Monday, 30 September 2019

आओ नाश्ता करें--कहानी--देवेन्द्र कुमार


 -आओ नाश्ता करें—कहानी—देवेन्द्र कुमार  

 रविवार की सुबह नाश्ते की मेज पर पकवानों और खिल खिल की सुगंध के साथ उतरती थी, लेकिन बाबा उस दावत में शामिल नहीं होते थे।वह अपना नाश्ता छत पर परिंदों के साथ करते थे।आखिर क्यों? ==================================         
     मेरा नाश्ता ऊपर भेज देना।’—कह कर अमित के बाबा छत की ओर जाने वाली सीढियां चढ़ने लगे। अमित के बाबा यानि शामलाल जी। अमित की मम्मी अल्पना नाश्ते की प्लेट लगा रही थी। उन्होंने कहा—‘बाबूजी, छत पर क्यों,अपने कमरे में आराम से बैठ कर...लेकिन बात पूरी न हुई, शामलाल जी तब तक छत पर जा चुके थे। अल्पना ने अमित के पापा की ओर देखा तो उन्होंने कंधे उचका दिए यानि जैसी बाबूजी की मर्जी।
    रसोई की हवा में मिठास तैर रहा है। हलवा बन रहा है। फिर कटलेट की बारी है। रविवार की सुबह का नाश्ता विशेष होता है। तब पूरा परिवार एक साथ नाश्ते का आनंद लेता है। वर्ना हर सुबह भागमभाग और हड़बड़ी में गुज़रती है। पहले अमित स्कूल जाता है फिर उसके पापा विनय निकलते हैं। इसके बाद अल्पना जल्दी-जल्दी काम निपटा कर आफिस चली जाती है, यह सोच विचार करती हुई कि क्या काम अधूरा छूट गया है। इन तीनों के जाने के बाद अमित के बाबा घर में अकेले रह जाते हैं। दोपहर में अमित के स्कूल से लौटने के बाद दोनों साथ साथ भोजन करते हैं, अब शामलाल जी आराम करते हैं। क्योंकि इससे पहले काम वाली बाई आती है,उसका ध्यान रखना होता है, ऐसे में  आँख मूँद कर आराम से तो लेटा नहीं जा सकता।
    शाम चार बजे बाबा को दवाई देकर अमित ट्यूशन पर चला जाता है। अमित के पापा के लौटने के काफी देर बाद अल्पना आती है, और कुछ देर आराम के बाद शाम के भोजन की तैयारी में जुट जाती है। घर और दफ्तर की छह दिनों की भागदौड़ की थकान इतवार की सुबह नाश्ते की मेज पर स्वादिष्ट पकवानों का मज़ा लेते हुए उतरती है। कभी कभी कोई दोस्त या रिश्तेदार् भी आ जाता है तो नाश्ते का मज़ा कई गुना बढ़ जाता है। घर में खिलखिल की लहरें उठने लगती हैं।लेकिन शामलाल जी को नाश्ते में शामिल ही नहीं किया जाता।      इसलिए रविवार के नाश्ते के साथ घुलीमिली हंसी उन्हें एकदम अच्छी नहीं लगती। आखिर ऐसा क्यों होता है उनके साथ?
   अमित के पापा विनय से पूछो तो वह जो कुछ कहेंगे उसका मतलब इतना ही है कि उनके पिता शामलाल जी को कई रोगों ने घेर रखा है। इसलिए दवाओं के साथ परहेज का भोजन दिया जाता है। पर वह स्वादिष्ट चटपटे खान-पान के शौकीन हैं इसलिए ध्यान रखना पड़ता है। लेकिन उनके पिता शामलाल इस बात को नहीं मानते। इसलिए रविवार का नाश्ता वह छत पर करते हैं -- तरह तरह के स्वादिष्ट पकवानों से दूर। नाश्ते की मेज़ से उठने वाली खिलखिल उनके मन को गुस्से से भर देती है। यदि कोई उनसे पूछे तो वह कहेंगे अगर रविवार को मैं सबके साथ नाश्ता कर लूँगा तो कोई आफत नहीं आ
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 जाएगी। हाँ मैं हमेशा से स्वादिष्ट और चटपटा खाने का शौकीन हूँ । लेकिन मुझे उससे दूर रखने  के लिए मेरे साथ ऐसा व्यवहार मुझे पसंद नहीं।

    अमित नाश्ते की प्लेट लेकर छत पर गया तो शामलाल जी मुंडेर के पास खड़े थे। अमित ने  प्लेट मेज़ पर रख दी। छत पर एक गोल टेबल और दो कुर्सियां रखी हैं। सर्दियों के मौसम में रविवार की दोपहर सब लोग छत पर धूप का आनंद लेते हैं। फिर वह बाबा के पास जा खड़ा हुआ। अमित ने देखा कि बाबा मिटटी के बड़े प्याले में छत पर लगे नल से पानी भर रहे हैं। मुंडेर पर कई तरह की  बड़ी -छोटी कटोरियाँ रखी हैं। बड़ी कटोरियों में परिंदों के लिए पानी और छोटी कटोरियों में दाने हैं। मुंडेर से लगा कर पौधों के गमले रखे गए हैं। हवा में पत्तियां हिलडुल रही थीं। सर्दियों की धूप अभी नीचे नहीं     उतरी थी। हवा में परिदों के पंखों की फड़ फड़ और चूं चिर्र गूँज रही थी।
    बाबा, नाश्ता।।’—अमित ने कहा तो बाबा ने नाश्ते की प्लेट की ओर देखा-- दो बिना मक्खन के टोस्ट,दो बिस्किट, एक कप दूध और एक छोटी कटोरी में दवा की गोलियां। हाँ यही हर दिन का नाश्ता है। रविवार को भी इसमें कोई बदलाव नहीं होता। उन्होंने गंभीर स्वर में कहा—‘ हाँ देख रहा हूँमुझे नाश्ता करना ही है। मैं परिंदों की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। हम साथ साथ नाश्ता करेंगे।
     ‘परिदों के साथ नाश्ता!’—अमित ने अचरज से कहा।
    हाँ यह सही है कि परिंदे और हम एक दूसरे की बोली नहीं बोल सकते लेकिन एक दूसरे के भाव जरूर समझ सकते हैं। पशु- पक्षी जगत के प्राणी कब खुश या नाराज या डरे हुए होते हैं इसे समझा जा सकता है। क्या तुमने डाक्टर डू लिटिल के बारे में सुना है?’
अमित ने इनकार में सिर हिला दिया।
    वह एक ऐसे डाक्टर थे जिनके घर में अनेक पालतू पशु पक्षी रहते थे। इसलिए रोगी उनके पास आने से डरते थे। आखिर इसी के चलते उनका दवाखाना बंद हो गया। तब किसी ने उन्हें जानवरों का डाक्टर बनने की सलाह दी। एक तोते ने उन्हें जानवरों की बोलियाँ सिखाई और वह जानवरों के अनोखे डाक्टर बन गए। जानवरों का इलाज करने के लिए डू लिटिल ने दूर दूर की यात्राएँ की।
      बाबा, यह तो कहानी है।’—अमित ने कहा।
       ‘हर कहानी में कुछ सच्चाई भी होती है।’—कह कर बाबा हंसने लगे। बोले—‘ अनेक लोग घरों में पशु पक्षी पालते है, वे उनके भाव अच्छी तरह समझते हैं।’  
      ‘’हाँ।यह तो ठीक कहा आपने।’—अमित बोला।
      ‘तो बस हमारी छत पर उतरने वाले परिदों के बारे में भी यही सच है।
     ‘पर छत पर आने वाले परिंदों के साथ कैसे नाश्ता करेंगे आप?’—अमित ने पूछा।
      जब परिंदे दाना चुगेंगे तो भी टोस्ट खा लूँगा।’—बाबा बोले।
     अमित देखता रहा पर  कोई चिड़िया या कबूतर नीचे नहीं उतरा। उसने कहा —‘अगर कोई पक्षी नहीं उतरा तब आप क्या करेंगे?’
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        ‘ तब तो मुझे नाश्ता अकेले ही करना होगा। खैर इसे छोड़ो, यह बताओ आज रसोई में क्या बन रहा है?’
      ‘माँ ने हलवा और कटलेट बनाए हैं। मेरी मौसी भी आ रही हैं मालपुए और समोसे लेकर।
       ‘ वाह, तब तो बढ़िया दावत होगी। जिस गली में मेरा जन्म हुआ था वहां के हलवाई बहुत अच्छे मालपुए बनाते थे। दूर दूर से लोग  लेने आते थे। उनका स्वाद मुझे आज भी याद है।बाबा बोले। यह कहते हुए उनकी आँखें बंद थीं जैसे अपने बचपन की गलियों में पहुँच गए हों।
     अभी तक छत पर कोई  परिदा नहीं उतरा था। अमित ने धीरे से कहा—‘ बाबा,नाश्ता।
     शामलाल जी ने कहा—‘ मुझे लगता है एक ही तरह के दाने चुग कर बेचारे बोर हो गए हैं। इतवार को तो उनके भोजन में कुछ बदलाव होना ही चाहिए। क्या कहते हो ?’
      ’बात तो आपकी ठीक है, लेकिन... अमित ने कहना चाहा।
      ‘’अगर मेरी बात ठीक मानते हो तो कुछ करो परिंदों का जायका अच्छा करने के लिए।’  
       अमित कुछ सोच रहा था, फिर तेजी से नीचे उतर गया  तब तक सब नाश्ता कर चुके थे और मेज से उठ कर कमरे में जा बैठे थे। अमित रसोई में गया। उसने मालपुए, समोसे और कटलेट एक प्लेट में रखे और छत पर जा पहुंचा। देख कर बाबा हंसने लगे। उन्होंने कहा—‘अमित, तुम इनके टुकड़े करो, हम इन्हें कटोरियों में रख कर परिंदों के आने की प्रतीक्षा करेंगे।अमित और बाबा ने मिल कर मालपुए,कटलेट और समोसे के टुकड़ों को मुंडेर पर रखी छोटी छोटी कटोरियों में रख दिया। अब बाबा मुंडेर के पास खड़े होकर दोनों हाथ हिलाते हुए बार बार ‘आओ आओ नाश्ता करोकहने लगे। अमित ने भी बाबा का अनुसरण किया। लेकिन देर तक भी कोई परिंदा नहीं आया। एकाएक बाबा ने कहा—‘अब समझ में आया कि बात क्या है।
        ‘क्या?’
        ’जब तक हम मुंडेर के पास खड़े रहेंगे तब तक परिदे नीचे नहीं उतरेंगे।
        तब हम क्या करें?’—अमित ने पूछा।
       ‘हमें पीछे या नीचे चले जाना चाहिए।’—बाबा ने कहा।
       बात अमित की समझ में आ गई। बाबा ने कहा—‘तुम नीचे चलो मैं भी नाश्ता करके आता हूँ।’’
अमित सीढियों से उतरने लगा। पर फिर ऊपर चला आया। उसने देखा बाबा मुंडेर के पास खड़े हुए थे, मुंडेर पर कोई परिंदा नहीं था, पर बाबा नाश्ता कर रहे थे। अमित का मन हुआ कि बाबा से कुछ पूछे लेकिन फिर रुक गया। उसे बाबा का नाश्ता करना अच्छा लग रहा था। कम से कम रविवार को तो बाबा चिड़ियों के साथ नाश्ता कर ही सकते थे। उसने तै कर लिया था कि वह इस बारे में किसी से कुछ नहीं कहेगा,बाबा से भी नहीं----(समाप्त)  

Saturday, 28 September 2019

स्कूल चलो- कहानी-देवेन्द्र कुमार


कहानीस्कूल चलो---देवेन्द्र कुमार


     आखिरी बच्चा भी रिक्शा से उतरकर चला गया। भरतू की ड्यूटी खत्म हो गई थी लेकिन अभी पूरी तरह नहीं। साईकिल रिक्शा की सीट से उतरकर उसने पीछे झांका तो अन्दर एक किताब पड़ी दिखाई दी। अंदर का मतलब रिक्शा के पीछे एक केबिन जुड़ा हुआ है। उसमें छोटे बच्चे बैठते हैं।  
भरतू ने बड़बड़ाते हुए किताब उठा ली और उलट पलटकर देखने लगा। हर रोज ऐसा ही होता है। कोई न कोई बच्चा कुछ न कुछ भूल जाता है। वह जब भी किसी किताब को हाथ में उठाता है तो मन में एक चिढ़ होती है अपने लिए। आखिर वह अनपढ़ क्यों रह गया। पढ़ लिख जाता तो आज रिक्शा खींचने की जगह कोई ढंग का काम करता लेकिन....
     रिक्शा को ढाबे के बाहर खड़ा करके भरतू खाना खाने बैठ गया। किताब अब भी उसके हाथ में थी। तभी आवाज सुनाई दी- क्यों भरतू, स्कूल में दाखिला ले लिया क्या?”
    भरतू ने चौंककर देखा उसका साथी रमन हंसता हुआ किताब की ओर इशारा कर रहा था। भरतू लजा गया। बोला- अरे जब पढ़ने की उम्र थी तब नहीं पढ़ सका तो अब क्या पढूंगा।फिर उसने बताया कि कोई बच्चा उसकी रिक्शागाड़ी में किताब भूल गया था।
     भरतू, रमन तथा और चार लोग एक किराए के कमरे में रहते हैं। सभी अपने अपने गांव से रोजगार की तलाश में शहर आए हैं। वे लोग भरतू की रिक्शा को चिडि़या खाना कहते हैं पर भरतू ने उसका नाम रखा है- गुलदस्ता। जब बच्चों को लेकर चलता है तो उसे सचमुच बहुत अच्छा लगता है।

अगली सुबह समय पर भरतू ने अपनी रिक्शा बाहर निकाली और बारी-बारी से बच्चों को लेने लगा। तभी रमेश नामक बच्चे ने कहा- मेरी किताब?” वह कुछ परेशान दिख रहा था। रमेश की मां सरिता ने भी कहा- भरतू, जरा ध्यान से देखना, रमेश की किताब नहीं मिल रही है।
भरतू ने किताब उनकी ओर बढ़ा दी। तभी रमेश ने कहा - तुमने मेरी किताब फाड़ी तो नहीं। किताब फाड़ना बुरी बात है।सुनकर भरतू हंस पड़ा। उसने कहा- नहीं  भैया, मैंने तुम्हारी किताब खूब ध्यान से रखी थी।
सारा दिन भरतू उसी किताब के बारे में सोचता रहा। दोपहर को रमेश को उसके घर के बाहर छोड़ते हुए भरतू ने कहा- क्यों भैया, जो तुम पढ़ते हो मुझे भी पढ़ा दो।
मैं क्या टीचर हूँ जो तुम्हें पढ़ाऊं।रमेश बोला।
मेरे टीचर बन जाओ न रमेश भैया। जो फीस मांगोगे दूंगा।भरतू ने हंसकर कहा।
ठीक है कल पढ़ाऊंगा।
क्या पढ़ाओगे?”
ए बी पढ़ाऊंगा।कहकर रमेश मां सरिता के साथ घर में चला गया। भरतू मुस्कुराया तो सरिता देवी भी हंस पड़ीं।
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अगले दिन रमेश ने भरतू से कहा- भरतू भैया, आज मैं तुम्हारे लिए ए और बी लाया हूँ और उसने बस्ते से निकालकर एक सेब और गेंद भरतू के हाथ में थमा दी। भरतू कुछ पूछता इससे पहले ही रमेश ने कहा- देखो ए से एप्पल यानी सेब और बी से बॉंल यानी गेंद। आज इतना ही पढ़ो- ए से एप्पल, बी से बॉंल ।
भरतू ने कहा- रमेश भैया, क्या रोज ऐसे ही पढ़ाओगे।
रमेश ने कहा- हां।और मां के साथ घर में दौड़ गया। भरतू सेब और बॉंल को हाथ में लिए खड़ा रह गया। उसने सोचा कल दोनों चीजें वापस कर देगा। उस रात देर तक ए और बी से खेलते रहे भरतू और उसके साथी। उनके बीच देर तक गेंद और सेब इधर से उधर उछलते रहे। कमरे में हंसी गूंजती रही। शायद इससे पहले ये लोग इतना कभी नहीं हंसे थे।
अगली सुबह रमेश के घर के बाहर पहुँचकर भरतू ने रिक्शा की घंटी बजाई। कुछ देर तक कोई जवाब नहीं मिला फिर रमेश की मां सरिता देवी बाहर निकलकर आई।
उन्होंने कहा- रमेश आज स्कूल नहीं जाएगा। उसे रात से बुखार आ रहा है।
सुनकर भरतू को मन में एक झटका सा लगा। वह बाकी बच्चों को स्कूल पहुँचाने चला गया। उस दोपहर वह गुमसुम रहा। ठीक से खाना भी नहीं खाया भरतू ने।
इसके बाद वाली सुबह रमेश के दरवाजे पर पहुँचकर उसने घंटी बजाई तो रमेश की मां बाहर आई। उन्होंने कहा- भरतू, रमेश की तबियत आज भी ठीक नहीं है। शायद एक-दो दिन और वह स्कूल न जा सकेगा।
भरतू के हाथ में ए और बी यानी सेब और गेंद थे। उसने सरिता देवी से कहा- ये दोनों मेरे मास्टरजी को दे देना मैडम जी। अब तो वह मुझे पढ़ायेंगे नहीं।“
सरिता देवी आश्चर्य से मुरझाए सेब और गेंद को देखती रहीं। फिर भरतू ने उन्हें सब बताया तो उनके चेहरे पर फीकी मुस्कान आ गई।
उस दोपहर भरतू ढाबे पर नहीं आया। वह रमेश के घर के बाहर जा खड़ा हुआ। आसपास कोई न था। वह कुछ देर तक धूप में खड़ा रहा फिर झिझकते हुए दरवाजे पर लगी घंटी बजा दी। कुछ पल ऐसे ही बीत गए। उसे दोबारा घंटी बजाना ठीक न लगा। न जाने रमेश की मां क्या सोचे । उसका मन रमेश से मिलना चाहता था पर संकोच भी था। वह वापस मुड़ने लगा तभी दरवाजा जरा सा खोलकर सरिता देवी ने बाहर झांका। भरतू को देखकर वह चौंक पड़ीं। उन्होंने कहा- भरतू, तुम इस समय कैसे?
भरतू सकपका गया। हकलाता सा बोला- जी, मैंने सोचा अपने मास्टरजी को देख लूं, उनकी तबीयत कैसी है?”
मास्टर जी शब्द पर सरिता देवी हंस पड़ीं। उन्होंने कहा- भरतू, तुम्हारे मास्टरजी की तबियत अब ठीक है। आओ, अंदर आ जाओ, धूप में क्यों खड़े हो।यह कहकर उन्होंने दरवाजा पूरा खोल दिया,
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 भरतू को लग रहा था इस समय आना शायद ठीक नहीं रहा, पर अब वापस नहीं लौटा जा सकता था। वह झिझकते कदमों से अंदर घुस गया।
    आओ भरतू, यहां आओ।कहते हुए सरिता देवी ने एक कमरे में आने का इशारा किया और फिर उसमें चली गईं।
    भरतू ने कहा- मैडम जी, अब आपने बता दिया न कि हमारे मास्टर जी ठीक हैं। बस अब जाता हूँ। आप तकलीफ न करें।
    नहीं, नहीं तकलीफ कैसी! तुम अपने मास्टरजी से मिलने आए हो तो क्या बिना मिले चले जाओगे? आ जाओ। इतना घबरा क्यों रहे हो?”
    भरतू ने देखा रमेश पलंग पर बैठा था। भरतू को देखते ही उसके होठों पर मुस्कान आ गई। बोला- भरतू भैया, तुम।
   कैसे हो मास्टरजी? कहते कहते भरतू हंस पड़ा उसने देखा- सेब और गेंद पलंग पर रमेश के पास रखी थी।
    भरतू, खड़े क्यों हो। बैठ जाओ।सरिता देवी ने कहा- उनके हाथ में पानी का गिलास और प्लेट में कुछ मिठाई थी।
    भरतू जमीन पर ही बैठ गया। सरिता देवी ने कहा- वहां जमीन पर नहीं कुर्सी पर आराम से बैठो।
    जी, मैं यहीं ठीक हूँ।भरतू ने कहा और उठ खड़ा हुआ। उसने कुछ खाया नहीं। मास्टरजी, जल्दी ठीक हो जाओ फिर आगे पढ़ाना।कहकर सेब और गेंद रमेश के हाथ से ले ली और बाहर निकल आया। रमेश की तबियत ठीक देखकर उसका मन खुश हो गया था। एक बार मन में आया था कि हौले से रमेश का सिर सहला दे, पर हिम्मत न हुई। बाहर निकलते हुए सरिता देवी की आवाज सुनाई दी- “भरतू, कल रमेश को लेने आ जाना, अब इसकी तबियत ठीक है।
   अगली सुबह रमेश मां के साथ घर से बाहर खड़ा मिला। भरतू से नजरें मिलते ही रमेश और सरिता  मुस्कुरा दिए। भरतू भी हंस दिया।
   दोपहर को रमेश को घर छोड़ने आया तो सरिता देवी ने कहा- भरतू, शाम को पांच बजे आना। आ सकोगे?” बहुत काम तो नहीं रहता?
   जी आ जाऊंगा।भरतू ने कहा और उसका मन प्रसन्न था।

   भरतू पांच बजे रमेश के घर के बाहर पहुँच गया। कुछ देर बिना घंटी बजाए सोच में डूबा खड़ा रहा। मन में कुछ डर था। न जाने रमेश की मां ने क्यों बुलाया है। कुछ देर बाद उसने घंटी बजा ही दी। दरवाजा रमेश ने खोला- उसे देखते ही हंस पड़ा। बोला- आओ भरतू, जब घंटी बजी तो माँ ने कहा “देखो भरतू आया होगा। आओ अंदर चलोकहकर रमेश ने भरतू का हाथ पकड़ लिया और कमरे में ले गया।
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सरिता देवी कुर्सी पर बैठी थीं। उन्होंने कहा- भरतू, यहां बैठो। रमेश बता रहा था तुम पढ़ना चाहते हो? अगर ऐसा है तो बहुत अच्छी बात है।
   भरतू लजा गया। बोला- मैडम जी, वह तो मैंने यूं ही मजाक में कह दिया था। भला अब क्या पढूंगा मैं। हां, गांव के स्कूल में मेरा बेटा नन्हा जरूर पढ़ता है।
भरतू, तुम्हारे घर में कौन-कौन हैं?” सरिता देवी ने पूछा। और भरतू उन्हें अपने गांव-घर की बातें बताने लगा। न जाने क्या-क्या बता गया फिर एकाएक रुक गया। बोला- माफ करना मैडमजी, मैं तो यूँ ही बकवास कर रहा था। भला ये भी कोई बताने की बातें हैं।“
अरे नहीं-नहीं, मुझे तो तुम्हारी बातें सुनकर बहुत अच्छा लगा है, और बताओ। असल में मैं तो कभी गांव गई नहीं। वहां लोग कैसे रहते हैं क्या करते हैं, उन्हें कैसी परेशानियां उठानी पड़ती हैं- यह सब कभी-कभी किताबों में पता चलता है या फिल्मों से।
भरतू उठने को हुआ पर सरिता देवी ने रोक लिया। बोली- मैंने जिस बात के लिए बुलाया था वह तो अभी कही ही नहीं। तुम पढ़ना चाहते हो, सुनकर मुझे बहुत अच्छा लगा। रमेश के पापा को  भी पसंद आई यह बात।
मैडम जी, वह तो मैंने ऐसे ही हंसी में कह दी थी।भरतू ने संकोच से कहा।
नहीं, इसमें संकोच कैसा। अगर तुम चाहो तो शाम को पांच बजे रोज आ सकते हो, मैं
पढ़ाऊंगी तुम्हें। शादी से पहले मैं बच्चों को पढ़ाया करती थी। अब भी मन करता है कोई ऐसा काम करने का।
पर भरतू तो बड़ा है मां।रमेश ने कहा।
पहले बच्चों को पढ़ाती थी तो अब बड़ों को पढ़ाऊंगीं। भरतू से ही शुरु होगा मेरा स्कूल।कहकर सरिता देवी हंस दीं।
जी, आप रहने दें। अब पढ़कर क्या होगा? मेरा काम तो चल ही रहा है और फिर फीस कहां से दे सकता हूँ।भरतू ने कहा।
भरतू, मैं तुम्हें पढ़ाऊंगी। और तुम मुझे अपने गाँव के बारे में बताओगे- वहां के लोग, खेत, जंगल, पहाड़, वहां के परिंदे।मुझे ये सब बातें कहां पता हैं अभी। वही होगी तुम्हारी फीस।सरिता हंसकर बोली।
भरतू नमस्ते करके उठ खड़ा हुआ। तो क्या मुझे आप सचमुच पढ़ाएंगी?” उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
हां, भरतू मैं सच कह रही हूँ। जिस दिन मुझे कोई काम होगा, मैं तुम्हें बता दूंगी जब तुम रमेश को छोड़ने आओगे।
बाहर निकलने से पहले रमेश के सिर पर हाथ रखने से खुद को नहीं रोक पाया भरतू। ऐसा करते समय उसकी आँखे  भीग गईं।(समाप्त)