Sunday 6 September 2020

घंटी की आवाज,कहानी,देवेन्द्र कुमार

 

घंटी का आवाज—कहानी—देवेन्द्र कुमार

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  अनुज और दयाल स्कूल से घर रहे थे। वे खुश थे कि दो दिन बाद स्कूल की छुट्टियाँ  होने वाली है। दोनों प्रोग्राम बना रहे थे कि छुट्टियों में कहाँ सैर की जाए। अनुज ने कहा—“भैया, छुट्टी की बात रसगुल्ले जैसी लगती है। छुट्टी का नाम लेते ही मुँह में रस भर जाता है।‘’

 घर तक शार्ट कट के लिए एक मैदान पार करते समय एकाएक दयाल लड़खड़ा गया। उसके मुँह से चीख निकल गई। अगर अनुज ने हाथ पकड़ा होता तो दयाल मुँह के बल गिर जाता। देखा जमीन पर एक डोरी पड़ी है। उसके दो छोरों पर छोटी-छोटी दो घंटियाँ बंधी हुई थीं, उन्हीं में पैर फंसने से दयाल लड़खड़ा गया था। अनुज ने डोरी में बंधी घंटियाँ उठाकर हिलाईं तो टन टन की आवाज आने लगी। शायद बच्चों का कोई खिलौना या मंजीरा जैसा कुछ था। दोनों बारी-बारी घंटियों को हिलाते और हँसते हुए घर गए। दयाल बड़ा और अनुज छोटा है। दोनों खाना खाने के बाद अपने कमरे में बैठकर डोरी से बंधी उन घंटियों को टनटनाते हुए उछलने लगे। वे हँस रहे थे। तभी उनका खेल रूक गया। देखा दरवाजे में खड़े बाबा उन्हें घूर रहे थे।

  बाबा ने पूछ लिया-यह कहाँ से लाए?”

  अनुज ने पूरी घटना बता दी तो बाबा ने कमरे में आकर घंटियों वाली डोरी उठा ली और उसे टनटनाने लगे। टन टन की आवाज सारे घर में गूँजने लगी। अनुज और दयाल हैरानी से बाबा की ओर देख रहे थे। आखिर बाबा यह खेल क्यों कर रहे थे!

  तभी बाबा ने कहा—“मुझे मेरे गाँव की याद दिला दी तुमने।

  गाँव की याद। अनुज ने पूछा।

  ‘’जब पशु सुबह चरने जाते हैं या शाम को थान पर लौटते हैं तो इन घंटियों की टन-टन पूरे गाँव में गूँजने लगती थी। आज इतने समय बाद घंटियों की आवाज कानों में पड़ी तो गाँव में बीता समय याद गया। वहाँ जन्म, बचचन के दिन, फिर बड़े होने के बाद भी काफी समय तक गाँव में रहा।

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  बाबा, हमें भी बताइए अपने बचपन के बारे में। उस समय कैसा था आपका गाँव, और आज कैसा है? क्या आपको कभी गाँव की याद आती है?” अनुज ने पूछा।

  याद आती है, बहुत याद आती है-.

  तो फिर आप वहाँ क्यों नहीं रहते। शहर में क्यों चले आए?” दयाल बोला।

  बाबा ने गंभीर स्वर में कहा—“यह तो लम्बी कहानी है। गाँव वाले शहर में क्यों चले आते हैं और फिर गाँव क्यों नहीं जाते-वे सब बातें।

  हम भी देखना चाहते हैं आपका गाँव।

  तभी अनुज और दयाल के पापा रमेश दफ्तर से गए। रात को खाते समय बाबा ने रमेश को बच्चों की इच्छा बताई तो बच्चों की मम्मी सुजाता बोली—“गाँव देखने का तो मेरा भी मन है।

  बस कार्यक्रम बन गया कि बच्चों की छुट्टियाँ गाँव में बिताई जायेंगी। गाँव में पुश्तैनी मकान था जो बंद पड़ा था। कभी-कभी साफ-सफाई करने के लिए बाबा वहाँ चले जाया करते थे। गाँव के लिए चलने से दो दिन पहले रमेश ने अपने दफ्तर के दो आदमियों को गाँव के मकान की सफाई करने भेज दिया। साथ ही कुछ जरूरी सामान भी था।

  कार से सब दोपहर में गाँव जा पहुँचे। गाँव में बाबा के आने की खबर पहले से ही थी। कार गाँव के मकान के सामने जाकर रूकी। दोनों बच्चे उत्सुक आँखों से इधर-उधर देखने लगे। गाँव के बहुत सारे बच्चे इकट्ठे हुए थे।

    गाँव का घर बहुत बड़ा था। लम्बा-चौड़ा आँगन जो कच्चा था। वहाँ थे कई पौधे जो सूखे हुए थे। बच्चे सूखे पौधेां को देखने लगे फिर तुरंत दौड़कर गए और आँगन में लगे हैंडपम्प से पानी लेकर सूखे पौधों पर डालने लगे।

  बाबा बोले—“मैं माली से यहाँ नए पौधे लगाने को कह दूँगा।

  वे फिर सूख जाएँगे। रमेश बोले-क्योंकि हम लोग तो यहाँ एक ही सप्ताह रुकने वाले हैं।

  पापा, ऐसा कुछ कीजिए कि पौधे सूखने पाएं। बच्चे बोले।

  सुनकर बाबा हँस पड़े। बोले—“गाँव के पौधों की देखरेख शहर में रहकर नहीं हो सकती, पर तुम लोग कह रहे हो, तो कोई उपाय सोचना पड़ेगा।

  गाँव के कई लोगों ने बैठने सोने के लिए चारपाइयाँ भेज दी थीं। खुले आँगन में सब उन्हीं पर बैठे थे। गाँव के लोग बाबा और रमेश से मिलने रहे थे।

  आखिर मेहमानों का आना बंद हुआ। अब सूरज ढल चला था-आँगन में मौजूद नीम के दो पेड़ों पर परिन्दे अपने घोंसलों में उतरने लगे थे।

  अनुज और दयाल उत्सुक भाव से दोनों पेड़ों की ओर देख रहे थे। उन्होंने कहाबाबा, चाहे आप शहर चले गए हैं पर पक्षी तो इन घोंसलो में रहते ही हैं।

  बाबा ने कहा—“हमें अँधेरा होने से पहले भोजन कर लेना चाहिए, फिर मच्छर जाएँगे।

  सब जमीन पर चटाई बिछाकर बैठ गएफिर मिलकर भोजन किया। रात घिर आई, आकाश में तारे छिटक गए। बच्चे बड़े सब खुले आकाश के नीचे चारपाइयों पर जा लेटे। अजय और दयाल अपलक तारों भरे आकाश की ओर ताकते रह गए। अनुज बोला—“इतने सारे तारे एक साथ मैंने इससे पहले कभी नहीं देखे।

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  अनुज और दयाल को कब नींद गई पता ही नहीं चला। सुबह एकाएक पंछियों की चूं-चिर्र से दोनेां भाइयों की नींद टूट गई। लगा जैसे सुबह-सुबह हर पंछी दूसरे से हालचाल पूछ रहा हो।

  कुछ देर बाद पूरा परिवार गाँव की सैर पर निकल पड़ा। छोटे छोटे कच्चे मकान, संकरी गलियां, जगह-जगह कूड़ा बिखरा हुआ। मक्खी-मच्छर की बहुतायत थी, पर बस्ती से बाहर खुली हवा में दृश्य  एकदम बदल गया। गाँव के कुएँ पर पानी भरा जा रहा था। पोखर में बत्तखों के जोडे तैर रहे थे।

   बाबा ने कहा—“बच्चो, तुमने देखागाँव में कमियाँ हैं तो उसकी अपनी विशेषताएँ भी हैं। गंदगी है पर खुली जमीन और हरियाली खूब है।

  शहर में तो खेलने के लिए पार्क बहुत कम हैं। अनुज बोला। पर वहाँ बिजली, साफ पानी और अच्छी सड़कें हैं। आने-जाने के साधन हैं।

   और रोजगार हैं। रमेश ने कहा, “पढ़-लिखकर लोग शहर की तरफ इसीलिए जाते हैं कि वहाँ रोजगार मिलता है।   

  पर आप तो गाँव को एकदम भूल ही गए। बताइए तो कितने वर्ष पहले आए थे यहाँ?” दयाल ने पूछा तो रमेश मुसकरा उठे। बोले—“बच्चो, तुमने ठीक कहा, हम शहर में जाकर इतने उलझ जाते हैं, चकाचौंध में इतने खो जाते हैं कि गाँव की याद ही नहीं आती।‘’

 घूमफिर कर वे गाँव के स्कूल के पास जा पहुँचे थे। स्कूल की इमारत कच्ची-पक्की थी और ऊपर छप्पर था। अंदर बच्चे टाट पट्टियों पर बैठे पढ़ रहे थे। अनुज ने देखा ब्लैकबोर्ड एकदम टूटा हुआ था।

  घर लौटकर उसने बाबा से कहा—“बाबा, आपने देखा गाँव का स्कूल।

  हाँ देखा, सुविधाएँ बहुत कम हैं। अध्यापक शहर में रहते हैं। वह रोज नहीं आते।

  अनुज ने कहा—“बाबा, मैं सोच रहा हूँ अपने इस मकान में तो कोई रहता नहीं।

   हाँ, फिर...

   और स्कूल की इमारत एकदम टूटी फूटी है। अगर स्कूल यहाँ आ जाए तो...

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  वाह! क्या बात कही है।और बाबा ने अनुज का कंधा थपथपा दिया।

   सुजाता ने भी इस बात का समर्थन किया तो बाबा ने कहा—“तब तो बात बन गई। मैं मुखियाजी से इस बारे में बात करता हूँ।

  तब तक मैं मास्टरजी को ड्राइवर के साथ शहर भेजकर ब्लैक बोर्ड तथा दूसरी जरूरी चीजें मंगवा देता हूँ। अगर स्कूल हमारे शहर जाने से पहले ही इस मकान में चलने लगे तो बहुत अच्छा रहेगा। कहकर रमेश बाहर चले गए।

  बाबा तुरंत मुखिया के पास चले गए। लौटे तो बहुत खुश थे। उन्होंने कहा—“बच्चो, तुम्हारी इच्छा पूरी हुई। मुखियाजी को यह प्रस्ताव बहुत पसंद आया है। कमरों की दीवारों में मरम्मत की जरूरत है। उसके लिए मैं कुछ दिन यहीं रुक जाऊँगा।‘’

  उसी शाम मास्टरजी शहर से ब्लैकबोर्ड दूसरी जरूरी चीजें लेकर लौट आए। वह भी स्कूल के लिए नई जगह पाकर खुश थे।

  आखिर शहर लौटने का दिन गया। मुखिया सहित कई गाँव वाले इन लोगों से मिलने आए। कार चलने लगी तो मुखिया ने बाबा से मजाक किया-आपने यह तो बताया नहीं कि स्कूल के लिए इस मकान का किराया कितना देना होगा?”

  बाबा हँसकर बोले—“पौधे सूखने पाएँ और परिन्दे आँगन के पेड़ो पर अपने घोंसलों में बेखटके आते-जाते रहें। यही किराया होगा।

  एक सम्मिलित ठहाका गूँज उठा। कार शहर की ओर चल दी। अनुज और दयाल मुड़-मुड़कर पीछे छूटते गाँव की ओर देख रहे थे, जो हरियाली में कहीं खो गया था। उन्होंने पूछा—“अब हम फिर कब आएँगे?”

  बहुत जल्दी। बाबा ने कह दिया।

  शहर और गाँव के बीच टूटा संबंध फिर से जुड़ गया था।(समाप्त )

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