Tuesday, 15 October 2019

चिड़ियों की टोली-कहानी-देवेन्द्र कुमार


==कहानी==              चिडि़यों की टोली
                                        --देवेन्द्र कुमार

चिडि़यों की टोली उतरती है दोपहर में एक बजे। स्कूल बस ग्लोरी अपार्टमेंट्स के सामने रुकती है। सबसे पहले रजत की आवाज गूंजती है, ‘‘दादी, हम आ गए।’’ हम यानी ग्लोरी अपार्टमेंट्स के ग्यारह फ्लैटों में अलग-अलग रहने वाले अणिमा, नागेश, अनामिका, संतोष, रवि, तरला, अपर्णा, ललित, रमेश, विनय और रजत। बच्चे भले ही अलग-अलग हैं, पर दादी सबकी एक हैं। उन्होंने ही बच्चों को नाम दिया है-चिडि़यों की टोली।
बस का दरवाजा खुलता है। पहले सबसे छोटा संतोष उतरता है। दादी हाथ पकड़कर उतारती हैं। सिर पर हाथ फिराती हैं। फिर दूसरा बच्चा उतरता है, फिर तीसरा और सबसे अंत में रजत। वह चिडि़यों की टोली का मुखिया है।
दादी यानी उमा देवी हंसती हुई सबको एक-एक थैली पकड़ाती हैं—“आज मैंने तुम्हारी मनपसंद मिठाई बनाई है। शाम को आना नई कहानी सुनाएंगे तुम्हारे बाबा।“
बच्चों के बाबा हैं उमादेवी के पति अजयसिंह। वह भी एक तरफ खड़े हंस रहे हैं। बच्चे धम-धम करते, बस्ते झुलाते, एक-दूसरे को धकियाते भागते हैं। बस चली जाती है। अजयसिंह के साथ उमादेवी भी अपने फ्लैट में लौट आती हैं। उनकी चिडि़यों की टोली सही-सलामत लौट आई है।
उमादेवी और अजयसिंह एक फ्लैट में अकेले रहते हैं। उनके दो बेटे हैं-श्यामल और सुरेश। दोनों अपने-अपने परिवार के साथ अमरीका जाकर बस गए हैं। बीच में जब भारत आते हैं तो माता-पिता से एक बार जरूर कहते हैं-‘‘यहां क्या रखा है? अमरीका चलकर रहिए न।’’ माता पिता  मुस्कराकर चुप रहते हैं-यानी उत्तर साफ है कि उन्हें कहीं नहीं जाना।
एक दिन उमादेवी ने बच्चों के लिए मिठाई के छोटे-छोटे ग्यारह लिफाफे तैयार किए। हर दिन टाफी, चाकलेट,कोई-न-कोई मिठाई बच्चों को बस से उतरने के बाद देती हैं उनकी दादी। लेकिन तभी उनके पेट में दर्द शुरू हो गया। अजयसिंह तुरंत डाक्टर से दवा लेने चले गए।
एक बजे स्कूल बस सोसायटी के मुख्य द्वार के सामने रुकी। रजत ने पुकारा, ‘‘दादी, हम आ गए?’’
‘‘दादी कहां हैं?’’ नागेश ने इधर-उधर देखते हुए कहा।
‘‘और बाबा भी दिखाई नहीं दे रहे हैं,’’ तरला ने कहा।
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‘‘पता नहीं, क्या बात है?’’ अणिमा अनामिका से फुसफुसा रही थी।
बच्चे कुछ देर अपार्टमेंट के मुख्य द्वार पर खड़े रहे, फिर धीरे-धीरे दादी के फ्लैट की तरफ बढ़े,अंदर उमा देवी को लेटे देख कर उनका हाल पूछने लगे.
तभी अजयसिंह हड़बड़ाए से अंदर घुसे, ‘‘अब दर्द कैसा है?’’ देखा उमादेवी बच्चों से घिरी बैठी हैं। हंस रही हैं। वह भी हंस दिए, ‘‘तो यह क्यों नहीं कहा कि चिडि़यों की टोली को बुला लाओ। मैं डाक्टर के पास न जाकर स्कूल चला जाता।’’
एक सप्ताह बाद की बात है। एक दिन सुबह-सुबह उमादेवी चाय पीकर प्याला रसोईघर में रखने गईं तो फिर बाहर न आई। अजयसिंह ने जाकर देखा फर्श पर बेहोश पड़ी थीं। वह सबको छोड़ कर चली गईं थीं सदा के लिए.
फ्लैट के नीचे लोग आ जुटे। अमरीका टेलीफोन कर दिया गया। लेकिन वहां से कोई भी इतनी जल्दी नहीं आ सकता था। तय हुआ कि क्रियाकर्म कर दिया जाए।
एक बजे स्कूल बस आकर रुकी। रजत ने आने की खबर दी, ‘‘दादी, हम आ गए!’’ लेकिन दादी अब कभी चिड़ियों की टोली से मिलने वाली नहीं थीं.
शाम को बच्चों ने दादी को सदा के लिए जाते देखा। वे सब एक झुंड में एक तरफ चुप खड़े थे।
अगली दोपहर एक बजे घर का नौकर बिलासी सोसाइटी के दरवाजे पर खड़ा था। उसे देखते ही बच्चों ने घेर लिया। सब एक साथ पूछने लगे-क्या हुआ था दादी को?’
बिलासी ने सब-कुछ बता दिया। ‘‘और बाबा?’’ रजत ने पूछा थ।
जवाब देने से पहले कुछ देर चुप रहा बिलासी। रजत ने देखा उसकी आंखें डबडबा आई थीं। रुंधे गले से बोला, ‘‘बाबू तो एकदम चुप हो गए हैं। किसी से कुछ नहीं बोलते।’’
‘‘खाना खाते हैं?’’ अणिमा ने पूछा।
बिलासी ने सिर हिला दिया। बोला, ‘‘सबके कहने पर थाली के सामने बैठ जरूर जाते हैं, पर खाते कुछ नहीं। अनछुई थाली मैं ही तो उठाता हूं। पता नहीं क्या होगा अब?’’
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उस शाम रजत ने अपने साथियों को बुलाया और कहा, ‘‘हमें एक बार बाबा के पास जरूर जाना चाहिए।’’
‘‘मैं कैसे बात करूंगी उनसे? मुझे तो एकदम रोना आ जाएगा!’’ तरला बोली।
‘‘तुमने सुना, बिलासी क्या कह रहा था, बाबा ने खाना-पीना छोड़ दिया है। दादी के सिवा उनका था ही कौन?’’
शाम को रजत और बच्चे डरते-डरते सीढि़यां चढ़कर ऊपर पहुंचे। घर में काफी लोग थे, पर बाबा कहीं नजर नहीं आए। बच्चे कुछ देर झिझकते से खड़े रहे, फिर नीचे उतर आए।
रजत बिलासी से  बाबा के बारे में पूछता रहता था। खुद बिलासी ही आकर बता जाता था कि ‘‘आज बाबू ने चाय नहीं पी, खाना भी नहीं खाया। रात को जब-जब आंख खुली तो उन्हें कमरे में अम्माजी की तस्वीर के सामने खड़े पाया, जैसे उनसे बात कर रहे हों।’’
स्कूल बस सुबह बच्चों को ले जाती थी, दोपहर में ठीक समय पर छोड़ जाती थी। एक दिन रजत ने अणिमा से कहा, ‘‘ऐसे कैसे रहेंगे बाबा? न खाते हैं, न बोलते हैं। और तो और हमसे भी बात नहीं करते!’’
‘‘हां, पहले तो दादी के साथ दोपहर में रोज आकर खड़े होते थे बाहर,’’ तरला बोली।
एक सुबह बस बच्चों को लेकर ग्लोरी अपार्टमेंट्स से चली तो रजत ने चिल्लाकर कहा, ‘‘मैंने बाबा को देखा था। दरवाजे से दूर एक खंभे के पीछे खड़े हुए थे। वहां क्या कर रहे थे वह?’’
    बात किसी की समझ में नहीं आ रही थी। उस दिन स्कूल की आधी छुट्टी में भी इसी बात पर चर्चा होती रही।
‘‘बाबा को भला छिपकर खड़े होने की क्या जरूरत है? क्या वह आकर दरवाजे पर खड़े नहीं हो सकते?’’ अनामिका ने रजत से कहा।
‘‘हमसे बात क्यों नहीं करते?’’ रमेश बोला।
‘‘अगर यह बात है तो हमने ही उनसे कब बात की है। वह अकेले हो गए हैं, परेशान हैं। हम ही उनके पास कितनी बार गए?’’ रजत ने कहा। उसका गुस्सा सबके साथ-साथ खुद पर भी था।
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उस दोपहर बस दरवाजे पर रुकी। रजत की तेज नजर ने बाबा को खंभे की आड़ में खड़े देख लिया था।
अजयसिंह सुबह बच्चों को स्कूल जाते समय और दोपहर में लौटते समय खंभे की ओट में छिपकर देखा करते थे।
अगली सुबह बस घुरघुराती हुई चली गई। खंभे के पीछे खड़े अजयसिंह अंदर जाने के लिए मुड़े तो सब बच्चे उनके सामने मौजूद थे, एकटक देखते हुए। बच्चे स्कूल गए ही नहीं थे।
अजयसिंह हड़बड़ा गए। इधर-उधर देखने लगे।
‘‘आज हमने चोरी पकड़ ली।’’ रजत ने रमेश की तरफ मुड़कर कहा।
‘‘हम भी तो कहें कि हमें छिपकर कौन देखता है, सामने क्यों नहीं आता?’’ अपर्णा बोली।
‘‘चोरी!’’ अजयसिंह के मुंह से बस एक ही शब्द निकल सका। वह कुछ समझ नहीं पा रहे थे
‘‘हां, चोरी, आप क्यों देखते हैं हमें यों छिपकर?’’
‘‘मैं तो बस...’’ अजयसिंह ने कहना चाहा फिर बोले,‘‘लेकिन तुम सब आज स्कूल क्यो नहीं गए? बस तो चली भी गई। क्या बात है?
‘‘आपको पकड़ने के लिए ही हमने यह योजना बनाई थी, बाबा!’’ रजत ने कहा।
‘‘हां, आप दादी की तरह मेन गेट पर भी तो खड़े हो सकते हैं। यह लुका-छिपी क्यों?’’ अनामिका कह रही थी।
‘‘दादी की तरह...?’’ अजयसिंह की आंखों से आंसू बह चले।
बच्चे उन्हें घेरकर खड़े हो गए। ‘‘बाबा, आप रोते क्यों हैं?’’ नन्हे संतोष ने कहा और उनका हाथ पकड़कर हिलाने लगा। अजयसिंह ने उसे गोद में उठा लिया, उसका सिर सहलाने लगे।
उन पर एक के बाद दूसरा सवाल बरस रहा था। रजत ने कहा, ‘‘हमें पता है आप सुबह चाय भी नहीं पीते। रात को कमरे में घूमते रहते हैं...क्यों?’’ बाबा हैरान! बच्चे सच कह रहे हैं कि चाय छोड़ दी, खाने का मन नहीं करता और रात में नींद भी नहीं आती। पर बच्चों को यह सब कैसे पता? उन्हें क्या मालूम था कि बिलासी उनकी पूरी दिनचर्या का हिसाब बच्चों को बता देता था।
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संतोष उनकी गोद में था। बाकी सब उन्हें घेरकर फ्लैट की तरफ ले चले।
कुछ देर बाद दादी की चिडि़यों की टोली बाबा अजयसिंह के साथ बड़े कमरे में बैठी चहचहा रही थी, जहां दादी की हंसती हुई तस्वीर लगी थी।
थोड़ी देर में अपर्णा अपनी सहेलियों के साथ चाय व नाश्ता बाबा के सामने ले आई।
‘‘और तुम लोग?’’ बाबा ने पूछा।
‘‘अब दादी तो हैं नहीं जो हमें मिठाई खिलाएं। आपको मिठाई बनानी नहीं आती तो  चाकलेट और टाफियां ही दे दीजिए हमें, लेकिन रोज देनी होंगी।’’ रजत मुस्करा रहा था।
‘‘कौन कहता है कि मैं मिठाई बनाना नहीं जानता कुछ मिठाइयां तो तुम्हारी दादी को मैंने ही सिखाई थी,’’ कहकर बाबा हंस पड़े।
‘‘तो बनाकर खिलाइए। तभी आपकी बात पर विश्वास होगा।’’ अपर्णा ने कहा।
रजत बोला, ‘‘बाबा, आपको परीक्षा में पास होकर दिखाना होगा। दादी की तरह हर रोज हमारे लिए मिठाई का जुगाड़ करना होगा आपको।’’
चिडि़यों की टोली चहचहा रही थी। रजत बोला, ‘‘बाबा, आप सुबह उठते ही चाय पीकर हमें स्कूल के लिए छोड़ने बाहर आएंगे।’’ अपर्णा बोली, ‘‘दिन में सही समय पर नाश्ता करेंगे।’’ संतोष बोला, ‘‘दोपहर में आप हमें दादी की तरह सोसायटी के दरवाजे पर मिलेंगे।’’ अणिमा बोली,‘‘दोपहर का भोजन हमारे साथ करेंगे आप।’’
‘‘और हां, इस तरह खंभे के पीछे छिपकर नहीं देखेंगे।’’ रजत बोला।
बच्चों की बातें सुन अजयसिंह जोर से हंस पड़े-शायद बहुत दिन बाद पहली बार, “अब ऐसी गलती नहीं होगी।’’
‘‘बाबा मान गए...’’ शोर मचाते, धम-धम करते बच्चे नीचे उतर गए।
अगली दोपहर स्कूल बस आकर रुकी तो बस का दरवाजा बाबा ने खोला। चिडि़यों की टोली चहचहा रही थी, ‘‘रात का खाना खाया? नींद ठीक से आई?’’
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बाबा मुस्करा उठे, उन्होंने जवाब देने के बाद सवाल दाग दिए, ‘‘नाश्ता किया? होमवर्क मिला? डांट तो नहीं खाई?’’
हर बच्चे को लिफाफा थमाते समय बाबा यह कहना नहीं भूले, ‘‘मिठाई मैंने अपने हाथों से बनाई है। बिलासी ने मेरी कोई मदद नहीं की।’’
दादी गई नहीं थी, बाबा में लौट आई थीं।( समाप्त)           

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