पन्नी में लिपटे पैकेट को उलटते-पलटते रहे जैसे पन्नी उतारने से पहले ही अंदर क्या है उसे जानना चाहते हैं। कमरे में खामोशी छा गई थी। सब बारी-बारी से उपहार के पैकेट तथा रचना और राजन की ओर देख रहे थे। कुछ देर की चुप्पी के बाद श्यामजी ने पन्नी उतार दी। सबने देखा वह एक लकड़ी की छोटी-सी संदूकची थी।
‘‘यह कैसा उपहार दिया है बच्चों ने अपने बाबा को, एक लकड़ी की पुरानी संदूकची ।’’ सब सोच रहे थे। संदूकची बहुत पुरानी लग रही थी। ढक्कन पर जगह-जगह दरारें दिखाई दे रही थी। काली पालिश भी बदरंग हो गई थी।
श्यामजी ने संदूकची को एक-दो बार उलटा-पलटा फिर बोले- ‘‘बच्चों, तुम्हें यह संदूकची कहां मिली! मैं तो इसे न जाने कब से ढूंढ़ रहा था। उसकी आवाज में खुशी झलक रही थी। संदूकची में ताला नहीं लगा था।
श्यामजी ने संदूकची को दोनों हाथों में कस लिया और आंखें बंद कर लीं। कुछ देर वह इसी तरह बैठे रहे। कमरे में खामोशी थी। सब बाबा की ओर देख रहे थे। आखिर कैसी थी यह संदूकची जिसे बाबा बहुत दिन से खोज रहे थे और रचना व राजन ने ढूंढ़कर उसे बाबा को सौंप दिया था।
बारी-बारी से सब रचना और राजन की ओर भी देख रहे थे, जो चुप खड़े थे। आखिर श्यामजी ने संदूकची का ढक्कन खोल डाला उसमें कुछ टटोलने लगे, फिर उन्होंने संदूकची को मेज पर उलट दिया-उसमें कोई कीमती चीज नहीं थी। थे कुछ धुंधले फोटो, कुछ कागज, छोटी-छोटी कई थैलियां और कई पुराने पोस्टकार्ड।
श्यामजी बेचैन हाथों से उन चीजों को उठाकर देखने लगे। देखते समय वह कुछ कहते भी जा रहे थे-लेकिन वह क्या कह रहे थे इसे कोई समझ नहीं पा रहा था। श्यामजी होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदा रहे थे। एक फोटो उठाते, कुछ बुदबुदाते और एक चिट्ठी उठाकर चुपचाप पढ़ने लगते। आखिर कुछ देर बाद उन्होंने कहा-‘‘बच्चों ने तो जैसे  खोया खजाना ही दे दिया है। जानते हो, इनमें बहुत पुराने फोटाग्राफ तथा चिट्ठियां हैं मेरे हाथों की लिखी हुई।’’
सब हैरानी से श्यामजी को देखने लगे। फिर बढ़कर फोटोग्राफ्स और चिटिठ्ठयों के ढेर पर नजर डाली जिसे वे खजाना बता रहे थे। तभी श्यामजी ने रचना से पूछा- ‘‘यह पुरानी संदूकची तुम्हें कहां मिली।’’
जवाब राजन ने दिया। बोला- ‘‘हमारी होमवर्क की कापी मिल नहीं रही थी। ढूंढ़ते हुए हम स्टोर में चले गए जहां बेकार चीजें रखी रहती हें।’’
‘‘कापी मिली या नहीं?’’
‘‘कापी तो नहीं मिली-पर कबाड़ में हमें यह संदूचकी दिखाई दी तो हमने बाहर निकाल ली।’’ रचना बोली। “उसमें रखा सामान देखा पर कुछ समझ नहीं आया।“
‘‘तब हमने सोचा बाबा को जरूर पता होगा इन पुराने कागजों और फोटाग्राफ्स के बारे में। इसीलिए...’’ कहकर राजन  हंसने लगा.
श्यामजी ने कहा- ‘‘ये सभी चीजें बहुत पुरानी हैं-शायद 65 वर्ष या उससे भी ज्यादा पुरानी।“
तभी रमेश ने एक पोस्टकार्ड उठा लिया। पढ़ने लगे”-आदरणीय बाबूजी, यहां सब ठीक है। फिर पत्र के अंत में लिखा नाम पढ़ा-श्याम. यह तो...’’
श्यामजी बोले- ‘‘हां, यह मेरा ही नाम है। असल में तब घर में कोई पढ़ा-लिखा नहीं था.  मेरी नानी , पड़नानी और कुछ और लोग... आगरे में मेरी नानी के भाई रहते थे। मैं उन्हीं को नानी की ओर से चिट्ठी लिखता था। वहां से घर खर्च के लिए पैसे आते थे।’’
रमेश ने एक पोस्टाकर्ड उठा लिया. उस पर लिखी कुछ पंक्तियां लाल स्याही से कटी हुई थीं। और उस पर डाकघर की मुहर भी नहीं थी।
श्यामजी बोले- ‘‘हां, यह चिट्ठी मैंने लिखी थी। आगरे वाले मामाजी के नाम, पर इसे डाक में नहीं डाला गया था।’’
‘‘क्यों?’’ रमेश ने पूछा- ‘‘और लाइनों को लाल स्याही से क्यों काटा गया है। यह किसने किया था?’’ सब कटी हुई पंक्तियों को देखने लगे-लिखा था-मेरा दोस्त अविनाश बहुत बीमार है। हमारे पड़ोस में रहने वाली कला की तबीयत भी काफी खराब रहती है।
श्यामजी बताने लगे -आगरे वाले मामाजी जब दिल्ली आते तो मुझसे कहते-‘‘श्याम, तू चिट्ठी में घर की बातें लिखता है। क्या तेरे पास अपनी कोई बात नहीं होती लिखने के लिए।’’
‘‘तब मैंने सोचा मैं अपनी बात भी लिखूंगा-अविनाथ मेरा दोस्त था-मैंने उसकी बीमारी की बात लिख दी। पड़ोस में रहने वाली कला के बारे में भी लिखा। मैं सोच रहा था मामाजी जब दिल्ली आएंगे तो मैं उन्हें अविनाश और कला  से मिलाने ले जाऊंगा।
‘‘तभी बड़े भैया वहां आए। वह मेरा लिखा पोस्टकार्ड उठाकर पढ़ने लगे। फिर गुस्से से बोले- ‘‘यह अविनाश और कला  कौन हैं-यह क्या बकवास लिख डाली है।’’ और फिर उन्होंने लाल स्याही से अविनाश और कला वाली पंक्तियां काट दीं और पोस्टकार्ड लेकर चले गए।
“मुझे तो रोना आ गया। मैंने कुछ गलत तो नहीं लिखा था। पर मैं क्या कर सकता था। इसके कई दिन बाद मैं भैया के कमरे में गया तो देखा मेज पर वही चिट्ठी रखी थी-यानी भैया ने मेरी लिखी चिट्ठी डाक में नहीं डाली थी। मैंने चुपचाप चिट्ठी उठा ली और बाहर चला आया।
‘‘फिर क्या हुआ’’ रमेश ने पूछा।
‘‘फिर मैंने चुपचाप मामाजी को दोबारा चिट्ठी लिखी उसमें अविनाश और कला की बीमारी के बारे में बताया और जाकर उसे लेटर बॉक्स में डाल आया। इसके कुछ दिन बाद मामाजी आगरा से  दिल्ली आए तो उन्होंने मुझसे पूछा- ‘‘श्याम, यह अविनाश और कला कौन हैं?’’ उस समय बड़े भैया भी वहीं खड़े थे। उन्होंने घूरकर मुझे देखा जैसे कह रहे हों-तुझसे मैं बाद में निपटूंगा। बाबा की यह बात सुनकर कमरे में मौजूद सभी हंस पड़े। रचना और राजन भी मुसकरा उठे।
‘‘तो आपके भैया ने आपको खूब डांटा फटकारा होगा।’’ रमेश ने पूछा।
श्यामजी भी हंस पड़े। आज इतनी पुरानी बातें तो पूरी तरह याद नहीं। हो सकता है भैया ने मुझे डांटा हो। पर मैं खुश था क्योंकि मामाजी मुझसे मेरे बीमार मित्रों के बारे में पूछ रहे थे।मामाजी ने कहा था- ‘‘शाम को मैं तुम्हारे बीमार दोस्तों को देखने चलूंगा।’’
मामाजी की बात सुनकर मैं उत्साह से भर उठा। कुछ देर बाद मैं दौड़ा हुआ अविनाश के घर गया। उसे मामाजी के बारे में बताया। अविनाश के घरवाले अच्छी स्थिति में नहीं थे। वे पहले तो मामाजी को लाने से मना करने लगे, पर फिर मेरे कहने पर मान गए। मामाजी को मैं अविनाश और कला के घर ले गया। मामाजी ने उनका हाल-चाल पूछा। फिर हम लौट आए।
श्यामजी ने आगे बताया- ‘‘मामाजी को मैंने उन दोनों के घर की स्थिति बता दी थी। मामाजी अविनाश और कला के इलाज के लिए कुछ रुपये देना चाहते थे। पर मैंने साफ कह दिया कि मेरे मित्रों के घरवाले पैसे कभी नहीं लेंगे।’’
मामाजी कुछ देर सोचते रहे फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि अविनाश और कला का इलाज  कौन डाक्टर कर रहा है। मैंने उन्हें बताया तो मामाजी मेरे साथ  डाक्टर के पास गए। उनसे बात की और कहा कि वह अविनाश और कला का अच्छे से अच्छा इलाज करें। मामाजी ने डाक्टर से कहा कि वह आगरा से उन्हें पैसे भेजते रहेंगे पर वह अविनाश और कला के घरवालों से इस बारे में कुछ न कहें।’’
इतना कहकर श्यामजी चुप हो गए। कमरे में खामोशी छाई थी। तभी रचना ने पूछा- ‘‘बाबाजी फिर क्या हुआ?’’
बाबा सिर झुकाए बैठे थे। उन्होंने उदास स्वर में कहा-‘‘मामाजी डाक्टर को पैसे भेजते रहे। डाक्टर उन दोनों का मुफ्त इलाज करते रहे। अविनाश तो ठीक हो गया पर-पर...कला की बीमारी ठीक न हुई।’’
रचना और राजन दौड़कर श्यामजी से लिपट गए। माहौल कुछ उदास हो गया था। श्यामजी ने पत्र और फोटो समेटकर संदूकची में रखकर उसे बंद कर दिया। फिर बोले- ‘‘मैं देख रहा हूं कि मेरे बचपन की पिटारी का खुलना तुम सबको उदास कर गया है। यह तो ठीक नहीं. जो बीत गया, बीत गया-उस पर ज्यादा नहीं सोचना चाहिए। हमें आने वाले कल के सपने देखने चाहिए।’’ और फिर राजन और रचना को गोद में भरकर प्यार करने लगे।
बाबाजी के  बचपन की पिटारी बंद हो चुकी थी। उन्होंने संदूचकी को फिर से पन्नी में लपेटकर रमेश से कहा-‘‘इसे अंदर रख आओ।’’
जब रमेश बाबा की संदूकची रखकर लौटा तो सब हंस रहे थे, क्योंकि सबकी फरमाइश पर बाबा ने एक गजल सुनानी शुरू कर दी थी। बाबा के जन्म दिन का रंग जमने लगा था.                ( समाप्त )




बाबा 75 वर्ष के हो जाएंगे। इसे लेकर घर में काफी उत्साह है। खास तौर से रचना और राजन बेहद उत्तेजित हैं। रह-रहकर मम्मी-पापा से पूछ रहे हैं कि ये दोनों बाबा को जन्मदिन का क्या उपहार देने वाले हैं।
पापा यानी रमेश हंसकर कहते हैं-‘‘बच्चों, मैं भला तुम्हारे बाबा को क्या दे सकता हूं। मैं उनके पैर छूकर आशीर्वाद  लूंगा।’’ बच्चों की मम्मी साधना भी यही कहती हैं और हंस देती हैं।
बच्चों के बाबा यानी श्यामजी का जन्मदिन उनके मना करने पर भी मनाया जाता है। उनके बेटे-बेटियां तथा दूसरे रिश्तेदार बधाई देने आते हैं। घर में खूब रौनक होती है। शाम को जब लोग विदा होने लगते हैं तो श्यामजी हरेक को एक बंद लिफाफा थमाते जाते हैं। हर बार ऐसा ही होता है लेकिन इस बार...
हां, इस बार उनके 75 वर्ष पूरे होने पर रमेश ने विशेष आयोजन किया है। ज्यादा लोगों को बुलाया गया है। हालांकि श्यामजी बार-बार मना करते हैं। कहते हैं-‘‘जन्मदिन तो बच्चों का मनाया जाता है बूढ़ों का नहीं।’’ पर उनकी बात कोई नहीं सुनता।
धीरे-धीरे मेहमान आने लगे। श्यामजी का परिवार बड़ा है। नाते-रिश्तेदार तथा उनके मित्र भी आए हैं। सबके हाथों में रंगीन कागजों में लिपटे उपहार के पैकेट हैं। रचना और राजन एक तरफ खड़े देख रहे हैं। एकाएक श्यामजी ने पूछा- ‘‘बच्चों, क्या तुम मुझे कोई उपहार नहीं  दोगे ?’’
सुनकर रचना और राजन दूसरे कमरे में दौड़ गए और रंगीन पन्नी में लिपटा एक बड़ा-सा पैकेट ले आए। सब उनकी ओर देखने लगे। बाबा ने कहा-‘‘रचना और राजन, लगता है आज तुम मुझे कोई बड़ा उपहार देने वाले हो।’’
सुनकर दोनों शरमा गए, बढ़कर उपहार का पैकेट बाबा को थमा दिया। फिर उनके पैर छूने के लिए झुकने लगे तो श्यामजी ने उन्हें आलिंगन में बांध लिया फिर पूछा- ‘‘इसमें क्या है?’’
‘‘खोलकर देख लीजिए।’’ रचना ने कहा।
बाबा कुछ देर पन्नी में लिपटे पैकेट को उलटते-पलटते रहे जैसे पन्नी उतारने से पहले ही अंदर क्या है उसे जानना चाहते हैं। कमरे में खामोशी छा गई थी। सब बारी-बारी से उपहार के पैकेट तथा रचना और राजन की ओर देख रहे थे। कुछ देर की चुप्पी के बाद श्यामजी ने पन्नी उतार दी। सबने देखा वह एक लकड़ी की छोटी-सी संदूकची थी।
‘‘यह कैसा उपहार दिया है बच्चों ने अपने बाबा को, एक लकड़ी की पुरानी संदूकची ।’’ सब सोच रहे थे। संदूकची बहुत पुरानी लग रही थी। ढक्कन पर जगह-जगह दरारें दिखाई दे रही थी। काली पालिश भी बदरंग हो गई थी।
श्यामजी ने संदूकची को एक-दो बार उलटा-पलटा फिर बोले- ‘‘बच्चों, तुम्हें यह संदूकची कहां मिली! मैं तो इसे न जाने कब से ढूंढ़ रहा था। उसकी आवाज में खुशी झलक रही थी। संदूकची में ताला नहीं लगा था।
श्यामजी ने संदूकची को दोनों हाथों में कस लिया और आंखें बंद कर लीं। कुछ देर वह इसी तरह बैठे रहे। कमरे में खामोशी थी। सब बाबा की ओर देख रहे थे। आखिर कैसी थी यह संदूकची जिसे बाबा बहुत दिन से खोज रहे थे और रचना व राजन ने ढूंढ़कर उसे बाबा को सौंप दिया था।
बारी-बारी से सब रचना और राजन की ओर भी देख रहे थे, जो चुप खड़े थे। आखिर श्यामजी ने संदूकची का ढक्कन खोल डाला उसमें कुछ टटोलने लगे, फिर उन्होंने संदूकची को मेज पर उलट दिया-उसमें कोई कीमती चीज नहीं थी। थे कुछ धुंधले फोटो, कुछ कागज, छोटी-छोटी कई थैलियां और कई पुराने पोस्टकार्ड।
श्यामजी बेचैन हाथों से उन चीजों को उठाकर देखने लगे। देखते समय वह कुछ कहते भी जा रहे थे-लेकिन वह क्या कह रहे थे इसे कोई समझ नहीं पा रहा था। श्यामजी होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदा रहे थे। एक फोटो उठाते, कुछ बुदबुदाते और एक चिट्ठी उठाकर चुपचाप पढ़ने लगते। आखिर कुछ देर बाद उन्होंने कहा-‘‘बच्चों ने तो जैसे  खोया खजाना ही दे दिया है। जानते हो, इनमें बहुत पुराने फोटाग्राफ तथा चिट्ठियां हैं मेरे हाथों की लिखी हुई।’’
सब हैरानी से श्यामजी को देखने लगे। फिर बढ़कर फोटोग्राफ्स और चिटिठ्ठयों के ढेर पर नजर डाली जिसे वे खजाना बता रहे थे। तभी श्यामजी ने रचना से पूछा- ‘‘यह पुरानी संदूकची तुम्हें कहां मिली।’’
जवाब राजन ने दिया। बोला- ‘‘हमारी होमवर्क की कापी मिल नहीं रही थी। ढूंढ़ते हुए हम स्टोर में चले गए जहां बेकार चीजें रखी रहती हें।’’
‘‘कापी मिली या नहीं?’’
‘‘कापी तो नहीं मिली-पर कबाड़ में हमें यह संदूचकी दिखाई दी तो हमने बाहर निकाल ली।’’ रचना बोली। “उसमें रखा सामान देखा पर कुछ समझ नहीं आया।“
‘‘तब हमने सोचा बाबा को जरूर पता होगा इन पुराने कागजों और फोटाग्राफ्स के बारे में। इसीलिए...’’ कहकर राजन  हंसने लगा.
श्यामजी ने कहा- ‘‘ये सभी चीजें बहुत पुरानी हैं-शायद 65 वर्ष या उससे भी ज्यादा पुरानी।“
तभी रमेश ने एक पोस्टकार्ड उठा लिया। पढ़ने लगे”-आदरणीय बाबूजी, यहां सब ठीक है। फिर पत्र के अंत में लिखा नाम पढ़ा-श्याम. यह तो...’’
श्यामजी बोले- ‘‘हां, यह मेरा ही नाम है। असल में तब घर में कोई पढ़ा-लिखा नहीं था.  मेरी नानी , पड़नानी और कुछ और लोग... आगरे में मेरी नानी के भाई रहते थे। मैं उन्हीं को नानी की ओर से चिट्ठी लिखता था। वहां से घर खर्च के लिए पैसे आते थे।’’
रमेश ने एक पोस्टाकर्ड उठा लिया. उस पर लिखी कुछ पंक्तियां लाल स्याही से कटी हुई थीं। और उस पर डाकघर की मुहर भी नहीं थी।
श्यामजी बोले- ‘‘हां, यह चिट्ठी मैंने लिखी थी। आगरे वाले मामाजी के नाम, पर इसे डाक में नहीं डाला गया था।’’
‘‘क्यों?’’ रमेश ने पूछा- ‘‘और लाइनों को लाल स्याही से क्यों काटा गया है। यह किसने किया था?’’ सब कटी हुई पंक्तियों को देखने लगे-लिखा था-मेरा दोस्त अविनाश बहुत बीमार है। हमारे पड़ोस में रहने वाली कला की तबीयत भी काफी खराब रहती है।
श्यामजी बताने लगे -आगरे वाले मामाजी जब दिल्ली आते तो मुझसे कहते-‘‘श्याम, तू चिट्ठी में घर की बातें लिखता है। क्या तेरे पास अपनी कोई बात नहीं होती लिखने के लिए।’’
‘‘तब मैंने सोचा मैं अपनी बात भी लिखूंगा-अविनाथ मेरा दोस्त था-मैंने उसकी बीमारी की बात लिख दी। पड़ोस में रहने वाली कला के बारे में भी लिखा। मैं सोच रहा था मामाजी जब दिल्ली आएंगे तो मैं उन्हें अविनाश और कला  से मिलाने ले जाऊंगा।
‘‘तभी बड़े भैया वहां आए। वह मेरा लिखा पोस्टकार्ड उठाकर पढ़ने लगे। फिर गुस्से से बोले- ‘‘यह अविनाश और कला  कौन हैं-यह क्या बकवास लिख डाली है।’’ और फिर उन्होंने लाल स्याही से अविनाश और कला वाली पंक्तियां काट दीं और पोस्टकार्ड लेकर चले गए।
“मुझे तो रोना आ गया। मैंने कुछ गलत तो नहीं लिखा था। पर मैं क्या कर सकता था। इसके कई दिन बाद मैं भैया के कमरे में गया तो देखा मेज पर वही चिट्ठी रखी थी-यानी भैया ने मेरी लिखी चिट्ठी डाक में नहीं डाली थी। मैंने चुपचाप चिट्ठी उठा ली और बाहर चला आया।
‘‘फिर क्या हुआ’’ रमेश ने पूछा।
‘‘फिर मैंने चुपचाप मामाजी को दोबारा चिट्ठी लिखी उसमें अविनाश और कला की बीमारी के बारे में बताया और जाकर उसे लेटर बॉक्स में डाल आया। इसके कुछ दिन बाद मामाजी आगरा से  दिल्ली आए तो उन्होंने मुझसे पूछा- ‘‘श्याम, यह अविनाश और कला कौन हैं?’’ उस समय बड़े भैया भी वहीं खड़े थे। उन्होंने घूरकर मुझे देखा जैसे कह रहे हों-तुझसे मैं बाद में निपटूंगा। बाबा की यह बात सुनकर कमरे में मौजूद सभी हंस पड़े। रचना और राजन भी मुसकरा उठे।
‘‘तो आपके भैया ने आपको खूब डांटा फटकारा होगा।’’ रमेश ने पूछा।
श्यामजी भी हंस पड़े। आज इतनी पुरानी बातें तो पूरी तरह याद नहीं। हो सकता है भैया ने मुझे डांटा हो। पर मैं खुश था क्योंकि मामाजी मुझसे मेरे बीमार मित्रों के बारे में पूछ रहे थे।मामाजी ने कहा था- ‘‘शाम को मैं तुम्हारे बीमार दोस्तों को देखने चलूंगा।’’
मामाजी की बात सुनकर मैं उत्साह से भर उठा। कुछ देर बाद मैं दौड़ा हुआ अविनाश के घर गया। उसे मामाजी के बारे में बताया। अविनाश के घरवाले अच्छी स्थिति में नहीं थे। वे पहले तो मामाजी को लाने से मना करने लगे, पर फिर मेरे कहने पर मान गए। मामाजी को मैं अविनाश और कला के घर ले गया। मामाजी ने उनका हाल-चाल पूछा। फिर हम लौट आए।
श्यामजी ने आगे बताया- ‘‘मामाजी को मैंने उन दोनों के घर की स्थिति बता दी थी। मामाजी अविनाश और कला के इलाज के लिए कुछ रुपये देना चाहते थे। पर मैंने साफ कह दिया कि मेरे मित्रों के घरवाले पैसे कभी नहीं लेंगे।’’
मामाजी कुछ देर सोचते रहे फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि अविनाश और कला का इलाज  कौन डाक्टर कर रहा है। मैंने उन्हें बताया तो मामाजी मेरे साथ  डाक्टर के पास गए। उनसे बात की और कहा कि वह अविनाश और कला का अच्छे से अच्छा इलाज करें। मामाजी ने डाक्टर से कहा कि वह आगरा से उन्हें पैसे भेजते रहेंगे पर वह अविनाश और कला के घरवालों से इस बारे में कुछ न कहें।’’
इतना कहकर श्यामजी चुप हो गए। कमरे में खामोशी छाई थी। तभी रचना ने पूछा- ‘‘बाबाजी फिर क्या हुआ?’’
बाबा सिर झुकाए बैठे थे। उन्होंने उदास स्वर में कहा-‘‘मामाजी डाक्टर को पैसे भेजते रहे। डाक्टर उन दोनों का मुफ्त इलाज करते रहे। अविनाश तो ठीक हो गया पर-पर...कला की बीमारी ठीक न हुई।’’
रचना और राजन दौड़कर श्यामजी से लिपट गए। माहौल कुछ उदास हो गया था। श्यामजी ने पत्र और फोटो समेटकर संदूकची में रखकर उसे बंद कर दिया। फिर बोले- ‘‘मैं देख रहा हूं कि मेरे बचपन की पिटारी का खुलना तुम सबको उदास कर गया है। यह तो ठीक नहीं. जो बीत गया, बीत गया-उस पर ज्यादा नहीं सोचना चाहिए। हमें आने वाले कल के सपने देखने चाहिए।’’ और फिर राजन और रचना को गोद में भरकर प्यार करने लगे।
बाबाजी के  बचपन की पिटारी बंद हो चुकी थी। उन्होंने संदूचकी को फिर से पन्नी में लपेटकर रमेश से कहा-‘‘इसे अंदर रख आओ।’’
जब रमेश बाबा की संदूकची रखकर लौटा तो सब हंस रहे थे, क्योंकि सबकी फरमाइश पर बाबा ने एक गजल सुनानी शुरू कर दी थी। बाबा के जन्म दिन का रंग जमने लगा था.                ( समाप्त )