दोपहर का भोजन ---देवेन्द्र कुमार—बाल कहानी
सर्दियों का मौसम था। धूप खिली थी-
हल्की हवा चल रही थी। रविवार का दिन था। लोग छुट्टी मनाने के मूड में बाहर निकले
थे। बाग की हरी घास पर कई परिवार आराम से भोजन का आनन्द ले रहे थे। बीच-बीच में
उनमें से कोई ऊपर मंडराते परिंदों को भी कुछ टुकड़े डाल देता था।
रामदास
सब देख रहा था। सोचता था- “मैं तो परिंदो से भी गया-बीता हूं, जो मुझे मांगने पर भीख भी नहीं
मिलती।‘ वह जब भी भोजन खाते लोगों की तरफ गया तो उसे दुरदुरा कर भगा दिया गया।
रामदास
जानता था कि भीख मांगना बुरी बात है, लेकिन वह कुछ काम कर भी नहीं सकता था। उसका पैर खराब था, और एक हाथ भी काम नहीं देता था। लोग
अक्सर कहते- “भीख मत मांगो, कुछ काम करो।” रामदास कुछ करने की कोशिश करता, पर फिर थक- हार कर भीख पर उतर आता।
उससे
कुछ दूर चिड़ियों का एक झुंड नीचे उतर आया था और घास पर पड़ी जूठन को चुग रहा था, जिसे लोग खा--पीकर वहां छोड़ गए थे।
रामदास ने जमीन पर पड़ा रोटी का टुकड़ा अपनी हथेली पर रख लिया और हथेली फैला दी जैसे
चिड़िया को निमंत्रण दे रहा हो। कुछ देर
बाद एक चिड़िया धीरे से हथेली पर आ उतरी और टुकड़ा चोंच में दबाकर उड़ गई।
यह
देख रामदास हंस पड़ा। धीरे से बुदबुदाया-“वाह,
यह
चिड़िया तो बहुत समझदार मालूम देती है।“ उसने एक टुकड़ा और उठाकर अपनी हथेली पर रखकर
हथेली फिर से आगे फैला दी। वह प्रतिमा जैसा स्थिर बैठा रहा, कुछ देर बाद एक चिड़िया हथेली पर आ उतरी
और रोटी का टुकड़ा लेकर उड़ गई।
तभी
रामदास ने एक बच्चे की आवाज सुनी- “मम्मी, देखो
इस आदमी को। यह तो चिड़िया से बात कर रहा है।”
बच्चे
की मां ने अब रामदास की तरफ ध्यान दिया। उसने भी चिड़िया को रामदास की हथेली से
रोटी का टुकड़ा उठा कर उड़ते देख लिया था। बच्चा रामदास के पास आकर बैठ गया। पूछने
लगा- “क्या तुम चिड़िया की बात समझते हो?”
1
“हां, और क्या। मैं चिड़ियों का, फूलों और पेड़ों का दोस्त हूँ। मैं चिड़ियों को पिंजरे में बंद नहीं
करता, फूल नहीं तोड़ता, पेड़ नहीं काटता इसलिए ये सब मेरे दोस्त
हैं।” रामदास को बच्चे के भोले प्रश्न में मजा आ रहा था। आज तक किसी ने उससे बात नहीं
की थी। सब निकट जाते ही उसे भगा दिया करते थे। यह पहली बार था
जब एक बच्चा उससे बात कर रहा था।
मां
ने बच्चे को इशारे से पास बुलाया, पर बच्चा गया नहीं। उसने कहा- “मां,
यह
फूलों से बात करता है।” फिर
रामदास से पूछने लगा- “तुम
चिड़ियों और फूलों से क्या बात करते हो?”
रामदास
बोला- “ये सब मुझे अपनी कहानी सुनाते हैं और
मैं उन्हें अपनी बात बताता हूँ।”
“क्या तुम मुझे फूलों की कहानी सुनाओगे?” बच्चे ने पूछा| और रामदास कहने लगा—“एक
फूल था और एक भी चिड़िया-” तब तक बच्चे की मां भी पास आ गई थी। वह सुन रही थी, रामदास फूल और चिड़िया की कहानी सुना
रहा था, जो उसने बचपन में मां से सुनी थी। मां
की याद आई तो आंखें गीली हो गईं। अपना
बचपन याद आ गया,
जो
बहुत पीछे चला गया था। बच्चे की मां लता को भी रामदास की कहानी अच्छी लग रही थी।
बच्चे का नाम था अरविंद। वह लता से रात को सोते समय अक्सर ही कहानी की फरमाइश करता था, पर लता को कहानी याद ही नहीं आती थी।
लता
ने एक बार रामदास के गंदे कपडों की ओर देखा फिर बोली-“क्या तुम कहानियां जानते हो?”
“हां, मैडम, मुझे
ढेरों कहानियां याद हैं।” रामदास ने कहा तो लता सुनने लगी। कहानी सचमुच रोचक थी। रामदास
चिड़ियों और फूलों की कहानियां सुनाता गया। वह भूल
गया कि उसने सुबह से कुछ नहीं खाया था।
तभी
डंडा खटखटाता एक सिपाही वहां चला आया। उसने डंडा दिखाते हुए रामदास से पूछा-“क्या इरादा है। चल भाग यहां से। मैडम
को परेशान क्यों कर रहा है। क्या बच्चे को उठाकर ले जायेगा।”
रामदास
सहमकर चुप हो गया। अरविंद ने कहा- “सिपाही जी, यह
हमें फूल और चिड़िया की कहानी सुना रहा था, पर आपके आते ही यह चुप हो गया।”
सिपाही
ने फिर डंडा हिलाया। रामदास से बोला-“क्या बच्चा सच कह रहा है?”
रामदास
की हिम्मत लौट आई क्योंकि मैडम और बच्चा उसके साथ थे। उसने कहा-“दीवनजी, मैं चोर नहीं हूं।”
2
“हां, हां,
तू
सेठ है, ऐसा सेठ जो भीख मांग कर पेट भरता है।” सिपाही ने खिल्ली उड़ाते हुए कहा।
रामदास को जीवन में शायद पहली बार लज्जा आई।
ठीक है वह भिखारी था, पर
ऐसा भिखारी जो कहानी सुना सकता था। और अभी तक बच्चे और उसकी मां से उसने
कुछ भी नहीं मांगा था। कैसी है यह दुनिया।
सिपाही
को भी बातों में मजा आ रहा था, वह वहीं बैठ गया- “अगर ऐसी बात है तो मैं भी सुनूंगा कहानी।” फिर लता की ओर देखकर बोला- “मैडम, मैंने तो हमेशा इसके साथ डंडे से बात की है! क्योंकि मेरे मना करने पर भी यह लोगों को भीख के लिए परेशान करता
रहता है। पर आप कह रही हैं कि यह चिड़िया और फूलों की कहानी सुना रहा है। सच बताऊँ,
घर पर मेरी भी एक बेटी है छोटी सी। वह भी मुझसे कहानी सुनने की जिद करती है। पर
मेरे दिमाग में हमेश डाकू-चोरों की बात घूमती है! वहां कहानी कैसे आ सकती है भला!”
सिपाही
ने ऐसे स्वर में कहा कि लता और अरविंद हंस पडे़। उन्हें हंसते देख रामदास भी हंसने
की हिम्मत कर बैठा। तभी सिपाही ने कहा-“हां,
तो
सुना अपनी चिड़िया और फूल की कहानी।”
“जी, कहानी तो आपका डंडा देखकर ही भाग गई। वह कह रही है -–मैं नहीं आती, कहीं दीवानजी मेरी पिटाई न कर दें।” रामदास ने कहा।
इस
पर सिपाही को भी हंसी आ गई। उसने कहा-- “क्या करूं डंडा मुझे साथ में रखना ही पड़ता है।” कहते हुए उसने डंडा अरविंद को थमा दिया, फिर बोला- “तुम्हें अगर डंडा चलाना पड़े तो क्या
करोगे।”
अरविंद
डंडा हिलाते हुए बोला- “अगर
कोई फूल तोडे़गा,
या
चिड़ियों को पिंजरे में बंद करेगा तो उसे आपके इसी डंडे से पीटूंगा।” एक बार फिर हंसी गूंज गई। इसी बीच
सिपाही को वहां बैठे देख और भी लोग आ खडे़ हुए।
लता
ने रामदास से कहा-“अब
तुम्हारी कहानी को सिपाही के डंडे से डरने की कोई जरुरत नहीं, वह आ सकती है यहां।”वह हंस रही थी|
रामदास
ने अधूरी कहानी सुनानी शुरु कर दी। अब तक वहां काफी लोग जमा हो गए थे। रामदास अब
बेझिझक कहानी कहता जा रहा था। सब तरफ सन्नाटा छाया था। रामदास को पता नहीं था
3
कि उसके चारों तरफ लोग आ जुटे हैं। बीच बीच में
सिपाही का डंडा हाथ में लेकर अरविन्द चारों ओर घूम जाता था। यह देख सब हंस पड़ते थे।
आखिर
लता ने हाथ घड़ी की ओर देखकर कहा-“अरे,
काफी
देर हो गई। अब बस...” कहकर वह अरविंद के साथ जाने लगी, फिर एकाएक रुककर उसने पर्स खोला और पचास का नोट निकालकर रामदास की ओर
बढ़ा दिया।
रामदास
ने एक बार ध्यान से पचास के नोट की ओर देखा, हाथ बढ़ाया, फिर
पीछे खींच लिया। कांपती आवाज में बोला-“आखिर आपने मुझे भिखारी ही समझा। यह मुझे नहीं चाहिए।” कहते कहते उसकी आंखों में आंसू आ गए।
लता
ने नोट वाला हाथ पीछे खींच लिया। वह समझ गई कि रामदास के मन पर चोट लगी है। बोली-“अरे नहीं, नहीं, यह तो बस ऐसे ही..........मुझे तुम्हारी कहानियां अच्छी लगीं।” फिर बोली-“चाहो तो कभी घर आकर अरविंद को कहानी
सुना सकते हो।” फिर उसने अपना नाम-पता बता दिया।
अरविंद
ने जाते समय सिपाही का डंडा उसे थमा दिया, सिपाही ने अरविंद के बाल सहला दिये। अरविंद ने कहा-“सिपाही भैया, अब इन्हें परेशान मत करना। यह भिखारी
नहीं हैं। चिड़ियों और फूलों के बहुत अच्छे दोस्त हैं। वे इन्हें कहानियां सुनाते
हैं फिर ये हमें सुनाते हैं।“
सिपाही
ने कहा-“बच्चे, तुम्हारे कहानी-दोस्त को कभी कुछ नहीं कहूंगा। और हां, अब मैं अपना डंडा उन पर चलाऊंगा जो फूलों
को तोड़ते हैं, पेड़ काटते हैं। चिंता मत करो। जब यहां
आओ तो मुझसे मिलना मत भूलना।”
लता
और अरविंद चले गए, भीड़ बिखर गई| लेकिन रामदास और सिपाही अब भी अपनी अपनी जगह बैठे
थे। सिपाही ने रामदास के कंधे पर एक हाथ रखकर कहा- “मुझे पता है आज तुम्हें कुछ नहीं मिला है। मैडम के पचास रुपये भी तुमने
लौटा दिए। आओ हम खाना खा लें। मेरे पास भोजन है, मुझे भूख भी लग रही है।”
रामदास
अचरज से सिपाही की ओर देख रहा था। उसे न अपने कानों पर विश्वास हो रहा था, न आंखों पर! जो कुछ देख रहा था, क्या वह सच था?
सिपाही
ने अपने खाने का डिब्बा खोला और रोटी पर सब्जी रखकर रामदास को दे दी।
4
रामदास
अब भी कुछ सहमा-सहमा था। सिपाही ने हंसकर कहा-“अब तुम भिखारी नहीं, फूलों और परिंदों के दोस्त हो जो तुम्हें कहानियां सुनाते हैं। खा
लो। नई कहानी बनाने में मदद मिलेगी।”
“मैं कभी भीख नहीं मागूंगा।“ रामदास बड़बड़ाया।
“हां, भीख मत मांगना। हाथ-पैर खराब हैं तो क्या हुआ। तुम्हें तो अद्भुत
कहानियां आती हैं। उन्हें ही सुनाया करो। मैं तो इस इलाके में रोज ही आता हूँ।
दोपहर का भोजन तुम मेरे साथ कर सकते हो।”
रामदास
हंस पड़ा। एक बार फूलों की क्यारियों की तरफ देखा, जहां फूल धीमी हवा में सिर हिला रहे थे। फिर आकाश में नजर गई। परिंदों
के झुंड कां कां करते उड़े जा रहे थे। वह मुस्कराया। यह तो कमाल ही हो गया था, फूलों और चिड़ियों को देखते-देखते उसे कहानियां
सूझने लगी थीं|
सचमुच
रामदास भिखारी नहीं था। ( समाप्त )
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