Sunday 11 September 2016

अध्यापक , देवेन्द्र कुमार,बाल कहानी



बस में उस लड़के ने ऐसा क्या किया जो रामेश्वर का खेल ही बिगड़ गया. वह बहुत गुस्से में था. और फिर दोनों हंसने लगे .हँसते गए. बस में बैठे लोग हैरान थे. आखिर हुआ क्या था.

बस में बहुत भीड़ थी और उस पर गरमी का मौसम। घुटन के मारे लोगों का बुरा हाल था, लेकिन फिर भी वे भेड़-बकरियों की तरह यात्रा करने को विवश थे। अगर आराम से यात्रा करने की सोचें तो बस में चढ़ने के लिए एक-दो घंटे नहीं, शायद कई दिनों तक प्रतीक्षा करनी पड़े।
पर रामेश्वर के लिए यों सफर करना कोई मजबूरी नहीं थी और उस भीड़-भाड़ में उसका जी भी नहीं घबराता था, बल्कि वह एक तरह का आराम अनुभव कर रहा था।
रामेश्वर कभी खाली बस में नहीं चढ़ता। वह हमेशा उस बस में चढ़ता है, जिसमें यात्री ठसाठस भरे होते हैं। कोई उससे इसका  कारण जानना चाहे तो वह हँसकर रह जाएगा। जवाब उसकी आंखें दे रही होंगी, ‘क्या किया जाए अपना धंधा ही ऐसा है।
बस में रामेश्वर की आंखें उस काली टोपी वाले की ओर लगी हुई थीं, जो इस समय उससे थोड़ा आगे खड़ा था। बस में चढ़ते समय रामेश्वर उस व्यक्ति के बिलकुल पीछे था। बाद में धक्का-मुक्की के कारण बीच में दो व्यक्ति और आ गए थे।
वह काली टोपी वाला व्यक्ति काफी देर से रामेश्वर की नजरों में था। कुछ देर पहले जब रामेश्वर बस-स्टैंड पर खड़ा ठसाठस भरीबस का इंतजार कर रहा था तो वह आदमी नजर आया था। रामेश्वर ने उसे सड़क के पार वाले बैंक से निकलते देखा था। बाहर आते ही उस व्यक्ति ने अपने कोट की अंदर वाली जेब पर हाथ रखा था और फिर तुरंत हटा भी लिया था, लेकिन रामेश्वर के लिए इतना ही संकेत बहुत था। रामेश्वर दिलचस्पी से उस आदमी को परखता रहा। वह आदमी
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बैंक की सीढि़यों पर खड़ा-खड़ा इधर-उधर देखता रहा, फिर अनिश्चित कदमों से टैक्सी-स्टैंड की तरफ चल दिया। यह देखकर रामेश्वर थोड़ा निराश हो गया, लेकिन फिर उसने देखा कि काली टोपी वाला आदमी टैक्सी में नहीं बैठ रहा है। वह कुछ इस तरह खड़ा थ कि टैक्सी वाले उसे सवारी मान भी सकते थे  और नहीं भी
वह टैक्सी में नहीं बैठेगा। वह डर रहा है।रामेश्वर ने मन ही मन कहा।
रामेश्वर का अनुमान ठीक निकला। कुछ देर टैक्सी-स्टैंड पर खड़े रहने के बाद वह आदमी बस स्टैंड पर आ गया। वह रामेश्वर के पास आ खड़ा हुआ और उसने गहरी नजरों से रामेश्वर को देखा। इसके बाद टोपी वाले ने जल्दी-जल्दी कोट के बंद बटनों पर हाथ फिराया। बीच में उसकी उंगलियां अंदर वाली जेब पर रुकीं। रामेश्वर ने ध्यान में यह सब देखा। अब शक की गुंजाइश नहीं था। रामेश्वर ने उसे अपना शिकार मान लिया था। लंबा हाथ मारने की कल्पना से वह मन ही मन प्रसन्न हो उठा। अब रामेश्वर को बस में कुछ पलों के लिए उसके पास खड़े होने का मौका चाहिए था। एकाएक ड्राइवर ने जोर का ब्रेक लगाया और रामेश्वर अपने आगे वाले यात्री से जा टकराया।
‘‘संभलकर नहीं खड़ा हुआ जाता।’’ वह आदमी गुर्राया।
‘‘मेरा क्या दोष है भैया!’’ रामेश्वर ने नरम स्वर में कहा और उसकी बगल से आगे निकल आया। अब उसके और टोपी वाले के बीच में बस एक आदमी और था।
रामेश्वर अगल-बगल की सीटों पर बैठे लोगों की ओर देखने लगा। हाथ की सफाई दिखाते समय इधर-उधर का ध्यान रखना भी जरूरी होता है। दाईं तरफ वाली सीट पर दो सवारियां बैठी ऊंघ रही थीं, बायीं ओर वाली सीट पर कालेज के छात्र जैसे दिखने वाले दो लड़के बैठे हुए थे।
एकाएक रामेश्वर को लगा जैसे बायीं ओर किनारे वाली सीट पर बैठा लड़का ध्यान से उसकी ओर देख रहा है। रामेश्वर सिर घुमाकर दूसरी तरफ देखने लगा। कुछ पल यों ही बीत गए। रामेश्वर ने नजर घुमाई तो पाया वह लड़का अब भी उसकी ओर देखे जा रहा है। खैर जो भी हो, अब उसे अपना काम जल्दी पूरा करना था, क्योंकि जोरबाग का स्टैंड आ रहा था । रामेश्वर ने अपने शिकार को जोरबाग का टिकट मांगते हुए सुना था। उसे अपना काम करके जोरबाग से कुछ पहले ही उतरना  होगा। यह सोचकर रामेश्वर थोड़ा और आगे खिसक गया।
तभी पीछे से किसी ने पुकारा, ‘‘नमस्कार सर, आइए सीट खाली है।’’
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रामेश्वर अचकचा गया। उसने गर्दन घुमाकर देखा, बायीं तरफ बैठा वही लड़का उठ खडा़ हुआ है और हाथ जोड़कर खाली सीट पर बैठने की प्रार्थना कर रहा है। उसने याद करने की कोशिश की लेकिन उस लड़के को पहचान नहीं सका।
‘‘सर, आइए न!’’ लड़के की आवाज फिर सुनाई दी,‘‘मैं देख रहा हूं, आप बहुत देर से खड़े हैं। क्षमा करें मैं अब तक आपको पहचान नहीं पाया था।’’
रामेश्वर को घूमकर उसकी ओर देखना पड़ा था। वह उसी तरह सीट छोड़कर खड़ा था।
‘‘क्या तुमने मुझसे कुछ कहा?’’ रामेश्वर ने पूछा।
‘‘जी सर, आइए बैठिए ना!’’ कहते हुए लड़का खुलकर हंस पड़ा।
‘‘नहीं, नहीं तुम बैठो,’’ रामेश्वर ने जल्दी से कहा और मन ही मन एक भद्दी-सी गाली दी उसे, सीट पर बैठने का मतलब होगा शिकार को बचकर निकल जाने देना।
‘‘आप खड़े रहें और मैं...’’ लड़का फिर कह रहा था।
‘‘कोई बात नहीं, आजकल सब चलता है। लेकिन मैं तुम्हें पहचान नहीं पा रहा हूं।’’ रामेश्वर ने कहा।
‘‘सर, स्कूल में इतने लड़के आते हैं। आप सबको कहां तक याद रख सकते हैं, लेकिन मैं आपको कभी नहीं भूल सकता।’’ लड़के ने कहा।
रामेश्वर कुछ और कहता, इससे पहले उसके आगे खड़ा व्यक्ति उस खाली सीट पर बैठ गया। अब रामेश्वर और उसके शिकार के बीच कोई नहीं था।
‘‘सर!’’ लड़का क्रोधित हो उठा।
रामेश्वर जोर से हंस पड़ा। वह मन ही मन सीट पर बैठने वाले व्यक्ति को धन्यवाद दे रहा था।
‘‘कोई बात नहीं, मुझे बस में बैठकर सफर करना अच्छा नहीं लगता।’’ रामेश्वर यह कैसे कहता कि अगर वह बस में बैठकर यात्रा करे तो हाथ की सफाई दिखाने का मौका कैसे मिलेगा।
‘‘आप कहां जाएंगे?’’ लड़के ने पूछा।
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रामेश्वर एकाएक कुछ कह न पाया, क्योंकि वह कहीं जाने के लिए तो बस में चढ़ा नहीं था ,  फिर उसने ऐसे ही किसी जगह का नाम बता दिया।
‘‘जी, मैं भी वहीं जा रहा हूं। हम वहीं रहते हैं।’’ लड़का खुशी से बोला, ‘‘आपको मेरे घर चलना होगा।’’
रामेश्वर का खून खौल उठा। इस लड़के ने तो सारा खेल ही बिगाड़ दिया है। उसने लड़के की किसी बात का जवाब नहीं दिया। वह खिसकता हुआ टोपी वाले से एकदम सटकर खड़ा हो गया। उसके हाथ टोपी वाले की जेब तक पहुंचने के लिए तैयार थे।
‘‘सर, आप तो अब भी उस दयानंद हायर सेकेंड्री स्कूल में पढ़ा रहे होंगे?’’ रामेश्वर ने उस लड़के को कहते सुना।
‘‘तुम क्या करते हो?’’ रामेश्वर ने जवाब देने के बदले सवाल पूछ लिया। बात कुछ-कुछ समझ में आ रही थी। शायद लड़का उसे दयानंद स्कूल का कोई अध्यापक समझ बैठा था गलती से।       
रामेश्वर का प्रश्न सुनकर लड़का उदास हो गया। निराश स्वर में बोला , ‘‘जी, पढ़ाई बीच में ही रह गई। आपको शायद पता न हो, दो वर्ष पहले मेरे पिताजी नहीं रहे। आप तो जानते ही होंगे कि वह कितने बीमार रहते थे।’’
रामेश्वर ने ध्यान से लड़के की ओर देखा। वह सिर झुकाकर आंसू पोंछ रहा था। रामेश्वर ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। मृदु स्वर में बोला, ‘‘तो इसमें निराश होने की कौन-सी बात है। धीरज रखना चाहिए। हिम्मत करके पढ़ते रहो। अभी नौकरी की उम्र भी तो नहीं है, लेकिन ट्यूशन कर सकते हो।’’
‘‘जी, वही कर रहा  हूँ ।’’ लड़के ने कहा, फिर जैसे कोई भूली हुई बात याद आ जाए इस तरह बोला, ‘‘मैंने तो आपको बस में चढ़ते समय ही देख लिया था, लेकिन बात करने की हिम्मत नहीं हो रही थी।’’
‘‘क्यों?’’ रामेश्वर को पूछना पड़ा।

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‘‘सोच रहा था, मेरी चोरी वाली बात आपको अब तक याद होगी। एक बार साथी के पैसे चुराने पर आपने मुझे बहुत डांटा था। फिर सोचा, अब तो मैं ऐसा करता नहीं जो आपसे मुंह चुराऊं। आपको तो यह जानकर खुशी ही होगी कि उसके बाद वैसी हरकत मैंने कभी नहीं की।’’
‘‘अच्छा... अच्छा...’’ रामेश्वर सिर्फ इतना कह सका। एकाएक उसकी आंखों के सामने एक चित्र तैर गया, वह कुर्सी पर बैठा है। यह लड़का सामने खड़ा है और चोरी के अपराध की क्षमा मांग रहा है।
एकाएक रामेश्वर जैसे सोते से जाग गया।
कंडक्टर चिल्ला रहा था, ‘‘जोरबाग... जोरबाग...’’ 
‘‘अरे!’’ रामेश्वर के होठों से निकल गया। उसने देखा उसका शिकार टोपी वाला बस से नीचे उतर रहा है।
एक पल को रामेश्वर कुछ बोल न सका। उसे अपना गला रुंधता हुआ महसूस हुआ। बस की खिड़की में से टोपी वाले की आकृति उसे दूर जाती दिखाई दी।
कमबख्त को मेरे चेहरे में न जाने कौन-सा अध्यापक नजर आ रहा है!उसके हाथों के ठीक नीचे से टोपी वाला सुरक्षित बच निकला था। रामेश्वर उसकी जेब को छूने का मौका ही नहीं पा सका था इस अनजान लड़के के कारण। उसने गुस्से से लड़के को देखा। वह मुस्करा रहा था। रामेश्वर भी हंस पड़ा और हंसता ही गया। लड़का भी हंसने लगा। बस में बैठे लोग आश्चर्य से दोनों की ओर देख रहे थे।
जब लड़के का स्टाप आया तो रामेश्वर उसका हाथ थामकर नीचे उतर आया। लड़के ने अपने घर चलने के कहा तो उसने मना कर दिया। उससे काफी देर तक बस स्टैंड पर ही बातें करता रहा। उसे लग रहा था जैसे वह रामेश्वर जेबकतरा नहीं, उसी अनजान लड़के का भूला-भटका अध्यापक है।
‘‘तो मैं चलता हूं।’’ अंत में रामेश्वर ने कहा।
‘‘आशीर्वाद दीजिए सर!’’ कहते हुए लड़का उसके पैरों में झुक गया।
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‘‘अरे रे...’’ कहते हुए रामेश्वर ने लड़के को कंधों से थाम लिया। बोला, ‘‘बड़े होकर अच्छे आदमी बनो! यही आशीर्वाद है। इसके अतिरिक्त हम और दे भी क्या सकते हैं। तुम्हें चोरी की गलती आज तक याद है, यही बहुत है।’’
लड़का नमस्कार करके चला गया। रामेश्वर खोया-सा खड़ा रह गया।
काश, मैं सचमुच ही उस लड़के का अध्यापक होता।’’ उसने होंठों-होंठों में कहा और पैदल ही लौट चला। अनेक ठसाठस भरी बसें उसके पास से गुजर गईं। कोई और समय होता तो वह उनमें से किसी बस में जरूर चढ़ जाता, लेकिन वह तो उसी लड़के के बारे में सोच रहा था, जो अपने घर पहुंचकर मां को पुराने अध्यापक से मिलने की घटना बताकर खुश हो रहा होगा।
रामेश्वर चला जा रहा था। मन में खुशी थी, पछतावा नहीं था। वह याद करने की कोशिश कर रहा था, इतनी खुशी उसे कब मिली थी!  (समाप्त )                            

Monday 15 August 2016

आम का स्वाद



तरह –तरह के आम और उनका अलग- अलग स्वाद. लेकिन उस आम का स्वाद एकदम अलग था जिसे अजय पेड़ से तोड़ कर खाना चाहता था. कैसा था वह आम! 
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‘‘ अजय  आज घर पर ही रहना। अपने दोस्तों के साथ खेलने मत जाना। दादी अकेली हैं, उनका ध्यान रखना।’’ कहकर अजय के पापा अविनाश बाहर चले गए।
  अजय को पता था कि आज मम्मी अस्पताल गई हैं। पापा कह रहे हैं --जल्दी ही अच्छी खबर सुनने को मिलेगी। वह खबर क्या होगी इसे अजय समझता है। मम्मी अस्पताल से बेबी लेकर आएंगी-भैया या बहन कोई भी। वह तो ठीक है, पर दादी के साथ घर में रहना। भला यह भी कोई बात हुई।
  दोपहर का समय, गरम हवा चल रही है। पर यह आमों का मौसम है। उसका मन है कि आमों के बगीचे में जाकर ताजे तोड़े गए आम का स्वाद ले, पर पापा का आदेश था । वह मन मारकर दादी के पास बैठा रहा।
  अजय के पिता अविनाश छोटे से रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर हैं। स्टेशन के पास ही उन्हें रहने के लिए क्वार्टर मिला हुआ था। शहर वहां से दूर है। रेलवे क्वार्टरों के पास ही खेत और आमों का बगीचा है। अजय पढ़ने के लिए बस द्वारा शहर के स्कूल में जाता है। वह बैठा-बैठा दादी की ओर देख रहा था, जो ऊंघ रही थीं। तभी उसने खिड़की के बाहर अपने दोस्त नितिन को इशारा करते देखा-वह बाहर बुला रहा था। अजय ने देखा दादी नींद में थीं।वह चुपचाप बाहर चला गया। बाहर नितिन के साथ और भी कई दोस्त खड़े थे। अजय, नितिन और बाकी लड़के शहर के उसी स्कूल में साथ-साथ पढ़ते थे।
  नितिन ने कहा-‘‘अजय,चलो बाग में। यह तो आमों का मौसम है।’’
  अजय ने कहा-‘‘पिताजी आज सवेरे ही आमों का टोकरा लाए हैं।’’
  नितिन मुस्कराकर बोला-‘‘धत् पागल। मुझे भी पता है आम बाजार में मिलते हैं पर पेड़ से तोड़कर आम खाने का अपना ही मजा है। आओ चलो।’’
  अजय को पिता की चेतावनी याद आ रही थी, पर अपने हाथ से तोड़े गए आमों का स्वाद उसे अपनी ओर बुला रहा था। वह सोचता जा रहा था कि अगर इसी बीच पिता आ गए तो उनसे क्या कहेगा। पर आमों के बगीचे में पहुंचते ही वह सब कुछ भूल गया। सब बच्चे आम तोड़ने में लग गए। बगिया का रखवाला रामभज उन्हें रोकने के लिए दौड़ा आता था, पर आज तो वह कहीं नजर ही नहीं आ रहा था।
  बच्चे ताक-ताककर डालियों से झूलते आमों को अपने ढेलों से निशाना बनाने लगे। कभी निशाना आम पर लगता तो कभी पत्थरों की चोट से टहनियां और पत्ते नीचे आ गिरते। यह पहले से ही तय था कि जिसके पत्थर की चोट से जो आम गिरेगा वह उसी का होगा। पेड़ पर ढेलेबाजी का यह खेल चलता रहा।
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बीच-बीच में लड़के बगिया के रखवाले रामभज पर भी नजर रख रहे थे। उनमें से एक लड़का दूर से देख रहा था ताकि अगर रखवाला आता दिखाई दे अपने साथियों को चेतावनी दे सके।
  अब अजय की बारी थी। उसने एक आम का निशाना ताक कर पत्थर उछाला, तभी दूर से पिता की आवाज सुनाई दी-‘‘अजय, ओ अजय,कहां घूम रहा है धूप में।’’ अजय घबरा गया। बोला-‘‘मैं चला...’’
   लड़कों ने पुकारा-‘‘अपना आम तो लेता जा, फिर दूसरी आवाज आई-‘‘अरे यह तो आम नहीं कुछ और है-एक घोंसला।’’
   सुनकर अजय का जी धक् रह गया, पर अब वापस जाकर देखने का समय नहीं था। उसने पिता को  सामने से आते देख लिया था। तेजी से  दौड़ता हुआ पिता के पास आ पहुंचा।
     अविनाथ ने कहा-‘‘हांफ क्यों रहे हो । चलो, घर में चलो। देखो चेहरा कितना लाल पड़ गया है और पसीना भी खूब आ रहा है।’’ वह अजय का हाथ पकड़कर घर में ले गए। दादी ने देखा तो पूछने लगी-‘‘कहां चला गया था इतनी धूप में?’’
     अजय को किसी की कोई बात नहीं सुनाई दे रही थी। बस कानों में वही शब्द गूंज रहे थे, ‘‘अरे, यह तो आम नहीं कुछ और है-एक घोंसला।’’
     पिता ने कहा-‘‘मैंने जाने से मना किया था फिर भी तुम दादी को अकेली छोड़कर चले गए थे। क्यों?’’
    दादी ने हंसकर अजय का गोद में भर लिया, माथा चूमती हुई बोलीं-‘‘देख तो सारा बदन कैसे गरम हो रहा है। चल अब आराम से बैठ।’’
    पिता ने अजय से कहा-‘‘तुम्हारे आमों के चक्कर में एक खुशखबरी देना तो भूल ही गया।’’ दादी ने अजय का सिर थपकते हुए कहा-‘‘तुम बहन के भाई बन गए हो।’’ और हंस पड़ीं।
   ‘‘हां, अजय बधाई। मैं अस्पताल जा रहा हूं। चलो तुम भी अपनी नन्ही मुन्ही बहन से मिल लेना।’’
    अजय के होंठों पर हंसी आ गई। उसने कसकर पिता का हाथ चूम लिया। मन में खुशी की लहर दौड़ रही थी-लेकिन एक आवाज़ अब भी कानों में गूंज रही थी-‘‘अरे,यह तो आम नहीं कुछ और है-‘‘घोंसला।’’ वह पिता के स्कूटर पर पीछे बैठकर अस्पताल की ओर जा रहा था।  वही आवाज लगातार गूंज रही थी.
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कानों में-आम नहीं, घोंसला। हां उसने जो पत्थर आम तोड़ने के लिए फेंका था, वह एक घोंसले पर
    अविनाश अजय का हाथ पकड़कर पत्नी रमा के पास ले गए। रमा ने पास एक नन्ही मुन्नी सो रही थी। अजय को देखते ही रमा मुस्कराई और अजय को अपने पास आने का संकेत किया। बोली --अपनी बहन   को नहीं देखेगा। यह कैसा चेहरा बना रखा है।’’
   अजय ने नन्ही मुन्नी बहन को देखा। मन में खुशी भर गई, पर फिर चेहरा उदास हो गया। कानों में कोई कह रहा था-तेरा पत्थर आम को नहीं, घोंसले पर लगा था और...
  वह लगातार एक ही बात सोच रहा था, कैसे जल्दी से जल्दी घर पहुंचकर आम के बाग में जाए और देखे कि क्या सचमुच पत्थर की चोट से घोंसला गिर गया था। पता नहीं घोंसले में मौजूद पंछियों के छौनों का क्या हुआ था।
   घर वापस पहुंचे तो पिता ने कहा-‘‘मैं स्टेशन जा रहा हूं, अब दादी के पास ही रहना। कल हम फिर तुम्हारी नन्ही बहन से मिलने चलेंगे।’’
   अजय की आंखें डबडबा आईं-उसने पिता से कुछ कहना चाहा, पर मन की बात होंठों से बाहर नहीं आई। पर पिता उसकी बेचैनी समझ रहे थे। उन्होंने पूछ लिया-‘‘अजय क्या बात है? इतने उदास क्यों हो। तुम अपनी नन्ही बहन को देखकर भी खुश नहीं हुए। बताओ,  क्या बात है? तबीतय खराब है क्या?’’
  अजय ने धीरे से पिता की कलाई थाम ली। उसके होंठों से निकला-‘‘घोंसला...’’
   ‘‘घोंसला क्या... साफ-साफ कहो क्या बात है?’’
   अब अजय चुप नहीं रह सका। वह पिता को आम के बगीचे में घटी पूरी घटना बता गया। अविनाश कुछ पल चुप रहे फिर बोले-‘‘बेटे, यह तो ठीक नहीं हुआ। घोंसला पेड़ से गिरा है तो उसमें मौजूद बच्चों या अंडों का पता नहीं क्या हुआ होगा। चलो चल कर देखते हैं।’’ कहकर वह अजय के साथ आम के बगीचे में पहुंच गए।
   शाम हो चली थी। बगिया में घने पेड़ों के कारण धुंधलका सा हो गया था। घोंसलों की ओर लौटते पंछियों का शोर सुनाई दे रहा था । बाग में और कोई नहीं बस रामभज था।
  उसने अजय को देखा तो बोला-‘‘क्यों फिर आ गए।’’ अजय के जवाब देने से पहले ही अविनाथ ने कहा-‘‘रामभज भैया, आज अजय की नई बहन का जन्म हुआ है। मिठाई कल खिलाएंगे तुम्हें। इस समय तो किसी और वजह से आए हैं यहां।’’
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घर में बेटी का जन्म हुआ है सुनकर रामभज ने बधाई दी फिर पूछने लगा-‘‘इस समय क्यों आए हो बाबू?’’
   अविनाश ने अजय की ओर देखा फिर रामभज को पूरी बात बता दी। इधर-उधर देखते हुए बोले-‘‘अजय कह रहा है कि इसने अपने दोस्तों को कहते सुना था कि आम नहीं घोंसला गिरा है, पर यहां तो जमीन पर कोई घोंसला कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। हां, टूटी हुई टहनियां और पत्ते जमीन पर पड़े हैं।‘’
  रामभज बोला-‘‘मैंने बच्चों को आमों पर पत्थर फेंकते देखा तो मैं चला आया। मुझे देखते ही सब बच्चे भाग गए। मैंने देखा था जमीन पर पड़ा एक घोंसला।’’
  ‘‘ इस समय कहां है?’’
‘‘मैंने पेड़ पर चढ़कर घोंसले को अच्छी तरह डालियों के बीच टिका दिया है।’’ रामभज ने कहा।
‘‘क्या घोंसले में अंडे या चिडि़या के बच्चे थे?’’ अजय ने डरे-डरे स्वर में पूछा।
‘‘नहीं घोंसले में कुछ नहीं था। लगता है पंछी ने अभी नया घोंसला बनाया है। घोंसले में अंडे या बच्चे मुझे नहीं दिखे। अगर होते तो घोंसला गिरने से अंडे तो जरूर टूट जाते। बच्चे होते तो वे भी मर सकते थे।’’ रामभज बोला।
  अजय को अब सांस आई। फिर भी अपनी आंखों से घोंसले में झांकना चाहता था। उसने रामभज से कहा तो वह मुस्करा उठा। बोला-‘‘पेड़ पर चढ़ना जानते हो तो चढ़ जाओ। मैं बता दूंगा कि घोंसला मैंने पेड़ पर कहां टिकाया है।’’
  अविनाथ ने इनकार में सिर हिला दिया। बोले-‘‘इसे पेड़ पर चढ़ना नहीं आता, मैं जानता हूं. बचपन में खूब चढ़ा हूं पेड़ों पर लेकिन अब तो सब भूल गया हूं।’’
  रामभज कुछ सोचता रहा फिर उसने कहा-‘‘बाबू, आप पेड़ के नीचे खड़े हो जाओ। अजय भैया आपके  कंधे पर खड़ा हो जाए। मैं ऊपर जाकर भैया को चढ़ा लूंगा।’’ अच्छी तरकीब निकाली थी रामभज ने। वह झटपट पेड़ पर चढ़ गया। अविनाथ ने अजय को अपने कंधे पर खड़ा कर लिया। ऊपर से रामभज ने खींच लिया-इस तरह अजय पेड़ पर जा पहुंचा।
   ‘‘कहां है घोंसला?’’ अजय ने पूछा।
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रामभज ने पत्तों के बीच ऊपर की तरफ इशारा किया-‘’आओ दिखाता हूं। तुम डाल पकड़कर आगे खिसकते रहो। मैं पीछे से संभाले रहूंगा-गिरने नहीं दूंगा।’’
   अजय डाल को दोनों हाथों से मजबूती से थामकर धीरे-धीरे आगे खिसकता रहा। पीछे से रामभज ने थामा हुआ था। फिर दो डालियों के जोड़ पर एक घोंसला दिखाई दिया-‘‘अजय ने देखा छोटा सा घोंसला एकदम खाली था। पेड़ पर दूसरे और भी कई घोंसले थे, जिनसे तरह-तरह की आवाजें आ रही थीं। अब जाकर अजय को तसल्ली हुई कि सचमुच घोंसले में अंडे या बच्चे नहीं थे। वरना अब तक तो वह खुद को अपराधी समझ रहा था। इसके बाद रामभज ने अजय को डाल पर पीछे की तरफ खिसकाते हुए सावधानी से नीचे उतार दिया। नीचे खड़े अविनाथ ने बेटे को संभाल लिया।
  कुछ देर चुप्पी रही। अविनाश ने कहा-‘‘रामभज भैया, आज तुमने बहुत अच्छा काम किया। अजय के हाथों  से एक बड़ा अपराध होते-होते रह गया।’’
   रामभज बोला-‘‘मैं तो बच्चों को यही समझाता हूं कि इस तरह आमों को पत्थर मार कर तोड़ना ठीक नहीं।  इससे घोंसले गिर जाते हैं, पंछी घायल होते हैं, अंडे टूट फूट जाते हैं। बाजार में आम खूब मिलते हैं।’’
  ‘‘तुमने ठीक कहा। इस तरह आम तोड़ने के बारे में नहीं, पेड़ों पर रहने वाले परिंदों  के बारे में सोचना चाहिए।’’ कहकर अविनाश बेटे के साथ घर लौट आए। रास्ते में रुककर अजय फिर से पेड़ की तरफ देखने लगा जो ढलती शाम के धुंधलके में खो चुका था।
  अविनाश ने कहा-‘‘बेटा, घोंसले में रहने वाले पंछियों के छौने बहुत कोमल होते हैं। समझो जैसे अस्पताल में तुम्हारी मां के पास लेटी तुम्हारी छोटी बहन। जरा सोचो, तुम्हारी बहन माँ के पास पलंग पर लेटी है और तब कोई उस पर पत्थर फेंक दे तो क्या होगा? उसे चोट लगेगी, वह घायल हो सकती है और...’’
  ‘‘बस पापा बस......’’ अजय ने रुंधे स्वर में कहा और जोर से अविनाश का हाथ थाम लिया। उसकी उंगलियां कांप रही थीं।
  अविनाथ ने धीरे से उसका कंधा थपथपा दिया। अब अजय से और कुछ कहने की जरूरत नहीं थी। संदेश उस तक पहंच गया था। ( समाप्त )