Sunday 1 March 2015

बाल कहानी : डॉक्टर रिक्शा

                                                                     

डॉक्टर रिक्शा

विजनपुर एक छोटा-सा कस्बा था। संकरी और टूटी-फूटीसड़कें, जगह-जगह गंदगी और कूड़े के ढेर। एक छोटा-सा बस-स्टैंड, जहां गढ्डों में पानी भरा रहता था। उनमें मक्खी-मच्छर भनभनाते रहते थे, फिर भी लोग दूर-दूर के गावें से बिजनपुर पहुंचा करते थे। बिजनपुर मशहूर था डॉक्टर राय के लिए। डॉक्टर राय के लोग देवता मानते थे। उनके दवाखाने पर हमेशा ही भीड़ लगी रहती थी।
डॉक्टर राय गरीब मरीजों का मुफ्त इलाज करते थे। साथ ही दवा के पैसे भी नहीं लेते थे। उनकी कोशिश होती थी कि बीमार जल्दी से जल्दी ठीक हो जाए। जो भी आता उससे हंसकर बातें करते, उसे तसल्ली देते। मरीज कहते थे, ‘‘आधी बीमारी तो डॉक्टर राय की मुस्कान से ही दूर जाती है।
कभी-कभी कोई रोगी रात को उनके घर पहुंचता। डॉक्टर साहब ने घर में कह रखा था, ‘अगर रात में कोई बीमार आदमी आए तो मुझे तुरंत खबर दो।एक रात उनके घर पर थोड़ी-थोड़ी देर बाद आठ मरीज पहुंचे। सबको अलग-अलग तकलीफ थी। उस रात डॉक्टर राय बिलकुल भी सो नहीं सके। पर रोज की तरह अगली सुबह आठ बजे ही दवाखाने पर आ पहुंचे।
डॉक्टर राय की पत्नी ने कहा, ‘‘इतनी मेहनत करने पर कहीं आप बीमार न हो जाएं।’’
उनकी मां बोलीं, ‘‘मरीजों के साथ-साथ अपनी सेहत का भी ध्यान रखना चाहिए।’’
डॉक्टर राय हंसकर बोले, ‘‘बीमारियां मुझसे डरती हैं। मुझे देखते ही भाग जाती हैं। फिर भला मैं बीमार कैसे हो सकता हूं।’’
एक रात की बात, खूब तेज बरसात हो रही थी। सारे में पानी भरा था। उसी समय बस से दो आदमी उतरे। उनमें से एक जोर-जोर से कराह रहा था। लगता था, उसकी तबीयत काफी खराब थी। साथ वाले आदमी ने उसे सहारा देकर एक शेड में बैठा दिया। फिर वह डॉक्टर राय के घर जाने के लिए कोई रिक्शा ढूंढ़ने लगा। उनका दवाखाना बस-स्टैंड से दूर पड़ता था। उस खराब मौसम में कोई रिक्शा वाला चलने को तैयार न हुआ। हरेक ने कहा, ‘‘भीगकर हम भी बीमार पड़ सकते हैं।
मरीज की तबीयत खराब होती जा रही थी, पर डॉक्टर साहब के पास जाने का कोई उपाय नहीं था। रामदास रिक्शा वाला शेड के नीचे सो रहा था। आवाजें सुनकर वह उठ बैठा। उसने सारी बात सुनी तो झट से उन लोगों के पास जा पहुंचा। उसने कहा, ‘‘आइए, मैं ले चलता हूं आपको। देर करने पर बीमार की तबीयत और भी बिगड़ सकती है।’’ यह कहकर रामदास ने रिक्शा के आगे तिरपाल बांध दी, फिर उन्हें लेकर डॉक्टर साहब के घर जा पहुंचा।
खबर मिलते ही डॉक्टर साहब ने मरीज को अंदर बुलवा लिया। उसकी जांच करके दवा दे दी। पानी तब भी तेजी से बरस रहा था। रामदास रिक्शा वाले ने डॉक्टर साहब को बताया कि मरीज कहीं बाहर से बिजनपुर आया है। डॉक्टर राय मरीज के साथी से बोले, ‘‘इन्हें बारिश से बचाना होगा। इसलिए आप लोग बारिश बंद होने तक इसी कमरे में रुक जाइए।’’
रामदास उन लोगों को वहीं छोड़कर लौट आया। वह सोच रहा था, ‘डॉक्टर साहब कितने भले हैं। मैं बीमार को ले आया तो अच्छा ही रहा।उस दिन के बाद से रामदास ने यह निश्चय कर लिया कि वह किसी बीमार सवारी को ले जाने से कभी मना नहीं करेगा।
बस, तब से रामदास अक्सर ही बस-स्टैंड पर मौजूद रहता। अगर कोई रोगी डॉक्टर राय के दवाखाने का पता पूछता तो वह झट कहता, ‘‘आइए, बैठिए, मैं ले चलता हूं।’’ चाहे वह किसी और सवारी को मना कर देता, पर डॉक्टर साहब के दवाखाने या घर जाने के लिए कभी मना न करता।
दूसरे रिक्शा वाले उससे कहते, ‘‘अब तो तू डॉक्टर साहब का कम्पाउंडर बन गया।’’ रामदास हंसकर जवाब देता, ‘‘कम्पाउंडर नहीं, मैं तो रिक्शा डॉक्टर हूं।’’ फिर तो सब रामदास को इसी नाम से पुकारने लगे। जब भी कोई मरीज डॉक्टर साहब के दवाखाने पर चलने को कहता ते दूसरे रिक्शा वाले झट से बोल उठते, ‘‘आपको रिक्शा डॉक्टर ले जाएगा वहां।’’
पता नहीं किसने उसकी रिक्शा के पीछे बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दिया, ‘रिक्शा डॉक्टर।पूछने पर वह कहता, ‘‘अब तो मैं पक्का डॉक्टर हो गया हूं।’’ कई बार डॉक्टर राय ने भी रामदास के बारे में यह सुना तो हंस दिए। कई बार रामदास अपनी रिक्शा में किसी मरीज को लेकर उनके पास आता तो वह मुस्कराकर कहते, ‘‘आओ जी, रिक्शा डॉक्टर!’’ आस-पास बैठे लोग हंस पड़ते और रामदास शरमाकर सिर झुका लेता।
एक बार बिजनपुर में बुखार का प्रकोप हुआ। बहुत लोग बीमार पड़े। डॉक्टर राय बहुत व्यस्त हो गए। सुबह से रात तक वह रोगियों के देखते और दवा देते रहते। उनके होंठों पर हमेशा की तरह हंसी रहती थी। उनके मुंह से कभी नहीं सुनाई पड़ा कि वह थक गए हैं। लगता था जैसे उनमें चार लोगों की ताकत भर गई थी। रामदास भी मरीजों को लाने और ले जाने में लगा रहता। एक बार तो वह पूरी रात रिक्शा चलाता रहा। कहता रहा, ‘‘अगर डॉक्टर साहब नहीं थकते तो मैं भी कैसे थक सकता हूं।’’
पर एक दिन रामदास को बुखार ने पकड़ ही लिया। बदन में दर्द और तेज बुखार। वह झोंपड़ी में अकेला रहता था। उसका परिवार गांव में रहता था। रामदास कभी-कभी गांव जाया करता था। सारा दिन वह झोंपड़ी में लेटा रहा। खाना नहीं खाया। वह सोचता था जैसे बुखार आया है चला जाएगा। पर बुखार बढ़ता गया। उसके पड़ोसियों ने कहा, ‘अरे भाई, डॉक्टर के पास जाकर दवा ले लो।
रामदास ने जवाब दिया, ‘‘पता है आजकल उन्हें कितने मरीज देखने पड़ते हैं। उनके पास तो खाने-सोने का भी समय नहीं है। ऐसे में मैं उन्हें क्यों परेशान करूं।’’
एक दिन बीता, दूसरे दिन उसकी तबीयत और भी बिगड़ गई। दिन तो जैसे-तैसे बीत गया, पर रात के तकलीफ ज्यादा थी। वह जमीन पर पड़ा चीख रहा था। उसके पड़ोसी आकर चाय-दूध दे गए। सारी बस्ती सो गई, रामदास अकेला ही था। उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था।
एकाएक किसी ने झोंपड़ी का दरवाजा खोला। देखा तो सामने डॉक्टर राय खड़े थे। रामदास हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसके मंुह से निकला, ‘‘अरे डॉक्टर साहब, आप! आपने क्यों तकलीफ की। आपको कैसे पता लगा?
डाक्टर राय अंदर आ गए। उन्होंने कहा, ‘‘रिक्शा डॉक्टर, पहले लेट जाओ, मुझे देखने दो। अभी कुछ मत कहो।’’ उनके होंठों पर हंसी थी। उन्होंने रामदास की अच्छी तरह जांच की। फिर उसे इन्जेक्शन लगाया। उनके साथ कम्पाउंडर भी था। उन्होंने रामदास से कहा, ‘‘आओ मेरे घर चलो। वहां तुम्हारी ठीक से देखभाल कर सकूंगा। यहां कौन देखेगा तुम्हें!’’
‘‘मैं आपके घर...’’ रामदास इतना ही कह सका, ‘‘आपको कैसे पता चला?’’
डॉक्टर राय ने कहा, ‘‘जैसे तुम मरीजों के लेकर मेरे पास आते हो वैसे ही मैं भी आया हूं। ऐसा कैसे हो सकता है कि मुझे तुम्हारी खबर न हो। कई लोगों ने मुझे तुम्हारे बुखार के बारे में बताया था।’’
‘‘मैं यहीं ठीक हूं।’’ रामदास ने संकोच से कहा।
‘‘नहीं, रिक्शा डॉक्टर, तुम्हें मेरे साथ चलना ही है। तुम बीमार रहोगे तो मरीजों को कौन लाएगा मेरे पास।डॉक्टर साहब ने कहा और रामदास को सहारा देकर बाहर ले आए।
रामदास की आंखों में आंसू थे। उसके कानों में शब्द गूंज रहे थे, ‘‘आओ रिक्शा डॉक्टर।’’
2010

  

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