Sunday 14 January 2018

दिलावर खड़ा है --देवेन्द्र कुमार --कहानी



दिलावर खड़ा है---देवेन्द्र कुमार—कहानी
=================================

अत्ती को जरूर कुछ हो गया है। हर रात वही सोते-सोते चौंककर उठ बैठना और चिल्लाना-‘‘चोर!चोर! अजी, चोर घुस आया है घर में। तुम्हारा सामान चुराकर ले जा रहा है।’’ यहां आए कुल जमा बीस दिन हुए हैं लेकिन इसी बीच कैसी हो गई है!
सोच-विचार कर दिलावर का मन एक ही बात पर टिकता है। मन-ही-मन गाली देता है। जगह वाकई मनहूस है, हरदम वही धड़-धड़ धड़ाम। लाल-लाल धूल उड़ाती हवा बदन पर ठंडी लगती है-बर्फीली। दिलावर को ऐसी गुम धूल में सांस लेने का खूब अभ्यास हैं, लेकिन यह हवा उस हवा से कितनी अलग है जो जमीन से आकाश की ओर उठते हुए मकानों के आसपास धूल के बगूले उड़ाया करती है। वहां अपनी मेहनत को पलते-बढ़ते देखने का सुख होता है लेकिन यहां...
कुछ दिन पहले तक यह बस्ती एकदम गुलजार थी। एक दिन अचानक किसी क्वार्टर की छत का हिस्सा गिर जाने से हड़कंप मच गया। जांच करने वाली टोली आई थी और उसने घोषित कर दिया था कि ये क्वार्टर रहने लायक नहीं रहे हैं। कभी भी गिर सकते हैं। इसके बाद कुछ दिनों में बस्ती एकदम खामोश हो गई थी। सूरज ठेकेदार ने सब क्वार्टरों को तोड़ने का ठेका ले लिया था। गिराने वाले मजदूरों की भीड़ में अत्ती और दिलावर भी थे।
न जाने क्यों यहां की गहमागहमी से भरी सुबह की शुरुआत और तड़कती दोपहर के बदले, थकी-चुकी शाम और फिर उजाड़ बस्ती पर एकाएक उतर आने वाला अंधेरा दिलावर को ज्यादा अच्छा लगता है। गोकि उस समय आमतौर पर यहां कोई नहीं होता। अधिकांश साथी मजदूर जा चुके होते हैं। केवल वे चार-पांच जन हैं जो खामोशी से गिरने का इंतजार करते खतरनाकमकानों में रातें गुजारते हैं। अंधेरे में (क्योंकि सड़कों की बत्तियां बहुत दिन पहले बुझ चुकी हैं और खाली मकानों में बिजली का क्या काम!) ऊपर से उधड़ी हुई दीवारों के बीच कहीं-कहीं आग की छोटी-छोटी लपकें दीवारों पर कौंधती हैं और बमबारी से ध्वस्त शहर की याद दिलाती हैं।
                                      1
पहली रात ऐसे ही एक क्वार्टर में बसेरा किया था दोनों ने। ईंटों के अनगढ़ चूल्हे के बीच इधर-उधर से बीनकर लाई गई सूखी छिपट्टियां चट-चट की हल्की आवाज के साथ धुआं देती हुई जल रही थीं। बिना गरदन की हंडिया में नमक मिला पानी खदबदाने लगा था।
इतनी ही देर में अत्ती ने मेहनत से लगकर जरा सफाई कर डाली थी। फर्श पर गिरे मलबे को परे सरकाकर लेटने-बैठने की जगह निकाल ली गई थी
                                      
चूल्हे के पास घुटनों पर मुंह टिकाए आग में क्या तो देखती अत्ती को चौकाने का मन नहीं हुआ उसका। चुप खड़ा खुश्क गले में ताजे पानी की ठंडक घूंटता हुआ ताकता रहा।
तभी अत्ती ने पुकार लिया था-‘‘आ जाओ न।’’ वह चोर सा हड़बड़ाया था। फिर इधर-उधर ताककर दीवार से निकले सरिए पर अंगोछे की पोटली लटकाकर अत्ती के पास जा बैठा था।
खाने के बाद दोनों पास-पास आ लेटे थे। अत्ती की हथेलियों से उठती ताजे आटे की सौंधी महक उसे संतुष्ट कर गई थी। टूटी छत के बीच से झांकते आसमान के टुकड़े पर दो-तीन फीके सितारे टंगे थे। नंगी दीवारों से हवा बेरोकटोक घुस रही थी-वाह!
अत्ती चुप चित लेटी ऊपर ताक रही थी। ‘‘क्या सोच रही है रे?’’ उसने हौले से पूछ लिया था।
वह हंस पड़ी थी-‘‘कितनी अच्छी जगह है यह।’’
‘‘रही पागल ही! अभी छत गिर जाए तो बस हो गया। जगह ठीक-ठाक होती, तो रहने वाले ही क्यों छोड़कर जाते!’’
‘‘मेरे तो हाथ बहुत टीस रहे हैं। ये मकान कमजोर है! मां री! गाँव के झोंपड़े की याद नहीं है?’’ फिर बोली थी-‘‘जरा पूछ ले ठेकेदार से। हमें एक घर दे-दे तो...एक न टूटेगा तो क्या हो जाएगा। मेरा तो बहुत मन करे हैं, यहां रहने को।’’
दिलावर हंसता चला गया था। अत्ती भी बस... पागल कहीं की।
रात को चाहने पर भी बहुत देर तक नींद नहीं आई थी। अत्ती की गरम सांसें उसकी मूंछों को धीरे-धीरे गुदगुदाती तो एक अजानी पुलक से मन यहां से वहां तक भर जाता।
                                      2


कितने दिनों बाद वह अत्ती के पास आराम से लेट पाया था। दो साल से ऊपर हो गए गांव छोड़े हुए, या पागल कुत्ते की तरह वहां से खदेड़े जाकर भागे हुए। इसके बाद वे दोनों जहां भी रहे हैं वहां ढेर सारे लोगों के बीच ही भीड़ भरी रातें व दिन किसी तरह काटे हैं।
अगले दिन वह क्वार्टर तोड़ दिया गया था। उसने अत्ती के साथ दूसरी रात गिरने-गिरने को हो रहे अन्य मकान में गुजारी थी। उन रातों को ताजिंदगी नहीं भूल पाएगा दिलावर।
लेकिन यहीं बस हो गया था। उस सुबह दिलावर की नींद कुछ जल्दी टूट गई थी। अपने पास लेटी अत्ती को टटोला था उसने। लेकिन अत्ती नहीं थी। न जाने कहां चली गई थी? कुछ दूर पर सफेद-सफेद कपड़ों में लिपटी एक मूरत सी बैठी थी। बिना पल्लों के खिड़की दरवाजों से आती भोर की उदास उजास में लिपटी अत्ती उसे कोई दूसरी ही मालूम पड़ी थी। वह उसकी ओर ताक रही थी। फिर लगा जैसे उसकी ओर नहीं बल्कि आर-पार देख रही हो।
    माँ कसम, एकदम खौफ खा गया दिलावर। भड़भड़ाकर उठा और अत्ती को झिंझोड़ डाला, लेकिन उसमें कोई हरकत नहीं हुई। ‘‘क्या है रे, कैसी बैठी है? बोलती क्यों नहीं?’’
लेकिन जवाब नहीं दिया अत्ती ने। उठकर कपड़े ठीक करने लगी थी। फिर बोली-‘‘चलो, आदमी आते होंगे। ठीकेदार शायद आ गया है।’’
यह दिलावर की बात का जवाब एकदम नहीं था। उसने और कुछ नहीं पूछा। तेज मिजाज की गरम आंच और ठंडे सर्द रुख दोनों को ही अच्छी तरह जानता है वह। बीच-बीच में अत्ती एकदम बेगानों की तरह हो जाती है। ऐसे देखती है कि बस...
दिन भर वह दूसरी मजदूरिनों के साथ खटती रही थी। दिलावर बीच-बीच में उसे निरख-परख लेता था। कुछ-कुछ हिसाब लगाता सा। उसे एक झूठी उम्मीद थी, शायद शाम को अत्ती ठीक मिले।
शाम को उसने अत्ती से बेबात पूछा था-‘‘अरी, वह रात वाला घर तो टूट गया। आज किसमें बसेरा करेंगे?’’
‘‘घर!’’ अत्ती ने दोहराया था।
‘‘हां, चल! खाना-पीना नहीं करना क्या?’’
 ‘‘यहीं ठीक है। वहीं क्या होगा।’’
फिर दिलावर के कहने-समझाने पर अत्ती साथ चली गई थी। उसने रोटियां सेंकी थीं। मिन्नत करने पर खा भी लिया था। लेकिन यह बात दिलावर को लगातार घेरे रही कि यह वह अत्ती नहीं है।
रात में उसे पास खिसकाकर नरमाई से पूछना चाहा तो अत्ती ने छिटककर कहा था-‘‘दिक मत कर। तू मेरा मरद  नहीं है जो...’’
दिलावर सन्न रह गया था-सुन्न! अंदर कहीं कुछ जोर से तड़क गया था। सबसे बड़ा तीर है अत्ती के तरकस में यह। और चलाती भी कब है जब वह एकदम कमजोर होता है।
ठीक ही तो कहती है। मैं भला मरद कहां हूं इसका। मैं तो कुछ भी नहीं हूं, कोई भी नहीं। वह पिछली बातों को एकदम भुलाना चाहता है, पर अत्ती...
गांव के वे मनहूस दिन। वह शाम जब उसने अत्ती को नदी में कूदने की कोशिश करने से रोका था। और फिर जब गांव वाले अत्ती पर पत्थर बरसाकर उसे मार डालने को तैयार थे, तब उसका हाथ पकड़कर वह भागता चला आया था। मुखिया का बेटा अत्ती को काबू नहीं कर पाया था तो उसे सरेआम चुड़ैल बता कर पूरे गांव के हाथों में पत्थर थमा दिए थे।

                                           3


लेकिन इसी से क्या कोई मरद बन जाता है किसी का? नहीं। यही बात अत्ती के मन में है। बार-बार बता भी देती है। लेकिन यह बताना नहीं चाहती कि मरद बनने के लिए और क्या करना पड़ेगा। तब से वे दोनों साथ-साथ हैं, लेकिन शायद उनके बीच की दूरी जरा भी कम नहीं हुई है। वरना अत्ती यह कैसे कह देती! कहा तो इससे पहले भी कई बार है, लेकिन कहते ही अत्ती की आंखों से बेसाख्ता बहने वाले आंसू उसकी पोल खोल देते थे और दिलावर उखड़ते-उखड़ते रह जाता था।
इस बार एक-एक करके कई दिन बीत गए हैं, पर अत्ती की तबीयत ठीक नहीं हुई है। रात को बीच में कई बार चीखकर उठ बैठती है। वही चोर-चोरचिल्लाती हुई। हर रात गुजरती है, दिलावर का वहम पक्का होता जाता है कि अत्ती को जरूर कुछ हो गया है, लेकिन क्या?
आज भी वैसी ही शाम थी। चुप, गुम अत्ती चूल्हे के पास घुटनों में सिर दिए बैठी थी। दिलावर ने अब कोशिश छोड़ दी है। वह देखना चाहता है, अत्ती के तरकस में अब कौन से तीर बाकी हैं?
अत्ती सो गई है। लेकिन दिलावर को नींद नहीं आ रही है। पर अत्ती की नींद भी असली नहीं लगती। रह-रहकर सिहर उठती है। दिलावर मना रहा है, वह सोती रहे तो ठीक। इसी क्या और क्यों में डूबते-उतराते उसे नींद आ गई।
एकाएक अत्ती ने उसे झिंझोड़ डाला था। चोर-चोरचिल्लाती हुई वह उससे चिपट गई थी। उसे छूकर दिलावर चौंका  था। अत्ती गरम दहक रही थी। शायद बुखार था।
अजी चोर आया है!’’ आंखें मुंदी थीं, होंठ फड़क रहे थे। ‘‘वह तुम्हारा सामान ले जा रहा है। दरवाजा बंद कर दो न।’’
दिलावर न चाहते हुए भी हंस पड़ा। सरिये पर झूलती पोटली, एक तसला और बिना गदरन की हंडिया! ले जाना है तो ले जाए। जरूर चोर उससे भी ज्यादा जरूरतमंद होगा। और यही बात उसने कांपती अत्ती के कानों में फुसफुसा दी थी।
‘‘वह आ रहा है। छिपकर देख रहा है। दरवाजा बंद कर लो न।’’
दिलावर चारों तरफ देखने पर मजबूर हो उठा। तीन तरफ दीवारों में बिना किवाड़ों के खिड़की-दरवाजे। उनके किवाड़ पहले ही अलग निकाल लिए गए हैं। हवा बेरोक-टोक घुसी आ रही है। ऊपर छत भी नहीं है। और यह दरवाजा बंद करने को कह रही है! पगली!
उखाड़े गए किवाड़ बाहर बरामदे में दीवार के सहारे टिके हें।
                                       4

         
अत्ती जोर-जोर से रो रही है।
वह उठ खड़ा होता है। इसे बहलाना जरूरी है। उठकर एक भारी-भरकम किवाड़ घसीट लेता है। हाथों में खुरदरी किनार चुभ रही है।
अत्ती घुटनों में मुंह छिपाए बैठी है। दिलावर को एकाएक गुस्सा आ जाता है। कमबख्त नखरे कर रही है। फिर अपने पर काबू करके कहता है-‘‘चोर को आना होगा, तो कहीं-न-कहीं से आ ही जाएगा। छत से, खिड़की से, कहीं से भी... तू आराम से सो जा।’’
अत्ती उसकी ओर ताकती, सुबकती है-‘‘हां जी, ठीक ही है, चोर ठीकेदार आ ही जाएगा, कहीं से भी। कैसे रोकोगे? कहीं-न-कहीं से जरूर ही...।
कुछ पल मौन का सन्नाटा रहता है।
फिर कहती है अत्ती, ‘‘ठीक कहते हो।’’ आवाज में गहराई की ठंडक है।
दिलावर अडिग खड़ा रह जाता है किवाड़ पकड़े हुए। कई तसवीरें एक साथ कौंधती हैं-दिन-दोपहर की, कई बार इधर-उधर... सूरज ठीकेदार और अत्ती। तब उसने कुछ न समझा था, लेकिन अब...
अत्ती औंधी लेटी है। शायद बेहोश है। दिलावर किवाड़ थामे खड़ा है। उसकी खुरदरी मुट्ठियों में दर्द की लकीरें खिंच रही हैं।
अत्ती खामोश है। दिलावर खड़ा है। वह खड़ा रहेगा कब तक?
अत्ती अधमुंदी आंखों से जागता सपना देख रही है-बीचोंबीच दरवाजा थामे दिलावर किसी दैत्य की तरह बड़ा होता जाता है। उसका सिर बिना छत वाले घर से ऊपर उठकर काले आसमान में जा लगा है। अत्ती को नींद आ रही है।
                                                                      ( समाप्त )

No comments:

Post a Comment