Monday 2 November 2020

आशीर्वाद--कहानी—देवेंद्रकुमार

 

आशीर्वाद--कहानी—देवेंद्रकुमार

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   नरेश सीढ़ियों से उतरा तो देखा-रतन फैले कूड़े को समेटने में जुटा  था.रतन सोसाइटी में सफाई का काम करता है. नरेश आगे बढ़ने को हुआ तो उसकी नजर कूड़े के बीच पड़े कागज के एक टुकड़े पर पड़ी। उस पर लिखा –आशीर्वाद शब्द साफ़ पढ़ा जा सकता था. उसने झुक कर कागज़ के टुकड़े को उठा लिया. रतन  ने पूछा तो नरेश ने कागज दिखा कर कहा- इस पर  'आशीर्वाद ' लिखा है. इसे तो संभाल कर रखना चाहिए|’

   रतन ने कहा -'आपकी  बात एकदम ठीक है,'आशीर्वाद जब भी मिले उसे संभाल कर रखना चाहिए,

लेकिन कितना कुछ है, जिसे यूं ही फेंक दिया जाता है,मैं आपकी  यह बात कभी नहीं भूलूंगा.'और   फिर से अपने काम में लग गया.

     एक रोज नरेश नीचे उतरा तो रतन को देखा -उसकी झाड़ू एक तरफ पड़ी थी ,वह बिखरे कूड़े के बीच न जाने क्या खोज रहा था. नरेश ने पूछ लिया-'कुछ खो गया क्या ?'

    'जी,खोया तो कुछ नहीं,पर कई चीजें मिली हैं मुझे.' और उसने दीवार के साथ बनी सीमेंट की पटरी की ओर संकेत किया.

   नरेश ने  देखा वहां कई खिलौने रखे थे,जो पुराने और टूटे हुए थे. वह समझ नहीं सका कि टूटे खिलौने जमा करने की भला क्या तुक है, पर रतन से कुछ नहीं कहा.

    एक दिन नरेश ने देखा कि कूड़े दान के पास बनी सीमेंट की पटरी पर बच्चों की टूटी खिलौना घडी,बिना पिन वाला लट्टू, पिचकी हुई पीपनी और टूटा हुआ माउथ ऑर्गन रखे हैं. उसने पूछ लिया- बच्चों ने जिन चीजों को बेकार मान कर फेंक दिया है,  उन्हें तुम किसके लिए जमा कर रहे हो,क्या किसी बच्चे को देने के लिए ?’

  जी नहीं ,मेरा बेटा बड़ा हो गया है, खिलौनों से खेलने की उसकी उम्र बीत गई.'

      'तो फिर इन टूटी फूटी चीजों को क्यों जुटा रहे हो?'-नरेश ने पूछा 

   इन टूटे हुए खिलौनों से मुझे यह प्रेरणा मिलती है कि बच्चों के लिए नए खिलौने लाऊँ। '

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     लेकिन तुम्हारा बेटा तो बड़ा हो गया है.तब फिर किन बच्चों की बात कर रहे हो.'-नरेश बोला.

     रतन ने जो कुछ बताया उससे नरेश यह समझ गया कि रतन जिस बस्ती में रहता है,वहां बच्चों को आसानी से खिलौने नहीं मिलते.  उसने बताया-'बाबूजी,वहां सब मेरे जैसे परिवार रहते  हैं. वहां एक फेरी वाला रोज आता है. उसके पास ऐसे ही लेकिन सस्ते खिलौने  होते हैं. मैंने उससे बात की तो वह और भी कम दाम पर देने को तैयार हो गया. मैं उससे कई खिलौने लेता हूँ इसलिए वह मुझे उधार भी दे देता है. उसका अपना कोई बच्चा नहीं है, अनजान बच्चों को कई बार वह मुफ्त भी दे देता है. वह कहता है कि उसे बच्चों के हँसते चेहरे देकर ख़ुशी मिलती है.

               एक सुबह बालकनी में टहलते हुए नरेश ने किसी के चिल्लाने की आवाज सुनी,नीचे रतन और सोसाइटी का गार्ड रूपचंद खड़े थे| रूपचंद न जाने क्यों रतन को डांट रहा था और रतन चुप खड़ा था.

    नरेश ने नीचे जाकर पूछा तो रूपचंद ने कहा-'बाबूजी,जरा इसकी करतूत तो देखिये,पता नहीं कूड़े में क्या खोजता रहता है. जरूर इसे किसी के गिरे हुए पैसे मिले हैं| अगर ऐसा था तो इसने पैसे सोसाइटी के दफ्तर में जमा क्यों नहीं कराये? मैं इसकी शिकायत करूंगा तभी इसकी अक्ल ठिकाने आएगी.'

  रतन बोला -'यह झूठ है, मुझे कोई पैसे नहीं मिले,रूपचंद गलत समझ रहा है |'

        लेकिन रूप चंद मानने को तैयार ही नहीं था. वह बार बार रतन की  शिकायत करने की बात कह रहा था.

      नरेश समझ गया कि कूड़े में  टूटे खिलौने खोजने के चक्कर में रतन ने अपने को मुश्किल में डाल लिया था. उसने रूप चंद को एक तरफ रखे टूटे खिलौने दिखा कर कहा-'.यही वह खजाना है जिसे रतन ने कूड़े में खोजा है. और फिर कागज पर लिखे'आशीर्वाद' के बारे में बताया तो रूप चंद बड़बड़ाता हुआ वहां से चला गया.

    रतन बोला -'आप रूप चंद को नहीं जानते,वह हमेशा मुझसे इसी तरह चिढ़ कर बात करता है.'

    नरेश ने कहा-'तुम मेरी वजह से मुसीबत में पड  गए हो.अब कूड़े में टूटे खिलौने ढूंढना छोड़ दो.  मैं उसे समझा दूंगा कि वह तुम्हारी  शिकायत न करे.'

     ' आपके आशीर्वाद ने मुझे किसी मुसीबत में नहीं डाला बल्कि बच्चों को खुश करने का रास्ता दिखा दिया है. '-रतन बोला|

     नरेश ने रूप चंद को समझा बुझा कर शांत कर दिया. रतन  भी अपने काम में जुट गया.

                                                                                         2

  एक दिन  रतन उसे सोसाइटी  बाहर मिला. उसके साथ एक बूढा आदमी था। उसने हाथ में एक बांस थामा हुआ था जिस पर बंधी डोरियों से अनेक खिलौने झूल रहे थे. रतन ने कहा-' बाबूजी,यही हैं मेरे दोस्त वीर जी. मैं इन्हें आप से मिलाने लाया हूँ.'

   तीनों चाय के  स्टाल पर जा बैठे. वीर जी ने नरेश से कहा-'रतन ने मुझे आपके बारे में सब कुछ बता दिया है.कैसे कागज के टुकड़े पर लिखे 'आशीर्वाद 'ने इसे एक नया रास्ता दिखा दिया है'वीर जी ने जो अपने बारे में बताया उससे नरेश जान गया कि वह अपने जीवन में अकेला है. खिलौने इसीलिए बेचता है कि बच्चों के बीच रह कर उन्हें हँसा सके. बच्चों को हँसते खिलखिलाते देख कर मन को चैन मिलता है.

   वीर जी के जाने के बाद दोनों देर तक  बात करते रहे. फिर  सोम बाजार की भीड़ के बीच से गुजरते हुए  रतन कपड़ों के एक स्टाल पर रुक गया. वहां बच्चों -बड़ों की पुरानी  पोशाकें बिक रही थीं.

    नरेश ने पूछा-'क्या बेटे के लिए  कुछ खरीदना है?

  'नहीं,मैं इन दो छोकरों के बारे में सोच रहा हूँ ' और फिर उसने दो बच्चों की और संकेत किया जो थोड़ी दूर खड़े कपड़ों के स्टाल की ओर  देख रहे थे. रतन ने बताया कि उसने रूपचंद के पास अक्सर इन  बच्चों को देखा है. ये  सड़क  पर मेहनत  मजूरी करते हैं. रूपचंद कभी कभी  इन्हें  अपने साथ खा ना खिलाता है. पर  एक दिन वह इन्हें  डाँट  रहा था, पता नहीं क्यों !

   नरेश ने देखा -दोनों बच्चों  के बदन पर फटे पुराने कपडे थे.मौसम ठंडा हो चला था. यह समझना मुश्किल नहीं था

कि उन्हें क्या चाहिए था. उसने कुछ सोचा और वहां से दोनों बच्चों के जाने की प्रतीक्षा करता रहा. फिर रतन से  अपने मन की बात कह  दी. और उन बच्चों के लिए दो जोड़ी कपडे खरीद लिए.

    'यह आपने बहुत अच्छा किया है. मैं चाह कर भी इन बच्चों के लिए कुछ नहीं कर सका क्योंकि'

   नरेश ने उसे आगे बोलने से रोक दिया.कहा-'ये कपडे तुम उन बच्चों को दोगे। '

 'पर इन पोशाकों को तो आपने खरीदा है,.'-रतन ने कहा.

 नरेश ने कुछ सोचा फिर कहा-'रतन,हम दोनों ही ये पोशाकें बच्चों को नहीं देंगे. यह काम करेगा रूपचन्द '

  'लेकिन रूपचंद क्यों ?-रतन ने कहा.

  'यह सब मैं तुम्हें बाद में बताऊंगा '-कह कर नरेश मुस्कराया.

 रतन उलझन में था, वह कुछ समझ नहीं पा  रहा था. लेकिन नरेश ने सब सोच लिया था.

वह रूपचंद के पास गया. उसे दोनों पोशाकें देते हुए कहा-'जो दो बच्चे तुम्हारे पास आकर खाना खाते हैं, उनके लिए ये कपडे रतन ने खरीदे  हैं. पर वह उन बच्चों को नहीं जानता,बच्चे तुम्हें और तुम उन्हें अच्छी तरह जानते हो. तुम्हारे हाथों से लेकर बच्चों को अच्छा लगेगा.मना मत करो.समझ लो कि ये पोशाकें तुमने ही बच्चों  के लिए खरीदी हैं.'

 रूपचंद ने वैसा ही किया. नई पोशाकें पहन कर दोनों बच्चे बहुत खुश हुए. और फिर एक दिन नरेश ने रूपचंद और रतन को घुल मिल कर बतियाते देखा तो समझ गया कि दोनों के बीच की कड़वाहट दूर हो चुकी है. उसकी योजना सफल हुई थी. कागज के टुकड़े पर लिखे 'आशीर्वाद'ने नरेश,रतन,वीर जी, रूप चंद और दो अनजान बच्चों को बहुत गहराई से जोड़ दिया था. आशीर्वाद केवल बड़े ही नहीं देते,बच्चों की हँसी में भी इसके बीज छिपे रहते हैं जो अंकुरित होकर सुगन्धित फूल बन जाते हैं. (समाप्त )

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