Saturday 30 June 2018

खंडहर का मन --देवेन्द्र कुमार--पर्यावरण कथा



खंडहर का मन—देवेन्द्र कुमार –पर्यावरण कथा 
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                घने जंगल में एक खंडहर था। अंदर और बाहर सब तरफ झाड़-झंखाड़ से घिरा हुआ। खंडहर से कुछ दूर से एक कच्ची सड़क गुजरती थी। वह कोई मेन रोड नहीं थी, इसलिए उस सड़क से आने-जाने वाले लोग भी बहुत कम थे। अक्सर बैलगाड़ियां, घोड़गाड़ी या फिर कभी-कभी भूले भटके कोई कार गुजर जाती थी। पर अक्सर खंडहर के पास से बहुत कम यातायात गुजरता था। सांझ ढलने से पहले ही जंगल में वन्य जीवों में डरावनी आवाजें गूंजने लगती थीं और फिर घुप्प अंधेरे में तो वहां जंगली जानवरों का एकच्छत्र राज हो जाता था।
                रात में खंडहर की टूटी दीवारों के बीच से वन्य जीव बेरोकटोक आते-जाते रहते थे। वह जंगल उनका था, खंडहर उनका ठिकाना था। पर खंडहर को यह सब अच्छा नहीं लगता था। कभी वह इमारत खंडहर नहीं थी। वहां कई लोग रहते थे। बहुत लोग आते-जाते थे। खूब गुलजार थी वह जगह। फिर एक रात इमारत में आग लग गई। आग इतनी भयानक थी कि सब कुछ स्वाहा हो गया। वहां रहने वाले छोड़कर भाग गए बड़ी इमारत खंडहर बन गई, फिर तो आसपास रहने वाले थी वहां से दूर चले गए। बच गया केवल खंडहर जिसकी जली-फुंकी दीवारें उसके बीते दिनों की कहानी कहती हुई लगती थीं। उसके बाद वर्ष बीतते चले गए-जंगल घना होता गया।  मनुष्य गए तो वन्य जीवों ने खंडहर में बसेरा कर लिया। अब वह जगह पशुओं की थी-लकड़बग्घे, तंदुए, लोमड़ी और बनैले सुअर वहां बेरोकटोक आते थे। भला उन्हें कौन रोकता और क्यों? दिनों दिन जंगल और भी घना और बीहड़ होता जा रहा था। खंडहर कभी कभी सोचता, क्या दिन थे वे जब यह जगह गुलजार रहती थी। लेकिन खंडहर क्या कर सकता था। हां अपनी दुर्दशा पर दुखी जरूर हो सकता था।
                एक दिन की बात, बरसात का मौसम। दिन में भी अंधेरा सा हो गया। एक कार कच्चे रास्ते से जा रही थी। खंडहर से थोड़ी दूर पर कार में खराबी आ गई। कार में बहादुर सिंह  अपने परिवार के साथ थे, पीछे मिनी ट्रक था, जिसमें घरेलू सामान लदा था। कार की मरम्मत की कोशिश होने लगी। पर कार ठीक नहीं हो सकी। तब तक रात हो चुकी थी। आगे का इलाका खतरनाक था। वहां लूटपाट का डर था। साथ में औरतें और बच्चे भी थे। तय हुआ रात उसी खंडहर में बिताई जाए। पर खंडहर में टिकना आसान न था। सब तरफ झाड़ झंखाड़ और जंगली जानवरों का डर। सबसे पहले आग जलाई गई। ताकि वन्य जीव खंडहर से दूर ही रहें, फिर सब लोगों ने मिलकर खंडहर के एक हिस्से की थोड़ी बहुत सफाई कर डाली।
                वहां चादर बिछाकर सब आ बैठे। हवा में जंगली फूलों और हरियाली की विचित्र गंध फैली थी और दूर से वन्य जीवों की आवाजें भी आ रही थी। बहादुर सिंह ने कहा- कभी सोचा भी नहीं था कि मैं परिवार के साथ ऐसी सुनसान, डरावनी लेकिन अद्भुत जगह में रात बिताऊंगा।
                थोड़ी देर में चांद निकल आया। खंडहर की टूटी छतों और दीवारों से होकर चांदनी अंदर फैल गई। देखकर सब मुग्ध हो गए। भोजन साथ में था सबने मिलकर खाया। नींद आ रही थी, पर सोने की हिम्मत नहीं थी। मन में
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 कहीं डर था कि कोई जंगली जानवर खंडहर में आकर हमला न कर दे। तय हुआ कि कुछ लोग बारी बारी से जागकर पहरा देंगे। इस तरह जागते और सोते हुए रात जैसे तैसे बीत गई।
                चिड़ियों की चह चह और चूं चिर्र से नींद जल्दी टूट गई। जंगल खामोश था, केवल परिंदे बोल रहे थे। सब तरफ जमीन पर, पेड़ पौधों पर ओस की बूंदें दिखाई दे रही थीं। बहादुर सिंह और उनकी पत्नी रमा खंडहर में घूमते फिरते रहे। तभी अपने पीछे आहट सुनकर मुड़े तो देखा उनके दोनों बच्चे अनिल और रश्मि खडे़ हैं।
                बच्चे हंस रहे थे। अनिल ने कहा- पापा, हम भी आपके साथ रहेंगे।
                बहादुर सिंह और रमा ने कहा- बच्चो, पता है यह खंडहर कितना डरावना है। यहां सब तरफ जंगली जानवर घूमते रहते हें।
                यह खंडहर डरावना नहीं सुन्दर है। देखिए कितने सुदंर फूल खिले हैं।रश्मि के संकेत पर सब नजरें एक कोने में जा टिकीं, वहां हरी घास से भरी धरती के टुकड़े पर सुंदर फूल खिले हुए थे। वे चारों फूलों के निकट जा खड़े हुए। सचमुच बहुत सुंदर थे फूल। रमा और बहादुर सिंह झुककर नीचे बैठ गए। वे फूलों की धीरे-धीरे सहला रहे थे।
                अनिल और रश्मि ने कहा-सावधान कहीं फूलों को तोड़ मत लेना। वरना जंगल नाराज हो जाएगा।
                बहादुर सिंह ने कहा- हां, बच्चो, हम फूलों को केवल छू रहे हैं, उन्हें तोड़ने की गलती कभी नहीं करेंगे।इस तरह चारों खंडहर के बीच झाड़ झंखाड़ और मलबे के ढेर से बचते हुए, सामने दिखाई देती टूटी-फूटी सीढ़ियों पर संभल-संभलकर कदम रखते हुए ऊपर पहुँच गए। ऊपर जाकर पता चला कि बाहर से छोटा दिखाई देने वाली खंडहर इमारत काफी बड़ी थी। उसकी छत जगह-जगह से टूटी हुई थी। खंडहर के पिछवाड़े की धरती पर जैसे हरी घास का गलीचा सा बिछा हुआ, जो ढलान पर उतरता हुआ काफी दूर तक चला गया था। वहीं थी एक नदी ... ये चारों मंत्रमुग्ध से उस दृष्य को देखते रह गए। रमा ने कहा-वंडरफुल, कितना सुंदर दृष्य है।
                हां, है तो, पर हमें यहां से जल्दी निकलना होगा।फिर बोले-मेरा मन करता है खंडहर के पीछे बिछे हरी घास के गलीचे पर लुढ़कता चला जाऊं दूर तक।
                कुछ देर चारों खंडहर की छत पर घूमघूम कर सब तरफ के दृष्य देखते रहे। नीचे कार ठीक कर ली गई थी। इधर-उधर फैला सामान उसमें रखा जा रहा था।
                सीढ़ियों से उतरने समय रमा ने कहा- मेरा मन है हमें कभी यहाँ दिन में आना चाहिए ताकि जंगल में घूमा-फिरा जा सके।
                यह तो बहुत बढ़िया आइडिया है।दोनों बच्चे बोले।
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                कुछ देर बाद सब कार में जा बैठे। रश्मि और अनिल ने कहा- हम फिर आयेंगे।
                यह किससे कहा तुमने?” रमा ने पूछा
                खंडहर से, जंगल से, यहां उगे पेड़-पौधों से। आप कहते हैं न सब में जीवन है।
                हां, यही बात है।बहादुर सिंह बोले-इसीलिए तो हम कहते हैं, पेड़ पौधे मत काटो, फूल मत तोड़ो, पशु-पक्षियों का शिकार मत करो।
                दोनों वाहन खंडहर से आगे निकल आए। सब तरफ सन्नाटा छा गया। जो खंडहर कुछ देर पहले तक आवाजों से गूंज रहा था, वहां एकदम मौन छा गया।
                ख्ंडहर की ख़ुशी फिर से उदासी में बदल गई। वह सोच रहा था- रात में कितना अच्छा लगा था, लेकिन अब... फिर वही जानवरों का बसेरा और खामोशी ...
                लेकिन यह सन्नाटा ज्यादा दिन नहीं रहा। कुछ दिन बाद एक बस आकर खंडहर के सामने रुकी। बस में बहादुर सिंह का परिवार था, तथा थे उनके कई मित्रों के कुटुम्ब। बहादुर सिंह ने शहर जाकर अपने कई मित्रों से खंडहर के सौंदर्य का वर्णन किया था। रमा ने अपनी सहेलियों को बताया था और रश्मि और अनिल ने भी आसपास के बच्चों को सुनाया था वहां के विषय में।
                प्रोग्राम बन गया। एक बड़ी टूरिस्ट बस में बैठकर सैलानी आए थे- साथ में एक मिनी ट्रक था। उसमें भोजन सामग्री, और दूसरी जरूरी चीजें थीं। वे खंडहर में रात बिताने आए थे। प्रोग्राम था कि दिन भर खंडहर के आसपास के जंगल में भ्रमण किया जाए और रात में खंडहर की छत पर संगीत का कार्यक्रम हो।
                बहादुर सिंह साथ में जेनरेटर लेकर आए थे। साथ में थे रसोइए। रात में पूरा खंडहर रोशनी में नहा उठा। खंडहर के बीचोंबीच एक विशाल अलाव जला दिया गया। शाम ढली, जंगल में वन्य जीवों की आवाजें गूंजने लगीं-पर सब तरफ रोशनी थी, इसलिए कोई वन्य जीवन निकट नहीं आया।
                शाम को खुले में भोजन करने के बाद सब छत पर जा पहुंचे। वहां भी रोशनी का प्रबंध था। बहादुर सिंह बहुत मीठी बांसुरी बजाते थे। रमा अच्छी गायिका थी। उनके कई मित्रों को गाने बजाने का शौक़ था। काफी रात खंडहर की छत पर गाना बजाना चलता रहा। संगीत लहरियां जंगल में गूंजती रही। जंगल में मंगल हो गया था।
                बहादुर सिंह व उनके मित्रों के परिवार खंडहर में दो दिन तक रहे। इस बीच उन लोगों ने खंडहर का चप्पा-चप्पा छान मारा था। सचमुच पूरा क्षेत्र बहुत सुंदर था।
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                दो दिन वहां बिताने के बाद सैलानी बस वहां से चली गई। खंडहर में फिर सन्नाटा छा गया। खंडहर का मन फिर उदास हो गया- पर खंडहर को पता नहीं था कि बहादुरसिंह और उनके मित्रों ने वहां आते रहने का मन बना लिया था।
                बहादुरसिंह द्वारा खंडहर की खोज की खबर फैलते देर न लगी। अब तो वहां हर मौसम में सैलानी आने लगे थे। खंडहर का अकेलापन दूर हो गया था।
                बहादुर ने एक बोर्ड खंडहर के बाहर लगवा दिया था, उस पर लिखा था- खंडहर आपका स्वागत करता है। फूल न तोडें ,  पेड़-पौधों को नुकसान न पहुंचाएं और जाते समय अपना कूड़ा साथ में ले जाएं।
                खंडहर अब अकेला नहीं था- वह खुश था। ( समाप्त )

                 
               

Wednesday 13 June 2018

तरकीब--देवेन्द्रकुमार-- बाल कथा



बाल कहानी: तरकीब—देवेन्द्र कुमार
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तरकीब

  
  छोटे बाजार के मोड़ पर बालू दोसा कार्नर है। वहां हर समय ग्राहकों की भीड़ रहती है। उन्हें उस दुकान का दोसा खूब पसन्द आता है। ग्राहक आते हैं, दोसे खूब बिकते हैं। बालू खुश रहता है, क्योंकि रोज़ अच्छी आमदनी होती है। परेशान कोई होता है तो रमन और छोटू। क्यों भला?
   
रमन को भट्टी के सामने खड़े रहकर फटाफट दोसे तैयार करने पड़ते हैं- जरा भी फुरसत नहीं मिलती। बालू के आर्डर आते रहते हैं, और रमन के हाथ मशीन की तरह चलते रहते हैं। उसी तरह छोटू को भी जल्दी-जल्दी प्लेटें साफ करके देनी होती हैं। जरा देर हुई नहीं कि बालू चिल्ला उठता है।
   
रमन को गर्मियों में परेशानी ज्यादा होती है। दुकान छोटी सी है, गर्मियों में उस का चेहरा पसीने से भीगा रहता है। पसीना माथे से नीचे बहता है, बस  कभी कभी सिर को झटक कर पसीना गिरा देता है वह। कभी कभी मन में आता है- अगर थोड़ी देर आराम कर सकता तो?’ लेकिन मौका नहीं मिलता!       
   
रविवार था, दुकान के सामने भीड़ थी। दोसे बन रहे थे- रमन और छोटू काम में लगे थे। छोटू धुली हुईं प्लेटें रखने आया तो देखा रमन का चेहरा पसीने से भीगा था। वह दोसे बनाने में जुटा था। खूब गरमी थी! छोटू ने एक कपड़े से रमन के माथे का पसीना पोंछ दिया। रमन हंस पड़ा। छोटू भी मुसकराया पर बालू के माथे पर बल पड़ गए। उसने यह सब देख लिया था। दिन में छोटू जब जब बरतन लेकर आया उसने हर बार रमन के माथे पर आया पसीना पोंछ दिया। बस, दोनों हंस पड़ते थे। कुछ बोलते नहीं थे।
   
शाम को बालू ने छोटू को बुलाया। कहा- ‘‘लगता है अब तेरा मन काम में नहीं लगता। तेरी छुट्टी कर दूंगा।’’                                                                
   
 कहा -‘‘जब देखो रमन का पसीना पोंछता है। पैसे बरतन साफ करने के देता हूं या रमन का पसीना पोंछने के? आगे भी यह सब किया तो बस तेरी नौकरी खत्म।’’
   
छोटू चुपचाप बाहर आ गया। वह सोच रहा था। मैंने क्या गलत किया।
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अगले दिन धूप तेज थी। काम चल रहा था। ग्राहक जल्दी मचा रहे थे। रमन के हाथ मशीन की तरह चल रहे थे। छोटू सिर झुकाए बरतन धोने में लगा था। उसने बीच-बीच में जब रमन का चेहरा देखा-पसीने से भीगा हुआ। धुले बरतन लेकर आया तो देखा बालू देख रहा है। छोटू ने कुछ सोचा फिर रमन के माथे से बहता पसीना पोंछ दिया। और फिर     कंधे  पर पड़े झाड़न से उसके चेहरे पर हवा करने लगा।
   
रमन को अच्छा लगा, पर उसने कहा--- ‘‘जा भाग, मालिक इधर ही देख रहा है।
   
शाम हुई। बालू उठा और छोटू से कहा, ‘‘आज फिर वही हरकत। आज तो सिर्फ पसीना ही नहीं पोंछा, उसे पंखा भी झल रहा था। तेरी छुट्टी। मैंने दूसरा छोकरा बुला लिया है।’’
   
रमन चुप लेकिन दुखी था। उस  के कारण छोटू की नौकरी जा रही थी। अब क्या करेगा, कहां जाएगा छोटू।‘’
    ‘‘
छोटू ने कहा- ‘‘ठीक है मालिक, पर मैंने जो किया दुकान के फायदे के लिए।
   
   
‘’मालिक, कल मैंने कई ग्राहकों को कहते सुना था- अरे देखो, देखो। देासे बनाते आदमी का पसीना दोसे के घोल में टपक रहा है। ऐसे गंदे दोसे कैसे खाएंगे हम।
  
‘’फिर?’   
    ‘‘
बस, वे लोग दोसा बिना खाए चले गए। मैंने सेाचा यह तो ठीक नहीं हुआ। अगर दूसरे ग्राहकों ने सुन लिया तो गड़बड़ हो जाएगी। इसीलिए मैंने रमन के माथे का पसीना पोंछा था।’’
   
बात बालू की समझ में आ गई। बोला-‘‘ तो पहले क्यों नहीं बताया।’’
   
छोटू धीरे से हंसा। बालू के पीछे खड़ा रमन भी मुसकराए बिना न रह सका। छोटू ने कहा- ‘‘उस दिन जब मैं धुली हुई प्लेटें अंदर रखने आया तो मैंने देखा मक्खियां दोसे के घोल पर मंडरा रही हैं। इसीलिए जब बरतन रखने जाता हूं तो झाड़न हिलाकर मक्खियों को उड़ाता हूं और आप समझते हैं......’’
   
बालू ने जान लिया अगर ग्राहकों में गंदगी की बात फैल गई तो नुकसान हो सकता है। बोला-‘‘अच्छा!’’    छोटू और रमन ने एक दूसरे की तरफ देखा पर हंसे नहीं क्योंकि बालू की नज़र दोनों पर थी। पर  दोनों की आंखें हंस रही थीं!                            
   
बालू ने फुर्ती दिखाई। बिजली वाले को बुलाकर कहा-‘‘ तुरंत दुकान में छोटा पंखा लगाओ। हवा सीधी रमन के मुंह पर रहे, भट्टी पर न लगे!’’                                      
   
पंखा लग गया। दोसे बनाते समय अब रमन के चेहरे पर उतना पसीना नहीं आ रहा था। दुकान में पहले की तरह भीड़ थी। दोसे बन रहे थे, छोटू के हाथ बरतन धोने में जुटे थे। अब उसे रमन का पसीना पोंछने की जरूरत नहीं थी। बालू पैसे गिन रहा था। उस दिन रमन और छोटू कई बार मुसकराए थे। तरकीब काम कर गई थी। और हां, दो दिन बाद बालू ने छोटू की पगार में दस रुपए बढ़ा दिए थे। वह सोचता था- है तो छोटा पर दिमाग खूब चलता है इसका।***    ( समाप्त )
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