पीपल वाला चबूतरा—कहानी—देवेन्द्र कुमार
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सब चुप हैं। उदास हैं। अजय के पापा रमेश का ट्रांसफ़र हुआ है। उनके परिवार में चार लोग हैं।
रमेश, उनकी पत्नी छाया, रमेश के पिता रामचंद्र और अजय – रमेश का इकलौता बेटा।
पुराना शहर छोड़्कर नई जगह आने में उलझन होती है। नए-पुराने दोस्त छूट जाते हैं। मन
में डर रहता है कि नई जगह पता नहीं कैसी हो।
रामचंद्र खिड़की में खड़े बाहर देख रहे हैं।
रमेश बंद डिब्बों को खोलने में लगे हैं, छाया रसोई में चाय-नाश्ता तैयार कर रही
है। अजय का एडमीशन पहले ही हो
चुका है। उसे दो दिन बाद से स्कूल जाना है। अजय को कुछ काम नहीं है। वह खामोश बैठा
गेंद को बार-बार दीवार से टकरा कर उछाल रहा है।
तभी छाया नाश्ता लेकर आ गई। उसने पूछा –‘बाबूजी
कहां गए?’
अब रमेश ने भी इधर-उधर नज़र दौड़ाई। बोले—‘अरे
हां, अभी तो खिड़की से बाहर देख रहे थे। पता नहीं, कहां चले गए।’
‘कहीं रास्ता न भटक जाएं। अभी दो दिन ही तो
हुए हैं हमें आए हुए।’-- छाया ने परेशान स्वर में कहा। रमेश हंस पड़े। बोले –- ‘बाबूजी
पुराने जमाने के नहीं, आज के हैं। जेब में मोबाइल रखते हैं।
रास्ता भूलने का सवाल ही नहीं। चिंता न करो।’ और सच कुछ देर बाद रामचंद्र लौट आए।
रमेश ने पूछा –‘कहां चले गए थे बाबूजी? आपकी
चाय भी ठंडी हो गई|’
‘मैं दोबारा बना देती हूं।’-- छाया ने कहा।
‘मैं तो बस छाया के काम से गया था।’--
रामचंद्र बोले।
छाया ने आश्चर्य भरी नज़र से बाबूजी को देखा।
रामचंद्र हंस पड़े। बोले –-‘घर तुम्हारा है
तो काम भी तुम्हारे ही हुए। मैं बस्ती में घूम-फ़िर आया हूं। देख लिया है कि दूध की
डेयरी कहां है, केमिस्ट और डाक्टर को भी देख लिया। एक सब्जी वाला है, उसके पास खूब
भीड़ थी। यानी उससे सब्जी लेना लोग पसंद
करते हैं, और भी
बहुत कुछ देख लिया। आगे मोड़ पर एक पीपल का पेड़ है। उसे घेर कर सफ़ेद पत्थर का एक
चबूतरा बनाया गया है। मैं सोच रहा हूँ कि उसका क्या इस्तेमाल हो सकता है। पर अभी
तो वहां कई लोग ताश खेल रहे थे।
‘और क्या देखा आपने?’-- अजय ने पूछा।
‘देखा, ढूँढा पर नहीं मिली।’-- रामचंद्र
बोले।
1
‘क्या नहीं मिली बाबूजी?’-- रमेश ने पूछा।
‘यही कि बाजार में स्टेशनरी की कई दुकानें हैं,
पर किताबों की एक भी नहीं।’-- रामचंद्र ने कहा।
रामचंद्र चाय पीने लगे। फ़िर खुद बोल उठे—‘चबूतरा
बैठने की अच्छी जगह है।’
‘तो क्या आप अब बाजार में चबूतरे पर बैठा
करेंगे?’-- अजय बोला।
अगला दिन इतवार था। रमेश और छाया डिब्बों को
खोल-खोलकर सामान लगाते जा रहे थे। तभी बाबूजी ने अजय से कहा –‘हमें तो यहां कुछ
काम नहीं, आओ घूमने चलें’ आकाश में बादल घिरे थे। धीमी हवा बह रही थी। पहले बाबूजी
ने अजय को वह सब दिखाया जो कुछ वह पिछ्ली शाम खुद देखकर आए थे। फ़िर अजय के साथ
पीपल वाले चबूतरे पर जा पहुंचे। अजय ने देखा सफ़ेद पत्थरों का चबूतरा अच्छा लग रहा
था। सड़क पर ट्रैफ़िक था, पर चबूतरा सड़क से थोड़ा हटकर बना था।
बाबूजी ने कंधे पर लटके झोले से कपड़ा निकाला
और एक जगह धूल साफ़ करके बैठ गए। अजय खड़ा रहा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह
कैसी जगह चुनी है बाबूजी ने। बाबूजी ने बताया था कि वहां लोग ताश खेलते थे, पर आज
तो वहां बस कबूतर फ़ुदक रहे थे।
‘अजय!’-- बाबूजी ने आवाज दी तो अजय ने
मुड़्कर देखा -–अरे यह क्या! चबूतरे पर कुछ किताबें, पत्रिकाएं और दो अखबार रखे थे।
‘यह सब कहां से आया?’ अजय ने अचरज से पूछा।
‘और कहां से आएगा यह सब? मैं घर से लाया
हूं। मैंने कहा था न कि पीपल वाला चबूतरा अच्छी जगह है। एक तरफ़ कबूतर, दूसरी तरफ़
किताबें – है न बढिया मेल’.-- कह कर
बाबूजी हंस दिए। जब बाबूजी बात कर रहे तो दो जने आकर खड़े हो गए। एक ने उनसे पूछा ‘क्या ये बिक्री
के लिए हैं?’
‘नहीं, पढने के लिए।’-- बाबूजी ने कहा—‘आओ
बैठो, पढो!’
वे दोनों बैठकर किताबें उलटने-पलटने लगे,
फ़िर एक-एक पत्रिका उठाकर पढ़ने लगे। पत्रिकाएं पुरानी थीं। इन्हें रामचंद्र अपने
साथ पुराने शहर से लाए थे।
2
अजय खड़ा-खड़ा देख रहा था। अब वहां दो
नहीं-तीन-चार लोग आ बैठे थे। तभी अजय ने एक लड़के को देखा। वह पढ़ नहीं रहा था, बस
देख रहा था। एकाएक उसने एक किताब उठाई और तीर की तरह भाग गया।
‘बाबूजी, चोर!’... अजय ने रुंधे गले से कहा।
‘कहां...किधर...’ बाबूजी ने पूछा। अजय ने बताना चाहा, पर किताब ले
भागने वाला छोकरा कहीं दिखाई नहीं दे रहा था।
चबूतरे से कुछ दूर पुलिस का बीट-बाक्स बना था। उसमें से एक सिपाही निकल कर आया। उसने अजय के
मुंह से निकला ’चोर’ शब्द शायद सुन लिया था। बोला –‘यहां हर तरह के लोग घूमते हैं।
क्या ले गया चोर?’ उसने पूछा।
‘जी, एक किताब!’
सिपाही हंस पड़ा। ‘किताब बेचने से उसे एक-दो
रुपए से ज्यादा मिलने वाले नहीं।’
‘हो सकता है, वह किताब पढ़ना चाहता हो|’
बाबूजी अब भी किताब ले भागने वाले छोकरे को चोर नहीं कह रहे थे।
‘अगर उसे किताब पढ़नी होती तो वह यहीं बैठकर
पढ़ता..इस तरह लेकर क्यों भागा?’ अजय ने कहा। उसका मन दुखी हो रहा था। वह सोच रहा
था –‘आखिर बाबूजी को यह क्या सूझा कि यहां किताबें फ़ैलाकर बैठ गए।’
सिपाही बाबूजी से बात करते-करते एक किताब
उठाकर पढने लगा। बोला –’मैं सारा दिन यहां ड्यूटी देता हूं। चबूतरे पर ताश का
अड्डा जमाने वालों को खदेड़ता रहता हूं। कभी-कभी कुछ पढ़ने का मन करता है, पर यहां कोई किताब या पत्रिका की
दुकान है ही नहीं।’
‘सिपाही अंकल, क्या आप किताब चोर को पकड़
लेंगे?’ अजय ने पूछा।
‘हां, बेटा क्यों नहीं। हम सामान चुराने
वालों को पकड़्ते हैं तो किताब चोर को क्यों नहीं’, कहकर वह हंस पड़ा।
धीरे-धीरे
शाम ढल चली। पेड़ के नीचे धुंधलका-सा छाने लगा। बाबूजी किताबें समेट कर थैले में
डालने लगे, फ़िर कुछ देख कर रुक गए। अभी एक आदमी चबूतरे पर बैठा किताब पढ़ने में मगन
था।
बाबूजी
ने उससे पूछा –‘क्या आपको किताब अच्छी लगी?’
’जी
बहुत अच्छी! छोड़ने का मन नहीं है, लेकिन आपको जाना है न’, उस आदमी ने बाबूजी की ओर
किताब बढ़ाते हुए कहा।
‘आप
इसे घर ले जाकर आराम से पढ़ें। कल वापिस ले आएं। तब तक मैं और किताबें भी ले
आऊंगा।’ बाबूजी ने कहा तो वह आदमी हंस पड़ा। बोला –‘क्या सच मैं इस किताब को घर ले
जा सकता हूं?’ जैसे उसे बाबूजी की बात पर विश्वास नहीं हो रहा था|
बाबूजी
ने बाकी किताबें भी थैले में रख लीं। उससे बोले- ‘जरूर ले जा सकते हैं...’
3
सिपाही
बीट बाक्स के बाहर खड़ा था। उसने हंसकर बाबूजी से पूछा –‘क्या कल भी आप किताबें
लेकर आएंगे?’
‘हां,
लाऊंगा।’ बाबूजी ने कहा – ‘आपको संदेह क्यों हो रहा है?’
‘इसलिए
कि एक लड़का किताब उठाकर भाग गया।’ सिपाही ने कहा।
‘यह
सब तो होता ही रहता है। पुस्तकालयों से भी किताबें चोरी होती हैं। लोग अच्छी महंगी
पुस्तकें लेकर बैठ जाते हैं। वापस नहीं करते। लेकिन ऐसे लोग बहुत कम होते हैं।
ज्यादातर लोग तो किताबें पढकर सही सलामत लौटा देते हैं। क्या थोड़े-से पुस्तक--चोरों
के कारण लायब्रेरियों को बंद कर देना चाहिए?’
‘जी कभी नहीं।’
सिपाही बोला।
अजय
से रहा नहीं गया। उसने कहा –‘लेकिन आपने उस आदमी का नाम-पता तो पूछा ही नहीं जो
किताब अपने घर ले गया है।’
‘हां,
पूछना तो चाहिए था, पर अगर वह किताबें पढ़्ने का शौकीन है तो नई किताबें लेने के
लिए कल जरूर आएगा।’ बाबूजी बोले।
‘अगर
नहीं आया तो...?.’ अजय पूछ रहा था।
‘हो
सकता है न आए। तब उसे किताबों से दूर रहना पडेगा जो शायद उसे पसंद न आए। इसीलिए कह
रहा हूं कि वह आएगा।’ बाबूजी हंसकर बोले|
‘तो
क्या आप रोज इसी तरह किताबें चबूतरे पर रखा करेंगे लोगों के पढ़ने के लिए?’ रामचंद्र ने कहा—‘तुमने देखा सड़क पर कितनी भीड़
है। कितने ठेले-खोमचे वाले हैं। लोग पैसे देकर उनसे चीजें खरीदते हैं, पर हमें तो
कुछ नहीं चाहिए। हम तो बस किताबों को पढ़ने वालों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं।
शायद यह बात पढ़ने वालों और किताबों को अच्छी लगे।’
‘किताबों
को ....’ अजय चौंक पड़ा। ‘क्या किताबें भी मेरी और आपकी तरह होती हैं?’
‘होती
तो हैं अगर कोई उनकी बात सुनना-समझना चाहे।’ कहकर बाबूजी फिर से हंस दिए। बोले-‘किताबें
मुझसे कहती हैं, हमें बंद अलमारी की कैद से बाहर निकालो।’
‘क्या
सच?’ अजय पूछ रहा था।
बाबूजी
मुस्करा रहे थे। (समाप्त )
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