Friday 31 January 2020

कबूतरों वाली हवेली-कहानी-देवेन्द्र कुमार


कबूतरों वाली हवेली—कहानी-देवेन्द्र कुमार
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  उसे सब कहते थे-कबूतरों वाली हवेली। शहर से स्टेशन की तरफ जाते हुए जहां सड़क नदी के पास से गुजरती है, वहीं बनी है वह हवेली। उसकी ऊंची अटारी दूर से ही दिखाई देती है। लगता है जैसे पुराने जमाने का कोई महल हो। उसके मालिक हैं सेठ लखमा जी। बहुत पैसे वाले हैं। लोग कहते हैं, उनके धन का कोई हिसाब नहीं है। लेकिन आज-कल सेठजी यहां नहीं रहते। इंग्लैंड, अमरीका, यूरोप में बिजनेस है, वहीं घूमते रहते हैं। हवेली के दरवाजे पर पीतल की नेम प्लेट लगी थी। उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था-सेठ लखमा जी बरसावरिया। बरसावरिया उनके गांव का नाम है।
  लेकिन फिर भी लोग उसे कबूतरों वाली हवेली कहते हैं। सेठजी का नाम कभी नहीं लेते-ऐसा क्यों है? यह हवेली के सामने जाने पर ही पता चलता है। हवेली के सामने वाली जमीन पर सुबह से शाम तक हजारों कबूतरों को दाना चुगते देखा जा सकता है। हवा में पंखों की फड़फड़ाहट और कबूतरों की संतुष्ट गुटरगूं सुनाई देती है। लोग आते हैं, दाना खरीदकर कबूतरों को चुगाते हैं और संतुष्ट भाव से चले जाते हैं।
  हवेली के सामने वाली पटरी पर बहुत-से लोग बैठकर दाने बेचते थे। पूरे शहर में कबूतरों वाली हवेली और उसके मालिक का नाम मशहूर हो गया था।
  हवेली नौकरों के हवाले थी। वे हफ्ते में एक बार झाडू-पोंछा कर देते थे। बाकी समय विशाल हवेली अंदर से खामोश रहती थी। कबूतर अधिकार पूर्वक हवेली के हर हिस्से में उड़ते फिरते थे।
  लेकिन एक सुबह वहां विशेष हलचल दिखाई दी। कई कारें आकर रुकीं। अनेक लोग उतरे और हवेली में चले गए। काफी सामान भी साथ था। खबर फैल गई, हवेली के मालिक अमरीका से आए हैं। अब यहीं  रहेंगे।
  उस पूरे दिन हवेली में हलचल रही। दिन भर बड़ी-बड़ी कारों में लोग आते-जाते रहे। दर्जनों नौकर अंदर बाहर भागदौड़ कर रहे थे। लेकिन कबूतरों पर कोई फर्क नहीं पड़ा था। वे उसी तरह हजारों की संख्या में दाना चुगते, उतरते और उड़ते रहे। उनके पंखों की सम्मिलित फड़फड़ाहट काफी दूर-दूर तक सुनी जा सकती थी।
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  अगली सुबह हवेली के मालिक ड्रेसिंग गाउन पहने बाहर निकले और इधर-उधर घूम-घूमकर देखने लगे। कुछ देर खड़े रहे फिर अंदर चले गए। थोड़ी देर बाद दो नौकर बाहर आए और उन्होंने तालियां बजाकर कबूतरों को उड़ा दिया। आवाज होने से कबूतर उस समय तो उड़ गए, लेकिन थोड़ी देर बाद पंख फड़फड़ाते हुए फिर नीचे आ उतरे और मजे से दाना चुगने लगे। कबूतर दाना चुगने लगते तो नौकर उन्हें फिर उड़ा                                                   
देते। हवा में गूंजने वाली पंखों की आवाज और भी तेज हो गई। सारा दिन यही खेल चलता रहा, आसपास देखने वालों की भीड़ लग गई कि कबूतरों वाली हवेली पर क्या तमाशा हो रहा है।
  अमरीका से लौटे सेठजी को कबूतरों का यह रवैया पसंद नहीं था। उन्होंने नौकरों से कह दिया-‘‘कबूतर यहां गंदगी फैलाते हैं, हर समय आवाज होती है, तमाशबीन मजमा लगाए रहते हैं। कबूतरों को यहां मत बैठने दो।’’ फिर तो एक-दो आदमी दिन भर हवेली के बाहर खड़े रहते और कबूतरों को आराम से दाना न चुगने देते। कबूतर नीचे उतरते तो वे आवाज करके उड़ा देते।पर कबूतर थे कि हर बार लौट आते।
  बहुत से फटेहाल लोग लाइन में बैठकर हवेली के सामने दाना बेचते थे। यह भी सेठजी को ठीक नहीं लगता था। उनकी राय में इससे हवेली की शान में फर्क आता था। हवेली के सामने वाली जमीन भी सेठजी की थी। उन्होंने उसके चारों ओर कंटीले तारों की बाड़ लगवा दी। सेठजी को उम्मीद थी कि इस तरह कबूतरों का आना रुक जाएगा। लेकिन इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ा। कबूतर आकाश से उतरते और लोग तारों के बीच से दाने उछालकर अंदर की तरफ फेंक देते।
  एक-दो दिन इसी तरह चला, फिर एक दिन पुलिस की गाड़ी आई और हवेली के बाहर बैठकर दाना बेचने वालों को पकड़ ले गई। सेठजी ने शिकायत की थी कि कुछ लोग गैरकानूनी ढंग से हवेली के बाहर वाली जमीन पर कब्जा जमाए बैठे रहते हैं।
  तार लग गए,  दाने बेचने वाले उठा दिए गए, पर कबूतर फिर भी आते थे। लोग दूर से दाना लाकर वहां डाल देते थे। इसी तरह खेल चलता रहा, सेठजी का गुस्सा था कि बढ़ता जा रहा था। एक सुबह कबूतरों का झुंड वहां दाना चुग रहा था और कंटीले तारों के बाहर लोग रोज की तरह खड़े थे! तभी सेठजी हाथ में शाटगन लेकर निकले। हवा में जोर की आवाज हुई। सारे कबूतर उड़ गए, लेकिन कुछ मरकर वहीं गिर पड़े। खून के छींटे दूर-दूर तक बिखर गए।
  लेकिन कबूतर अभी गए नहीं थे, वे ऊपर आकाश में मंडरा रहे थे। सेठजी ने जोर से कहा-‘‘मैं सारे कबूतरों का खत्मा कर दूंगा। देखता हूं, अब यहां कैसे दाना चुगते हैं।’’ कहकर वे जोर से हंस पड़े। और उन्होंने आकाश की ओर बंदूक का मुंह करके फिर छर्रे दाग दिए। एक साथ कई आवाजें हुईं। कंटीले तारों के बाहर खड़े सब लोग डरकर भाग गए। कबूतर भी एकाएक न जाने कहां चले गए। उनके पंखों की फड़फड़ाहट और संतुष्ट गुटरगूं एकदम बंद हो गई। रह गए हाथ में शाटगन थामे सेठजी। उनके सामने जमीन पर कुछ मरे कबूतर पड़े थे और बिखरी थीं खून की बूंदें।
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  तभी कंटीले तारों के पार खड़े एक बूढ़े ने कहा-‘‘वाह सेठजी, खूब किया। लोग जंगल में मंगल करने की सोचते हैं, लेकिन आपने तो पूरी बस्ती को ही खंडहर बना दिया।’’
  ‘‘बस्ती!’’ सेठजी ने अचरज से पूछा।
  ‘‘यहां हजारों कबूतर आते थे, सैंकड़ों लोग उन्हें दाने डालते थे। न जाने कितने लोगों की रोजी चलती थी। हरी-भरी बस्ती ही तो थी यह कबूतरों वाली हवेली। अब खूनी हवेली कहलाएगी। आपकी बंदूक में इतनी ताकत तो है कि वह मार दे, दूर भगा दे, लेकिन उसमें इतनी शक्ति नहीं कि यहां फैले सन्नाटे को दूर कर दे।’’ यह कहकर वह चला गया। सेठजी शून्य में देखते खड़े रहे, फिर अंदर चले गए। सचमुच बहुत सन्नाटा छा गया था वहां। न हवा में कोई आवाज थी, न बाहर कोई हलचल। सारी आवाजें जैसे एक-साथ खो गई थीं।
  फिर तो वह सन्नाटा जैसे वहां जड़ जमाकर बैठ गया। सेठजी बाहर न आते। आते भी तो जल्दी-से कार में बैठ कर चले जाते। हवेली के चारों ओर सन्नाटे ने जैसे अपना जाला बुन लिया था। कबूतर और मनुष्य-दोनों ने उनका भाव समझ लिया था। लोग वहां से गुजरते तो आपस में इशारे करते हुए। पूरा शहर जान गया कि कबूतरों वाली हवेली का आंगन खून से रंगा था। सेठजी उस सन्नाटे को ज्यादा दिन तक नहीं सह सके।
  कुछ दिन बाद लोगों ने देखा कि कई कारें एक साथ हवेली से निकलीं। उन पर काफी सामान लदा हुआ था। फिर कारें वापस न आईं। पूछने पर पता चला सेठजी सपरिवार तीर्थयात्रा पर गए हैं, और वहीँ  से वापस अमरीका चले जाएंगे। उन्होंने वहां रहने का इरादा छोड़ दिया था। कोई समझ न सका कि ऐसा क्यों हुआ था। फिर एक दिन देखा गया कि मजदूर आकर कंटीले तार हटा रहे हैं। पता चला सेठजी ऐसा ही आदेश दे गए थे।
  थोड़े दिन बाद कबूतर वहां फिर मंडराने लगे। दाने बेचने वालों की कतार नजर आने लगी। सब कुछ पहले जैसा हो गया। कबूतरों वाली हवेली कबूतरों को वापस मिल गई थी।( समाप्त )

Sunday 26 January 2020

बचपन की गलियां-कहानी-देवेन्द्र कुमार


बचपन की गलियां—कहानी—देवेन्द्र कुमार
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       हम में से हर कोई अपने बचपन की खट्टी मीठी यादों में खो जाना चाहता है लेकिन...
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  तीनों सखियाँ—रचना,जया और रंजना सोसाइटी के पार्क में बैठीं धूप का आनन्द ले रही थीं। छुट्टी का दिन, सर्दियों का मौसम—बच्चे घास पर उछल- कूद करते हुए खिलखिला रहे थे। हिरणों की तरह दौड़ते बच्चों को देख कर तीनों मुस्करा उठीं। रचना ने कहा—‘ इन खिलंदड बच्चों को देख कर अपना बचपन  याद आ जाता है,जिसे हम भूल चुके हैं।’
   जया बोली—अपना बचपन सुंदर सपने जैसा लगता है। काश, हमारा बचपन लौट आये, चाहे थोड़ी देर के लिए ही सही।’ रचना ने कहा –‘ छुटपन में हम गर्मियों की छुट्टियों में माँ के साथ नाना जी के गाँव जाया करते थे। हरदम मस्ती और खेलकूद! आज भी याद करती हूँ तो मुंह में मिठास घुल जाता है।
  पर रंजना अब एकाएक चुप हो गई थी,उसके चेहरे पर उदासी थी। रचना और जया ने कुछ अचरज के भाव से कहा-‘ क्या बात है रंजना, बचपन की बात होते ही तुम्हारे मुख पर यह उदासी क्यों छा गई है ! कहीं तुम्हारा बचपन...’
     रंजना ने उनकी बात पूरी  होने से पहले ही कहा –‘नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, मेरा बचपन भी सामान्य बच्चों जैसा था। मौज मज़ा और मस्ती में थिरकता बचपन। लेकिन उन दिनों की मीठी यादों में एक कडवी स्मृति भी है, जो मुझे अपनी गलती की याद दिलाती रहती है, और मेरा मन उदास हो जाता है।’
      ‘कडवी यादें! किस गलती की बात कह रही हो रंजना!’—जया और रचना ने पूछा।
      रंजना कहने लगी—‘मैं भी तुम्हारी तरह गर्मी की छुट्टियों में माँ के साथ ननिहाल जाया करती थी।सचमुच बहुत मज़ा आता था।
एक दिन माँ ने कहा कि आज नानाजी के पास चलना है। सुन कर मन ख़ुशी से झूम उठा। मैंने अपना बैग लगा लिया। फिर कहा-‘माँ, जल्दी चलो।’ माँ बोली-‘ अभी तो घर के कई काम निपटाने हैं,उसके बाद चलेंगे। तेरे पापा भी तो जायेगे, उनके ऑफिस से आने के बाद ही जा सकते हैं।’ पर मेरा मन कह रहा था कि तुरंत उड़ कर नाना-नानी के पास पहुँच जाऊं, लेकिन पापा के दफ्तर से लौटने तक तो इंतजार करना ही था। मम्मी घर के कामों में व्यस्त हो गईं और मैं टी वी देखने लगी। तभी किसी लड़की की चीख सुनाई दी। मैं झट पहचान गई, वह तो शशि की आवाज़ थी।
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मैंने जोर से कहा—‘ मम्मी,शशि क्यों चीख रही है?’और गलियारे में निकल आई, वहां घर का कूड़ादान रखा रहता था। शशि रोज कूड़ा उठाने आया करती थी।लेकिन मम्मी वहां पहले पहुँच गई थीं,उन्होंने शशि का दायाँ पैर पकड़ा हुआ था। शशि के पैर से खून बह रहा था।फर्श पर भी काफी खून फैला था।माँ ने कहा—‘रंजना,जल्दी से रिक्शा बुलाओ,शशि को तुरंत डॉक्टर के पास ले जाना होगा।’ कुछ ही देर में माँ शशि को डाक्टर के पास ले गई।मैं भी साथ थी।
   ‘ शशि को क्या हुआ था ?’—रचना ने पूछा।
    ‘वह रोज हमारे घर का कूड़ा उठाने आया करती थी।’-रंजना ने बताया।’कूड़ा उठाते समय उसका पैर कांच के टूटे टुकड़े पर पड़ा और खून बह चला।’
     ‘फिर’—जया ने पूछा।
    ‘ उसके पैर में गहरा घाव हो गया था। डाक्टर ने घाव की मरहम पट्टी कर दी। शशि के पैर में कई टाँके लगे थे।  डाक्टर ने  उसे १५ दिन तक घर पर आराम करने की सलाह दी थी। उसकी हालत देख कर मुझे रोना आ गया। माँ ने पूछा—‘रंजना, तुम क्यों रो रही हो।शशि जल्दी ठीक हो जायेगी। पर मुझे नहीं लगता कि वह जल्दी काम पर लौट सकेगी।’
 ‘ तो फिर तुम माँ के साथ नानी के पास चली गईं।’ रमा ने पूछा।
  ‘नहीं उस दिन नानी के पास जाना न हो सका।क्योकि माँ शशि को लेकर उसके घर चली गईं।मैं भी साथ थी। और उसी दिन क्यों, बाद में भी ननिहाल नहीं जा सकी। एक दिन पापा ने चलने के लिए  कहा भी पर मैंने ही मना कर दिया।’
    ‘क्यों भला!’—रचना ने पूछा,’   
    ‘ इसलिए कि मेरी गलती से ही शशि का पैर इतनी बुरी तरह घायल हुआ था।’
      ‘तुम ऐसा क्यों कह रही हो।’—रचना और जया ने एक स्वर में पूछा।
       रंजना ने उदास स्वर में कहा-‘मैंने टूटा हुआ शीशे का गिलास कूड़े  में डाल दिया था। जबकि मुझे टूटे गिलास को अलग रखना चाहिए था, उसी के नुकीले टुकड़े से शशि का पैर इतनी बुरी तरह घायल हो गया था। इस गलती के लिए मुझे सदा पछतावा रहेगा। मैंने निश्चय कर लिया था कि मैं रोज शशि को देखने जाया करूंगी। स्कूल से लौट कर मैं शशि के पास चली जाया करती थी। मुझे देखते ही
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शशि हंसने लगती। और कहती— त्तुम्हे देखते ही मेरे पैर का दर्द छूमंतर हो जाता है।’ फिर कस कर मेरा हाथ थाम लेती। पर मैं देख रही थी कि शशि का पैर सूजा हुआ था। पर वह मेरे सामने मुस्करा कर ठीक  होने का दिखावा करती थी। मेरे मन में एक कसक उठती थी, मन कहता था कि अपनी गलती के बारे में शशि को सच बात बता दूं। लेकिन कभी हिम्मत न जुटा सकी। इसी तरह कई दिन बीत गए। एक रात नींद खुल गई और मैं रोने लगी। मन कह रहा था कि गलती मेरी थी और मैं सच कहने का साहस नहीं जुटा पा रही थी।तभी माँ मेरे पास आ गईं और मेरा सिर सहला कर पूछने लगीं—‘क्या बात है, रो क्यों रही हो?’
     माँ के इतना कहते ही मेरी रुलाई और भी जोर से फूट पड़ी।मैंने कहा—‘ शशि को मेरी गलती से ही इतनी गहरी चोट लगी है।’ और उन्हें टूटे गिलास के बारे में बता गई। माँ ने मुझे गोदी में भर लिया और कहा—‘बेटी, गलती किसी से भी हो सकती है।पर उसे स्वीकार करने का साहस हर किसी में नहीं होता,अब आराम से सो जाओ, तुमने मुझे अपनी गलती बता कर मन पर रखा बोझ उतार दिया है। बाकी बात कल करेंगे।’
    ‘ तो अगली सुबह क्या हुआ?’—जया ने पूछा
     ‘अगली दोपहर जब मैं शशि से मिलने के लिए चली तो माँ भी मेरे साथ थी। माँ को देख कर शशि के घर वाले कुछ अचकचा गए। क्योंकि कई दिनों से मैं अकेली ही शशि के पास जाया करती थी। शशि की माँ ने कहा—‘ आपने क्यों तकलीफ की।शशि तो अब पहले काफी ठीक है। और वैसे भी रंजना तो रोज शशि से मिलने आती ही है।’
     मम्मी ने कहा—‘मुझे एक विशेष कारण से आना पड़ा है। रंजना अपने मन पर बोझ लिए फिर रही है, उसके हाथ से एक भारी गलती हुई है,इसके कारण ही शशि का पैर बुरी तरह घायल हुआ है।’ और फिर माँ ने टूटे गिलास वाली बात शशि की माँ को बता दी।
      कमरे में कुछ देर मौन छाया रहा, शशि की माँ ने कहा—‘बहनजी, हमारा काम ही कुछ ऐसा है, उसमें चोट लगती ही रहती है।कई बार चोट गंभीर भी होती है। लेकिन आज तक किसी ने भी आगे आकर यह नहीं कहा कि चोट ऊसकी गलती से लगी थी। आपकी बेटी बहुत हिम्मती है,जो अपनी गलती स्वीकार करने के लिए आगे आई है।’
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   माँ ने कहा—‘ रंजना को लगता है कि सच पता लगने पर कहीं शशि उससे नफरत न करने लगे।’ माँ के इतना कहते ही शशि ने मेरा हाथ थाम लिया। उसकी आँखों से आंसू बह चले। मैं भी अपनी रुलाई न रोक सकी। इसके कुछ देर बाद हम अपने घर लौट आये।मेरा मन हल्का हो चुका था।’
     जया ने कहा—‘ अंत भला तो सब भला। तब फिर आज उस घटना को लेकर तुम्हारा मन परेशान क्यों है?’
      इसका कारण है उस दिन के बाद मेरा शशि से कभी न मिल पाना,’’—रंजना ने उदास स्वर में कहा।
      ‘आखिर ऐसा क्या हुआ कि तुम शशि से फिर कभी नहीं मिल पाई।’ –जया और रचना ने जानना चाहा।      
    ‘उसी शाम पापा दफ्तर से घर आये तो उन्होंने बताया कि उनका ट्रान्सफर हो गया है। यह कोई नई बात नहीं थी।मम्मी तुरंत सामान की पैकिंग में लग गई। पापा भी अपना सामान समेटने लगे। अगला पूरा दिन भी इसी हड़बड़ी में चला गया। शशि के पास जाना न हो सका। हमने दो दिन बाद उस शहर को छोड़ दिया। शशि से आखिरी बार मिलने की इच्छा अधूरी ही रह गई, जो आज तक पूरी न हो सकी।
    रचना और जया चुपचाप सुन रही थीं। रंजना कहती रही—‘ फिर तो वर्ष तेजी से भागते रहे। मेरी पढाई पूरी हुई और फिर शादी हो गई। पर शशि से मिलने की इच्छा बनी  ही रही। कुछ वर्ष पहले पुराने शहर जाना हुआ। अब सब कुछ बदल गया था। मैं उस बस्ती में गई जहाँ शशि का परिवार रहता था,पर वहां ऊँची इमारतें बन गई थीं। मैंने लोगों से पूछा पर कुछ पता न चला। मैं निराश मन से लौट आई।’
     जया ने कहा—‘ तुम्हारी तरह शशि की भी शादी हो चुकी होगी। हमें आशा करनी चाहिए कि वह अपने परिवार के साथ स्वस्थ और सुखी हो।’  
      रंजना ने कहा –‘ईश्वर करे ऐसा ही हो। जब भी बचपन का ध्यान आता है शशि वाली घटना एकदम सामने  आ जाती है और
       रचना बोली—‘ बचपन की गलती का बोझ इतने वर्षों तक साथ लेकर चलना ठीक नहीं। बचपन की गलियों में न जाने कितना कुछ घट जाता है। तुमने अपनी भूल मान ली, क्या यही काफी नहीं,अब मुस्करा भी दो। बच्चों की ख़ुशी में शामिल हो जाओ।‘ पार्क में बच्चे खिलखिला रहे थे। रंजना मुस्करा दी।( समाप्त)

Thursday 2 January 2020

बच्चे फूल हैं--कहानी--देवेन्द्र कुमार


बच्चे फूल हैं—कहानी—देवेन्द्र कुमार



  सुबह का समय। छुट्टी का दिन था। अभी सूरज पूरी तरह उगा नहीं था। सैलानी बाग में सैर कर रहे थे। हल्की हवा बदन पर अच्छी लग रही थी। पेड़-पौधों के पत्ते और टहनियों पर झूलते सुंदर सुगंधित फूल धीरे-धीरे हिल-डुल रहे थे जैसे आपस में बातें कर रहे हों। फूलों की मीठी-मीठी खुशबू हवा में तैर रही थी।
  दो व्यक्ति एक क्यारी के पास रुककर वहां खिले फूलों को देखने लगे। बहुत सुंदर दृश्य था। एक ने दूसरे से कहा-‘‘अद्भुत। अति सुंदर।’’
 दूसरे ने जवाब दिया-‘‘आपने ठीक कहा। फूल ऐसे लग रहे हैं जैसे सुंदर-सलोने बच्चों के झुंड।‘’
-‘‘हां, बच्चे इन फूलों जैसे सुकोमल होते हैं।’’ दोनों व्यक्ति कुछ देर फूलों की क्यारी के पास रुककर इसी बारे में बातें करते रहे---फूलों जैसे बच्चों और बच्चों जैसे फूल।
 फूल भी उनकी बातें ध्यान से सुन रहे थे। उन दोनों के जाने के बाद एक फूल ने दूसरे फूल से कहा-‘‘तुमने सुना इन दोनों ने क्या कहा।‘’
‘‘हां, सुना। वे बच्चों की तुलना हम फूलों से कर रहे थे।’’
‘‘लेकिन बच्चे तो मनुष्य की संतान हैं। वे हम फूलों जैसे कैसे हो सकते हैं।’’
  दूसरा फूल बोला-‘‘यह सब मैं नहीं जानता। लेकिन अक्सर ही मां-बाप कहते हैं—‘’मेरा बच्चा फूलों जैसा कोमल है, नाजुक है।’’
  खामोशी छा गई। हवा का झोंका आया तो फूल फिर से डालियों पर हिलडुल करने लगे। फूल ने हवा से पूछा तो हवा ने भी वही कहा। फूल बोला--‘‘मैं भी देखना चाहता हूं उन बच्चों को जिनकी तुलना उनके मां-बाप हमसे करते हैं। लेकिन मैं भला कैसे कहीं जा सकता हूं, मैं तो टहनी से जुड़ा हूं।’’ तभी हवा का दूसरा तेज झोंका आया और पौधे को हिला गया। एक कोमल टहनी पौधे से अलग हो गई। टहनी पर एक फूल खिला हुआ था। हवा फूल वाली टहनी को उड़ा ले चली ।
  ‘‘वाह!’’ फूल ने कहा। उसे लग रहा था जैसे वह बंधन मुक्त हो गया है। अब कहीं भी जा सकता है। हवा फूल को उडाए लिए जा रही थी। आगे कूड़े का बड़ा ढेर पड़ा था| हवा कूड़े के ढेर के ऊपर से गुजरी तो बदबू से सामना हुआ|
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  फूल ने देखा दो बच्चे कूड़े के ढेर में जैसे कुछ खोज रहे थे। कूड़े में से निकालकर कुछ चीजें पास में रखी एक बड़ी बोरी में डालते जा रहे थे।
 फूल ने हवा  से पूछा--‘‘क्या इन बच्चों को हम फूलों जैसा कहा जा सकता है?’’
  हवा बोली--‘‘भले ही ये दोनों बच्चे गंदे और मैले-कुचैले हैं, पर शायद इनके मां-बाप को इनका चेहरा फूलों जैसा सुंदर लगता होगा।’’
  फूल ने कहा--‘‘ये तो बहुत गंदे हैं। देखो तो सब तरफ कितनी बदबू फैली है।’’
  हवा बोली-‘‘ये गरीब हैं न। घर गंदा, बस्ती गंदी। पेट भरने के लिए इन बच्चों के मां-बाप कूड़े के ढेर में से काम लायक चीजें चुनकर बेचते हैं, तब इनका घर चलता है। ये बच्चे इस काम में अपने मां-बाप की मदद करते हैं। लो, इनसे बात करो। इनका हाल-चाल पूछो।’’ इतना कहकर हवा ने फूल को बच्चों के पास कूड़े के ढेर पर छोड़ दिया और आगे चली गई। अब फूल कूड़े के बड़े ढेर पर पड़ा हुआ सोच रहा था--‘‘यह मैं कहां आ गया!’’
  दोनों बच्चों के नाम थे किशोर और कमल। कूड़े के ढेर में काम लायक चीजें ढूंढ़ते हुए एकाएक कमल के हाथ रुक गए। उसने गहरी सांस ली। उसके मुंह से निकला-‘‘वाह! कितनी अच्छी खुशबू है।’’
  किशोर ने कमल की ओर देखा। बोला-‘‘इस बदबू के बीच खुशबू कहां से आ गई।’’ फिर उन दोनों की नजर एक साथ फूल पर जा टिकीं। लाल रंग का सुंदर फूल। इसी में से भीनी-भीनी खुशबू आ रही थी। दोनों ने फूल को उठाने के लिए हाथ बढ़ाए फिर रुक गए। दोनों की हथेलियां गंदगी से काली हो रही थीं।
  ‘‘फूल को मत छुओ। उसे देखो। देखो न हमारे हाथ कितने गंदे हैं।’’ कमल बोला। मेरी मां कहती है फूल कोमल होते हैं। उन्हें तो दूर से देखना चाहिए। छूना या तोड़ना नहीं चाहिए।’’
  किशोर ने कहा-‘‘अरे हमने इस फूल  को तोड़ा कहां है। यह तो हवा में उड़कर अपने आप हमारे पास आ गया है। मैंने तो कभी किसी फूल को छूकर नहीं देखा है।’’ कहते-कहते किशोर ने फूल को उठाकर अपने गंदे गाल से लगा लिया। गाल कालिख से काला हो रहा था।
  ‘‘अरे ये फूल गंदा हो जाएगा। शीशे में अपना मुंह तो देख ले जरा।’’ कमल ने उसे चिढ़ाया। पर किशोर फूल को इसी तरह अपने गाल से सटाए खड़ा रहा, फिर जोर-जोर से सूंघने लगा। ‘‘वाह, कितनी अच्छी खुशबू है।’’
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  ‘‘क्या फूल की सारी खुशबू तू खुद ही सूंघ लेगा। जरा मुझे भी तो  छूने  दे इस फूल को।’’ कमल ने याचना भरे स्वर में कहा।
  ‘‘जरा अपना मुंह और अपनी हथेलियां तो देख।’’ कहकर किशोर मुस्कराया और उसने फूलदार टहनी कमल को थमा दी। ‘‘सचमुच बहुत अच्छी खुशबू है। न जाने गंदगी के इस ढेर पर इतना सुंदर सुगंधित फूल कहां से आ गया।’’ कमल ने कहा। फिर दोनेां बारी-बारी से फूल को छूते और सूंघते रहे। वे गंदगी के ढेर से काम लायक चीजें ढूंढ़ने का अपना काम भूल चुके थे।
  ‘‘इस तरह हम फूल को बार-बार छुएंगे तो यह मुरझा जा जाएगा। इसकी खुशबू खत्म हो जाएगी।’’ किशोर ने कहा।
  ‘‘चलो, यहां से चलें और साफ-सुथरी जगह पर बैठकर इस फूल से इसका हाल-चाल पूछे।’’ कमल बोला।
 ‘‘मगर बोरी नहीं भरी तो बप्पा नाराज हो जाएंगे।’’ किशोर ने कहा.
  पर  कमल ने जैसे किशोर की बात सुनी ही नहीं थी। उसकी आंखें कूड़े के ढेर पर कुछ खोज रही थी। कुछ दूरी पर एक टूटा हुआ गमला पड़ा था। कमल ने गमले को उठा लिया, फिर मिट्टी डालकर फूलदार टहनी को गमले में बिठा दिया।
 ‘‘ अब बन गई बात!’’ किशोर ने कहा।‘’ कई बार बाग से गुजरते हुए गमलों में लगे फूल देखे हैं मैंने, पर यह गमला तो टूटा हुआ है। फूल इसमें कैसे टिकेगा?’’
  ‘‘मैं इसे घर ले जाऊंगा।’’  कमल  बोला-‘‘और इसे मां को दे दूंगा। वह इसे संभालकर रखेगी। कुछ दिन बाद टहनी पर और भी फूल आ जाएंगे।’’
  ‘‘दम घुट जाएगा बेचारे फूल का तुम्हारी झोपड़ी में। फूलों को हवा और धूप चाहिए।‘’—किशोर बोला
  ‘‘तब क्या करें?’’
  ‘‘फूल को यहीं रहने दो। बोरी भरने का काम भी तो पूरा करना है, वरना डांट पड़ेगी।’’ कमल ने अपनी भरी बोरी को हिलाकर देखा। वह फूल को भूल जाना चाहता था। पर आंखें थीं कि उस तरफ से हट ही नहीं रही थीं।
  किशोर और कमल फिर से अपने काम में लग गए। पास में टूटे गमले में फूल हवा में हिलडुल रहा था।
  ‘‘मैं तो फूल से बात करूंगा।’’ कमल ने बोरी को एक तरफ रखते हुए कहा--‘’ काम तो हम रोज ही करते हैं।आओ फूल से बातें करें।’’
  ‘‘हां, दोस्ती करें। इस काम में हाथ गंदे करते हुए सारा दिन बीत जाता है।‘’
  ‘‘सुबह-शाम कुछ पता ही नहीं चलता।’’

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  ‘‘मैं बप्पा से कहूंगा कि कूड़े में हाथ गंदे न करें। कमल ने कहा।
  ‘‘मैं भी यही कहूंगा।’’ किशोर ने हां में हां मिलाई। ‘‘लेकिन वह तो कूड़े वाला काम ही जानते हैं। हमसे भी यही करवाते हैं।’’
  ‘‘मैं तो फूलों का काम करूंगा।’’
  ‘‘फूलों का काम! कैसा काम!’’
  ‘‘कोई भी काम...फूलों के बीच रहूंगा। फूलों से बात करूंगा। कूड़े से नफरत है मुझे।’’
  ‘‘मुझे भी...आओ अपने इस दोस्त से बात करें।’’ और दोनों टूटे गमले को बीच में रखकर बैठ गए। कूड़े के विशाल ढेर से बदबू आ रही थी। नीले आकाश में परिंदे शोर कर रहे थे। टूटे गमले में लगा फूल खुश था उसे दो नए दोस्त मिल गए थे। तीन फूल हंस रहे थे।===