Tuesday 28 April 2020

स्कूल- कहानी-देवेन्द्र कुमार


स्कूल--कहानी—देवेन्द्र कुमार 
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  रविवार का दिन-- अमित और जया मस्ती के मूड में हैं।  अमित जया से तीन साल बड़ा है।  तभी माँ रमा ने कहा-‘ मैंने कबाड़ी को बुलाया है, वह कुछ ही देर में आ जाएगा।  कोठरी में से पुराने अखबार ले आओ।  तब तक मैं कुछ और पुराना सामान निकाल लेती हूँ। ’ अमित और जया कोठरी में चले गए।  उस छोटी कोठरी में घर की पुरानी और बेकार चीजें रखी रहती हैं।  घर के लोग उस कोठरी में प्राय: नहीं जाते थे।  जाती थी काम वाली बाई आशा।
  आशा झाड़ू पोंछा और बर्तन मांजने का काम करती है।  घर के अन्य छोटे मोटे काम भी वही देखती है।  वह रविवार की छुट्टी करती है। रोज आशा अपनी पांच साल की बेटी जूही के साथ आती है।  जूही के बापू और आशा घर से सवेरे एक साथ काम पर  निकलते हैं।  जूही को घर में अकेली तो नहीं छोड़ा जा सकता।  जब आशा काम में लगी होती है तो जूही इधर उधर घूमती रहती है। काम करते हुए आशा जूही से बार बार कोई चीज न छूने और एक जगह चुप बैठने को कहती रहती है।  
  तब रमा उसे चुप रहने का संकेत कर, बच्ची के सामने कुछ खिलौने डाल देती है,जूही खेलने लगती है।  उसकी चंचल आँखें और चमकीले दांत जैसे एक साथ मिल कर हंसने लगते हैं। रमा आशा से कहती है-‘तेरी बच्ची की हंसी बहुत प्यारी हैं। ’ पर आशा को पता है कि अगर जूही से कोई चीज टूट गई तो नुक्सान उसे ही भरना होगा।  और एक दिन वही हुआ आशा को जिसका डर था।  कमरे में मेज पर रखी एक प्रतिमा को जूही ने उठाना चाहा तो वह गिर कर टूट गई।  आशा ने जूही के गाल पर थप्पड़ मारा तो वह रोने लगी।  आशा उसे घसीट कर कोठरी में ले गई और बोली-‘अब रह इस भूत वाली कोठरी में। ’
  रमा ने सुना तो झट कोठरी में जा पहुंची और जूही से कहा—‘भूत वूत कुछ नहीं होता,’ उसे बाहर वाले कमरे में लाकर कुर्सी पर बैठा दिया, फिर उसके सामने मेज पर कई चाकलेट और टाफियां रख दीं, मेज पर बच्चों की किताबें भी रखी थीं।  रमा यह देख कर हैरान रह गई कि जूही ने एक किताब उठा कर कहा—‘मैं पढूंगी। ’ रमा ने पास खड़ी आशा से  कहा-‘ जूही पढ्ना चाहती है,’ आशा का जवाब था – ‘मैडम, आपको तो सब पता है। ’
  रमा बोली-‘ मैं जानती हूँ कि तुम सारा दिन कई घरों में काम करती हो।  इसलिए जूही को स्कूल भेजना संभव नहीं। पर बच्ची के मन में पढने की ललक है।  मैं पढ़ाऊँगी जूही को।  तुम्हें कुछ नहीं करना होगा,’ आशा देखती रह गई-- क्या जूही को पढ़ाने का उसका सपना सच हो सकता था! वह भला क्या कहती।
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   अगली सुबह आशा जूही के साथ काम पर आई तो रमा ने कहा –‘ पहले कोठरी में चलो। ’ रोज तो वह सबसे आखिर में कोठरी की सफाई किया करती थी। तो आज वहां की सफाई सबसे पहले क्यों! यही सोचती हुई रमा के पीछे पीछे कोठरी में चली गई।  जो कुछ देखा तो बस देखती रह गई।  कोठरी के एक कोने में रखा सामान सरका कर खाली जगह में एक दरी बिछा दी गई थी। उस पर ‘अ आ’ की एक किताब और कापी पेंसिल रखी थीं।  रमा ने जूही को दरी पर बैठा दिया फिर हंस कर रमा से कहा-‘ यह है जूही का स्कूल।  अब तुम्हें इसे फटकार नहीं लगानी पड़ेगी।  जब तुम साफ़ सफाई और बर्तनों का काम करोगी तो तुम्हारी बिटिया मेरे साथ स्कूल में पढना सीखेगी। ’
  ‘मैडम,आप..... ’आशा बस इतना ही कह सकी। आँखों में गीलापन उमड़ रहा था, वह कुछ बोल नहीं पा रही थी। कहने को बहुत कुछ था लेकिन......
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  अमित और जया पुराने अख़बारों के बण्डल कोठरी से बाहर ले आये। अखबारों को नीचे रखने के बाद अमित ने कहा-‘ माँ,यह क्या है!’ वह रमा को एक कागज दिखा रहा था,जिस पर बड़े बड़े अक्षरों लिखा था—‘स्कूल। ’—‘ पता नहीं यह किसकी शैतानी है!
  ‘मेरी। ’—रमा ने हँसते हुए कहा और कागज अमित के हाथ से ले लिया।
  ‘ यह कैसा खेल है’-जया पूछ रही थी।
  ‘ न यह शैतानी है न खेल।  कोठरी में वहां बैठ कर जूही पढाई करती है, मैं उसकी टीचर हूँ। ’—रमा का स्वर गंभीर था।  फिर उसने बच्चों को पूरी घटना कह सुनाई। तब बच्चों के पापा रमेश भी वहीँ खड़े थे।  वह बोले-‘ जूही को जरूर पढाओ लेकिन इस कोठरी में ही क्यों।  बाहर मेज- कुर्सी पर बैठ कर  भी जूही पढ़ सकती है।  और इस कागज का क्या रहस्य है जिस पर ‘स्कूल’ लिखा है। ’
  ‘ यह कागज़ दीवार पर चिपका हुआ था। ’—अमित बोला।
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  रमा ने बताया-‘जूही को कोठरी के एक कोने में पढते देखा तो एकाएक अपना बचपन याद आ गया। तब पिताजी एक छोटे से कसबे में अध्यापक की नौकरी करते थे।  पूरा परिवार एक कमरे वाले छोटे से घर में रहता था।  तुम सबको शायद पता न हो पर मैंने आशा का घर देखा है, वह एक कमरे के घर में रहती है। जब पहली बार आशा की बीमारी में उसे देखने गई तो तुरंत अपने बचपन के दिनों वाला घर याद आ गया। नहाना-- धोना और सोना उसी में होता था। जब माँ खाना बनाती थीं तो अंगीठी के धुएं से बचने के लिए मुझे बाहर खेलने भेज दिया करती थीं। ’
  ‘पर तुमने पहले कभी अपने बचपन के दिनों के बारे में बताया नहीं। ’-रमेश बोले।
   ‘कभी ऐसा अवसर आया ही नहीं। ’—रमा ने कहा।            
   तो अब बता दो माँ। ’-अमित और जया ने एक स्वर में कहा।
   ‘ मैं भी तुम्हारे बचपन के घर में झांकना चाहूँगा। ’-रमेश ने शरारती अंदाज़ में कहा।      
     ‘पर एक शर्त है-आपको भी हम सबको अपने बचपन में ले जाना होगा। ’-रमा ने कहा और मुस्करा दी।
  ‘ले चलूँगा,पर मेरा बचपन तो शहर में ही बीता है। वहां ऐसा कुछ बताने लायक नहीं है। ’
  बचपन तो बचपन होता है, फिर चाहे वह नगर में बीता हो या गाँव में। ’-अमित बोला।
  ‘माँ, यह आपको क्या सूझा कि कागज पर ‘स्कूल’ लिख कर दीवार पर चिपका दिया। ’
  ‘इसके पीछे भी एक कहानी है। ’-रमा ने कहा। फिर बताने लगी-‘ बरसात के मौसम में मेरे स्कूल में पानी भर जाता था, तब पानी उतरने तक स्कूल को बंद कर दिया जाता था।  मैं पड़ोस की सखियों के साथ खेल में मगन हो जाती थी। पर एक दिन माँ ने कहा कि बरसात के कारण स्कूल का बंद होना पढाई की छुट्टी नहीं है।  फिर उन्होंने कमरे के कोने से सामान हटा कर मेरे पढने की जगह बना दी। और दीवार पर एक कागज़ चिपका कर लिख दिया—‘बरसात में स्कूल।‘ माँ वहां मुझे बैठा कर पढाया करती थीं।  मैंने कहा-‘ मैं पलंग पर बैठ कर भी तो पढ़ सकती हूँ। ’ पर माँ ने कहा कि पलंग सोने और आराम करने के लिए होता है।  मुझे माँ का आदेश मानना ही था। ’
  अमित ने कहा-‘ माँ, कैसा था आपका बचपन वाला घर?’
  ‘ अगर तुम देखना चाहो तो मेरे साथ आशा के घर चलना होगा। ’ और फिर रमा ने आशा से कह दिया कि बच्चे उसके हाथों के बने पकौड़े और चाय का आनंद लेने के लिए अगले रविवार को उसके घर आयेंगे।’ सुनकर आशा सकपका गई,वह सोच रही थी कि रमा को कैसे मना करे।  पर न कर सकी।  और रमा रमेश, अमित और जया को लेकर आशा के घर जा पहुंची। अमित और जया खड़े खड़े एक कमरे वाले घर में ठुंसी गृहस्थी को हैरान आँखों से देखते रहे। अमित ने फुसफुसा कर रमा से पूछा – ‘क्या सच आपका कसबे वाला घर ऐसा ही था। ’
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  ‘ समझ लो कि इस समय मेरे बचपन वाले घर में ही खड़े हो। ’ रमा ने धीमे स्वर में जवाब दिया।  आशा के बनाये पकोड़े और चाय का स्वाद लेने के कुछ देर के बाद रमा परिवार के साथ घर लौट आयी।  बच्चे एकदम चुप थे। रमा ने पूछा तो अमित ने कहा-‘मम्मी, मुझे तो पता ही नहीं था कि कई परिवार ऐसा कठिन जीवन जीते हैं। ’
  रमेश ने कहा-‘ बच्चो,अभी तुमने देखा ही क्या है। क्या तुम जानते हो कि लोग कड़ी ठण्ड में भी फुट पथ पर खुले में सोते हैं। मैंने कई रिक्शा वालों को उनकी रिक्शा में ही सोते देखा है।इसका मतलब यही है कि उनके पास रात बिताने का ठिकाना नहीं होता.’
  जया बोली –‘ मैंने कहीं पढ़ा है कि अपने देश में ऐसे लाखों परिवार हैं जो कई बार भूखे पेट रहते हैं। ’
  रमा ने कहा-‘बच्चो, अभी तुम्हें बहुत कुछ जानना शेष है। सोचो कि तुम ऐसे कठिन जीवन जीने वालों के लिए क्या कर सकते हो। ’
  बच्चे चुप थे। रमा को लगा वातावरण ज्यादा गंभीर हो गया है, ‘तो क्या अब मेरे और पापा के बचपन में झाँकने का मूड नहीं है। ’—कहते हुए उसने जया को गुदगुदा दिया। जया हंस दी, फिर कहा-‘मम्मी, अब पापा के साथ उनके बचपन की गलियों में सैर करने का मन है। ’ और रमेश उन्हें अपने बचपन की एक कहानी सुनाने लगे। सबको रस आ रहा था।  ( समाप्त)   

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