बचपन की गलियां—कहानी—देवेन्द्र कुमार
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हम में से हर कोई अपने बचपन की खट्टी
मीठी यादों में खो जाना चाहता है लेकिन...
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तीनों सखियाँ—रचना,जया और रंजना सोसाइटी के
पार्क में बैठीं धूप का आनन्द ले रही थीं। छुट्टी का दिन, सर्दियों का मौसम—बच्चे
घास पर उछल- कूद करते हुए खिलखिला रहे थे। हिरणों की तरह दौड़ते बच्चों को देख कर
तीनों मुस्करा उठीं। रचना ने कहा—‘ इन खिलंदड बच्चों को देख कर अपना बचपन याद आ जाता है,जिसे हम भूल चुके हैं।’
जया बोली—‘अपना बचपन सुंदर सपने जैसा लगता है। काश, हमारा
बचपन लौट आये, चाहे थोड़ी देर के लिए ही सही।’ रचना ने कहा –‘ छुटपन में हम गर्मियों
की छुट्टियों में माँ के साथ नाना जी के गाँव जाया करते थे। हरदम मस्ती और खेलकूद!
आज भी याद करती हूँ तो मुंह में मिठास घुल जाता है।’
पर रंजना अब एकाएक चुप हो गई थी,उसके चेहरे पर
उदासी थी। रचना और जया ने कुछ अचरज के भाव से कहा-‘ क्या बात है रंजना, बचपन की
बात होते ही तुम्हारे मुख पर यह उदासी क्यों छा गई है ! कहीं तुम्हारा बचपन...’
रंजना ने उनकी बात पूरी होने से पहले ही कहा –‘नहीं नहीं ऐसी कोई बात
नहीं है, मेरा बचपन भी सामान्य बच्चों जैसा था। मौज मज़ा और मस्ती में थिरकता बचपन।
लेकिन उन दिनों की मीठी यादों में एक कडवी स्मृति भी है, जो मुझे अपनी गलती की याद
दिलाती रहती है, और मेरा मन उदास हो
जाता है।’
‘कडवी यादें! किस गलती की बात कह रही हो
रंजना!’—जया और रचना ने पूछा।
रंजना कहने लगी—‘मैं भी तुम्हारी तरह गर्मी की छुट्टियों में माँ के साथ ननिहाल जाया करती थी।सचमुच बहुत मज़ा आता था। एक दिन माँ ने कहा कि आज नानाजी के पास चलना है। सुन कर मन ख़ुशी से झूम उठा। मैंने अपना बैग लगा लिया। फिर कहा-‘माँ, जल्दी चलो।’ माँ बोली-‘ अभी तो घर के कई काम निपटाने हैं,उसके बाद चलेंगे। तेरे पापा भी तो जायेगे, उनके ऑफिस से आने के बाद ही जा सकते हैं।’ पर मेरा मन कह रहा था कि तुरंत उड़ कर नाना-नानी के पास पहुँच जाऊं, लेकिन पापा के दफ्तर से लौटने तक तो इंतजार करना ही था। मम्मी घर के कामों में व्यस्त हो गईं और मैं टी वी देखने लगी। तभी किसी लड़की की चीख सुनाई दी। मैं झट पहचान गई, वह तो शशि की आवाज़ थी।
रंजना कहने लगी—‘मैं भी तुम्हारी तरह गर्मी की छुट्टियों में माँ के साथ ननिहाल जाया करती थी।सचमुच बहुत मज़ा आता था। एक दिन माँ ने कहा कि आज नानाजी के पास चलना है। सुन कर मन ख़ुशी से झूम उठा। मैंने अपना बैग लगा लिया। फिर कहा-‘माँ, जल्दी चलो।’ माँ बोली-‘ अभी तो घर के कई काम निपटाने हैं,उसके बाद चलेंगे। तेरे पापा भी तो जायेगे, उनके ऑफिस से आने के बाद ही जा सकते हैं।’ पर मेरा मन कह रहा था कि तुरंत उड़ कर नाना-नानी के पास पहुँच जाऊं, लेकिन पापा के दफ्तर से लौटने तक तो इंतजार करना ही था। मम्मी घर के कामों में व्यस्त हो गईं और मैं टी वी देखने लगी। तभी किसी लड़की की चीख सुनाई दी। मैं झट पहचान गई, वह तो शशि की आवाज़ थी।
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मैंने
जोर से कहा—‘ मम्मी,शशि क्यों चीख रही है?’और गलियारे में निकल आई, वहां घर का
कूड़ादान रखा रहता था। शशि रोज कूड़ा उठाने आया करती थी।लेकिन मम्मी वहां पहले पहुँच
गई थीं,उन्होंने शशि का दायाँ पैर पकड़ा हुआ था। शशि के पैर से खून बह रहा था।फर्श
पर भी काफी खून फैला था।माँ ने कहा—‘रंजना,जल्दी से रिक्शा बुलाओ,शशि को तुरंत
डॉक्टर के पास ले जाना होगा।’ कुछ ही देर में माँ शशि को डाक्टर के पास ले गई।मैं
भी साथ थी।
‘ शशि को क्या हुआ था ?’—रचना ने पूछा।
‘वह रोज हमारे घर का कूड़ा उठाने आया करती थी।’-रंजना
ने बताया।’कूड़ा उठाते समय उसका पैर कांच के टूटे टुकड़े पर पड़ा और खून बह चला।’
‘फिर’—जया ने पूछा।
‘ उसके पैर में गहरा घाव हो गया था। डाक्टर
ने घाव की मरहम पट्टी कर दी। शशि के पैर में कई टाँके लगे थे। डाक्टर ने उसे १५ दिन तक घर
पर आराम करने की सलाह दी थी। उसकी हालत देख कर मुझे रोना आ गया। माँ ने पूछा—‘रंजना, तुम क्यों रो रही हो।शशि जल्दी ठीक हो जायेगी।
पर मुझे नहीं लगता कि वह जल्दी काम पर लौट सकेगी।’
‘ तो फिर तुम माँ के साथ नानी के पास चली गईं।’
रमा ने पूछा।
‘नहीं उस दिन नानी के पास जाना न हो सका।क्योकि
माँ शशि को लेकर उसके घर चली गईं।मैं भी साथ थी। और उसी दिन क्यों, बाद में भी
ननिहाल नहीं जा सकी। एक दिन पापा ने चलने के लिए
कहा भी पर मैंने ही मना कर दिया।’
‘क्यों भला!’—रचना ने पूछा,’
‘
इसलिए कि मेरी गलती से ही शशि का पैर इतनी बुरी तरह घायल हुआ था।’
‘तुम ऐसा क्यों कह रही हो।’—रचना और जया ने
एक स्वर में पूछा।
रंजना ने उदास स्वर में कहा-‘मैंने टूटा
हुआ शीशे का गिलास कूड़े में डाल दिया था।
जबकि मुझे टूटे गिलास को अलग रखना चाहिए था, उसी के नुकीले टुकड़े से शशि का पैर
इतनी बुरी तरह घायल हो गया था। इस गलती के लिए मुझे सदा पछतावा रहेगा। मैंने
निश्चय कर लिया था कि मैं रोज शशि को देखने जाया करूंगी। स्कूल से लौट कर मैं शशि के
पास चली जाया करती थी। मुझे देखते ही
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शशि
हंसने लगती। और कहती—‘
त्तुम्हे देखते ही मेरे पैर का दर्द छूमंतर हो जाता है।’ फिर कस कर मेरा हाथ थाम
लेती। पर मैं देख रही थी कि शशि का पैर सूजा हुआ था। पर वह मेरे सामने मुस्करा कर
ठीक होने का दिखावा करती थी। मेरे मन में
एक कसक उठती थी, मन कहता था कि अपनी गलती के बारे में शशि को सच बात बता दूं।
लेकिन कभी हिम्मत न जुटा सकी। इसी तरह कई दिन बीत गए। एक रात नींद खुल गई और मैं
रोने लगी। मन कह रहा था कि गलती मेरी थी और मैं सच कहने का साहस नहीं जुटा पा रही
थी।तभी माँ मेरे पास आ गईं और मेरा सिर सहला कर पूछने लगीं—‘क्या बात है, रो क्यों
रही हो?’
माँ के इतना कहते ही मेरी रुलाई और भी जोर
से फूट पड़ी।मैंने कहा—‘ शशि को मेरी गलती से ही इतनी गहरी चोट लगी है।’ और उन्हें
टूटे गिलास के बारे में बता गई। माँ ने मुझे गोदी में भर लिया और कहा—‘बेटी, गलती
किसी से भी हो सकती है।पर उसे स्वीकार करने का साहस हर किसी में नहीं होता,अब आराम
से सो जाओ, तुमने मुझे अपनी गलती बता कर मन पर रखा बोझ उतार दिया है। बाकी बात कल
करेंगे।’
‘ तो अगली सुबह क्या हुआ?’—जया ने पूछा
‘अगली दोपहर जब मैं शशि से मिलने के लिए चली
तो माँ भी मेरे साथ थी। माँ को देख कर शशि के घर वाले कुछ अचकचा गए। क्योंकि कई
दिनों से मैं अकेली ही शशि के पास जाया करती थी। शशि की माँ ने कहा—‘ आपने क्यों
तकलीफ की।शशि तो अब पहले काफी ठीक है। और वैसे भी रंजना तो रोज शशि से मिलने आती
ही है।’
मम्मी ने कहा—‘मुझे एक विशेष कारण से आना
पड़ा है। रंजना अपने मन पर बोझ लिए फिर रही है, उसके हाथ से एक भारी गलती हुई
है,इसके कारण ही शशि का पैर बुरी तरह घायल हुआ है।’ और फिर माँ ने टूटे गिलास वाली
बात शशि की माँ को बता दी।
कमरे में कुछ देर मौन छाया रहा, शशि की माँ
ने कहा—‘बहनजी, हमारा काम ही कुछ ऐसा है, उसमें चोट लगती ही रहती है।कई बार चोट
गंभीर भी होती है। लेकिन आज तक किसी ने भी आगे आकर यह नहीं कहा कि चोट ऊसकी गलती
से लगी थी। आपकी बेटी बहुत हिम्मती है,जो अपनी गलती स्वीकार करने के लिए आगे आई है।’
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माँ ने कहा—‘ रंजना को लगता है कि सच पता लगने
पर कहीं शशि उससे नफरत न करने लगे।’ माँ के इतना कहते ही शशि ने मेरा हाथ थाम लिया।
उसकी आँखों से आंसू बह चले। मैं भी अपनी रुलाई न रोक सकी। इसके कुछ देर बाद हम
अपने घर लौट आये।मेरा मन हल्का हो चुका था।’
जया ने कहा—‘ अंत भला तो सब भला। तब फिर आज
उस घटना को लेकर तुम्हारा मन परेशान क्यों है?’
इसका कारण है उस दिन के बाद मेरा शशि से
कभी न मिल पाना,’’—रंजना ने उदास स्वर में कहा।
‘आखिर ऐसा क्या हुआ कि तुम शशि से फिर कभी
नहीं मिल पाई।’ –जया और रचना ने जानना चाहा।
‘उसी शाम पापा दफ्तर से घर आये तो उन्होंने
बताया कि उनका ट्रान्सफर हो गया है। यह कोई नई बात नहीं थी।मम्मी तुरंत सामान की
पैकिंग में लग गई। पापा भी अपना सामान समेटने लगे। अगला पूरा दिन भी इसी हड़बड़ी में
चला गया। शशि के पास जाना न हो सका। हमने दो दिन बाद उस शहर को छोड़ दिया। शशि से
आखिरी बार मिलने की इच्छा अधूरी ही रह गई, जो आज तक पूरी न हो सकी।
रचना और जया चुपचाप सुन रही थीं। रंजना कहती
रही—‘ फिर तो वर्ष तेजी से भागते रहे। मेरी पढाई पूरी हुई और फिर शादी हो गई। पर
शशि से मिलने की इच्छा बनी ही रही। कुछ
वर्ष पहले पुराने शहर जाना हुआ। अब सब कुछ बदल गया था। मैं उस बस्ती में गई जहाँ
शशि का परिवार रहता था,पर वहां ऊँची इमारतें बन गई थीं। मैंने लोगों से पूछा पर
कुछ पता न चला। मैं निराश मन से लौट आई।’
जया
ने कहा—‘ तुम्हारी तरह शशि की भी शादी हो चुकी होगी। हमें आशा करनी चाहिए कि वह
अपने परिवार के साथ स्वस्थ और सुखी हो।’
रंजना
ने कहा –‘ईश्वर करे ऐसा ही हो। जब भी बचपन का ध्यान आता है शशि वाली घटना एकदम
सामने आ जाती है और…’
रचना बोली—‘ बचपन की गलती का बोझ इतने
वर्षों तक साथ लेकर चलना ठीक नहीं। बचपन की गलियों में न जाने कितना कुछ घट जाता
है। तुमने अपनी भूल मान ली, क्या यही काफी नहीं,अब मुस्करा भी दो। बच्चों की ख़ुशी
में शामिल हो जाओ।‘ पार्क में बच्चे खिलखिला रहे थे। रंजना मुस्करा दी।( समाप्त)
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