रामदास और पूरी बाबा
के बीच बच्चे आ खड़े हुए थे –जूठन के बीच लड़ झगड़ कर अपनी भूख मिटाने की कोशिश करते
हुए. और फिर बन गया एक पुल ...
आज रविवार है और धनराज हलवाई को एकदम फुरसत
नहीं है। पहला कारण है रविवार को ज्यादातर घरों में नाश्ता धनराज की दुकान से आता
है। और दूसरा उससे भी बड़ा कारण है हर रविवार को मोहल्ला समिति द्वारा लंगर का
आयोजन। लंगर में परोसी जाने वाली पूरी-सब्जी और हलवा धनराज की दुकान पर ही तैयार
होता है। लंगर में आसपास के रिक्शावाले, कामगार तथा और भी बहुत से लोग आ जुटते
हैं। इसलिए रविवार के दिन धनराज की दुकान के आसपास भीड़ जमा हो जाती है।
लंगर या मुफ्त भोजन सुबह दस बजे से बारह बजे तक
चलता है , उसके बाद एकदम सन्नाटा छा जाता है। दूर-दूर तक जूठन तथा प्लास्टिक की
गंदी प्लेटें बिखर जाती हैं। देखने में बुरा लगता है, पर कोई उपाय
नहीं, क्योंकि सफाई करनेवाला शाम को ही आता है । बिखरी जूठन और गंदी
प्लेटों के ढेर पर कुत्ते मुंह मारते हैं। कई बच्चे उनमें से अपने खाने का सामान जुटा
लेते हैं-अधखाई पूरियां।
रामदास बाबू पास ही रहते हैं। उन्हें हर रविवार
को होनेवाली लंगर के बाद की गंदगी बुरी लगती है। उन्होंने कई बार धनराज से शिकायत
की है। गन्दी प्लेटों से जूठन चुगते
बच्चों को भी डांटकर भगाया है, लेकिन सब कुछ वैसे ही चल रहा है।
पिछले रविवार को रामदास बाबू गली से निकले तो
देखा कई बच्चे जूठन बीनकर खा रहे हैं और आपस में लड़ रहे हैं। ये बच्चे उन
कामगारों के हैं जो सुबह काम पर निकल जाते हैं। एक छोटी बच्ची आपस में लड़ते
बच्चों से दूर खड़ी रो रही थी। रामदास बाबू झुककर उसके पास बैठ गए। पूछा,
‘‘बेटी,
रो
क्यों रही हो?’’
बच्ची ने सुबकते हुए कहा, ‘‘उसने
मेरी पूरी छीन ली। मुझे भूख लगी है।’’ वह बच्चों के झुंड की तरफ इशारा कर रही
थी। वहां जूठन के लिए अभी भी छीना-झपटी चल रही थी। पता नहीं वह बच्ची किसकी शिकायत
कर रही थी। रामदास बाबू बच्ची का हाथ पकड़कर धनराज हलवाई की दुकान पर ले गए। उससे
कहा, ‘‘इस बच्ची को कुछ खाने के लिए दो।’’ धनराज ने एक
पत्ते पर दो पूरियां और हलवा रखकर बच्ची को दे दिया। वह वहीं बैठकर खाने लगी। तभी एक
बच्चा दौड़ता हुआ आया और लड़की के हाथ से पूरियां छीनकर भाग गया। बच्ची ने फिर से
रोना शुरू कर दिया।
रामदास बाबू ने जूठन पर लड़ते बच्चों के झुंड
की तरफ देखा, पर उस बच्चे का पता न चला जो पूरियां छीनकर भाग
गया था। उन्होंने धनराज की तरफ देखा तो उसने बच्ची को फिर से दो पूरियां दे दीं।
इस बार रामदास बाबू उसके पास सावधान खड़े रहे ताकि कोई दोबारा उसकी पूरियां न छीन सके।
तभी धनराज हलवाई ने कहा, ‘‘बाबूजी,
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यह तो हर रविवार का तमाशा है। भीड़ में बच्चों
की कोई नहीं सुनता इसलिए ये बेचारे जूठन बीनकर ही संतोष कर लेते हैं। बच्चों की
छोडि़ए, यहां तो बड़े लोग भी मारपीट, धक्का-मुक्की करते हैं, मुफ्त
की दावत के लिए।’’
रामदास ने धनराज की बात का जवाब न दिया। उनकी
आंखें अब भी जूठी प्लेटों में अपने लिए जूठन बीनते बच्चों की ओर लगी थीं। वह बढ़कर
बच्चों के झुंड के पास जा खड़े हुए। बोले, ‘‘पूरी हलवा खाओगे?’’
उनकी
बात सुनकर झुंड से आवाज आई, ‘‘पूरी हलवा-पूरी हलवा।’’
‘‘तो चलो हलवाई की दुकान पर, लेकिन
पहले जूठन फेंक दो।’’ रामदास बाबू ने कहा। बच्चे दौड़कर हलवाई की
दुकान पर जा खड़े हुए, वे चिल्ला रहे थे-‘‘पूरी
हलवा-पूरी हलवा।’’’ रामदास बाबू ने धनराज से कहा,‘‘इन
बच्चों के लिए गरम पूरियां बना दो।’’
धनराज पूरी बनाने लगा। रामदास बाबू ने कहा,
‘‘बच्चों,
जरा
देखो तो सब तरफ कितनी गंदगी फैली है। पहले हम सफाई करेंगे, फिर पूरी हलवा
खाएंगे।’’ रामदास बाबू ने धनराज से दो बड़े काले बैग ले लिए और फिर जूठी
प्लेटें उनमें डालने लगे। इस काम में बच्चों ने भी हाथ बंटाया। थोड़ी ही देर में
दूर-दूर तक फैली गंदी प्लेटें और जूठन उन थैलों में समा गई। अब वहां गंदगी नहीं
थी।
‘‘पूरी हलवा, पूरी हलवा।’’
बच्चों
का झुंड चिल्लाया।
रामदास बाबू ने कहा-‘‘क्या गंदे हाथों
से पूरी-हलवा खाओगे। पहले हाथ साफ करो।’’ उन्होंने कहा तो दुकान का नौकर आकर
बच्चों के हाथ धुलाने लगा। फिर उसने अपना अंगोछा आगे बढ़ा दिया। बच्चे धुले हाथ
पोंछने लगे।
तब तक गरम पूरियां तैयार हो गई थीं। उन्होंने
धनराज से कहा तो उसने नौकर से दरी मंगवा दी। दुकान के पास दरी बिछ गई। अब गरम पूरी
और हलवे की बारी थी। बच्चे बैठकर चुपचाप भोजन कर रहे थे। आते-जाते लोग हैरानी से
देख रहे थे। रामदास बाबू घूम-घूम बच्चों से पूछ रहे थे और धनराज का नौकर परोसता जा
रहा था।
बच्चों की दावत खत्म हुई। अब वे एक तरफ खड़े
रामदास बाबू की ओर देख रहे थे।
रामदास बाबू ने कहा, ‘‘बच्चों, जाने
से पहले अपनी जूठन तो साफ करो।’’ बच्चों ने अपनी-अपनी जूठी प्लेट उठाई
और काले बड़े बैग में डाल दी। इसके बाद दुकान के नौकर ने बच्चों के हाथ धुला दिए।
तभी एक बच्चे ने कहा, ‘‘अब पूरी कब
मिलेगी?’’
रामदास बाबू हंस पड़े। उन्होंने कहा, ‘‘अगली
दावत अगले रविवार को मिलेगी। लेकिन एक शर्त है, तुम सब जूठी
प्लेटों से खाना नहीं लोगे।’’
‘‘नहीं लेंगे। हम गरम पूरी खाएंगे।’’ बच्चों
ने एक स्वर में कहा। वे हंस रहे थे। धीरे-धीरे बच्चे इधर-उधर बिखर गए। अब वहां न
जूठी प्लेटें थीं, न जूठन चुगते हुए बच्चे। कहीं गंदगी नहीं थी।
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रामदास बाबू ने धनराज को पैसे दिए तो उसने कहा,
‘‘बाबूजी,
यह
आपने क्या मुसीबत मोल ले ली। अब हर रविवार को ये बच्चे आपको परेशान करेंगे।’’
रामदास
बाबू ने कहा, ‘‘जब मोहल्ला समिति बड़ों के लिए लंगर लगाती है
तो बच्चों की दावत क्यों नहीं। वे जूठी प्लेटों से जूठन क्यों बटोरें। और हां,
तुम
यहां एक बड़ा डस्टबिन रखवा दो। ग्राहक से कहो कि जूठे दोने डस्टबिन में डाला करें।
मैं मोहल्ला समिति से बात करूंगा कि वे केवल भोजन का ही प्रबंध न करें, बाद
में सफाई भी करवाएं। अगर यहां जूठन न बिखरी होती तो बच्चे जूठी प्लेटों में कभी
खाना न ढूंढ़ते!’’
अगला रविवार आया। सब कुछ पहले की तरह हुआ।
लेकिन उस दिन वहां जूठी प्लेटें नहीं बिखरी थीं। बड़ों का लंगर खत्म होने के बाद
रामदास बाबू ने बच्चों की दावत का आयेाजन किया। खाना खत्म होने के बाद उन्होंने
बच्चों से पूछा, ‘‘दावत तो हो गई, अब क्या करोगे?’’
‘‘हम तो खेलेंगे।’’
‘‘ठीक है तो आज मैं भी खेलूंगा तुम सबके साथ।’’
रामदास
बाबू बच्चों के झुंड को बाग में ले गए। वहां बच्चों का झुंड उन्हें घेर कर बैठ
गया। वे बच्चों को कहानी सुनाने लगे। उन्हें बहुत सी कहानियां याद थीं। लेकिन
सुनाने के लिए इतने सारे बच्चे तो पहली बार मिले थे। बच्चे कहानी में रम गए थे।
रामदास बाबू कुछ और भी सोच रहे थे-जैसे क्या इन
बच्चों के लिए पढ़ाई का प्रबंध किया जा सकता है? उनके दिमाग में
कई योजनाएं घूम रही थीं। हर योजना के बीच बच्चे मौजूद थे-जिन्हें वह अब कभी जूठन
में अपने लिए भोजन नहीं ढूंढ़ने देंगे। ( समाप्त )