कबूतरों वाली हवेली
उसे
सब कहते थे-कबूतरों वाली हवेली। शहर से स्टेशन की तरफ जाते हुए जहां सड़क नदी के
पास से गुजरती है,
वहीं
बनी है वह हवेली। उसकी ऊंची अटारी दूर से ही दिखाई देती है। लगात है जैसे पुराने
जमाने का कोई महल हो। उसके मालिक हैं सेठ लखमा जी। बहुत पैसे वाले हैं। लोग कहते
हैं, उनके धन का कोई हिसाब नहीं है। लेकिन
आज-कल सेठजी यहां नहीं रहते। इंग्लैंड, अमरीका, यूरोप
में बिजनेस है, वहीं घूमते रहते हैं। हवेली के दरवाजे
पर पीतल की नेम प्लेट लगी थी। उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था-सेठ लखमा जी
बरसावरिया। बरसावरिया उनके गांव का नाम है।
लेकिन
फिर भी लोग उसे कबूतरों वाली हवेली कहते हैं। सेठजी का नाम कभी नहीं लेते-ऐसा
क्यों है? यह हवेली के सामने जाने पर ही पता चलता
है। हवेली के सामने वाली जमीन पर सुबह से शाम तक हजारों कबूतरों को दाना चुराते
देखा जा सकता है। हवा में पंखों की फड़फड़ाहट और कबूतरों की संतुष्ट गुटरगूं सुनाई
देती है। लोग आते हैं, दाना
खरीदकर कबूतरों को चुगाते हैं और संतुष्ट भाव से चले जाते हैं।
हवेली
के सामने वाली पटरी पर बहुत-से लोग बैठकर दाने बेचते थे। पूरे शहर में कबूतरों
वाली हवेली और उसके मालिक का नाम मशहूर हो गया था।
हवेली
नौकरी के हवाले थी। वे हफ्ते में एक बार आकर झाडू-पोंछा कर देते थे। बाकी समय
विशाली वहेली अंदर से खामोश रहती थी। कबूतर अधिकार पूर्वक हवेली के हर हिस्से में
उड़ते फिरते थे।
लेकिन
एक सुबह वहां विशेष हलचल दिखाई दी। कई कारें आकर रुकी। अनेक लोग उतरे और हवली में
चले गए। काफी सामान भी साथ था। खबर फैल गई, हवेली के मालिक अमरीका से आए हैं। अब यही रहेंगे।
उस
पूरे दिन हवेली में हलचल रही। दिन भर बड़ी-बड़ी कारों में लोग आते-जाते रहे।
दर्जनों नौकर अंदर बाहर भागदौड़ कर रहे थे। लेकिन कबूतरों पर कोई फर्क नहीं पड़ा
था। वे उसी तरह हजारों की संख्या में दाना चुगते, उतरते और उड़ते रहे। उनके पंखों की सम्मिलित फड़फड़ाहट काफी दूर-दूर
तक सुनी जा सकती थी।
अगली
सुबह हवेली के मालिक डेªसिंग
गाउन पहने बाहर निकले ओर इधर-उधर घूम-घूमकर देखने लगे। कुछ देर खड़े रहे फिर अंदर
चले गए। थोड़ी देर बाद दो नौकर बाहर आए और उन्होंने तालियां बजाकर कबूतरों को उड़ा
दिया। आवाज होने से कबूतर उस समय तो उड़ गए, लेकिन थोड़ी देर बाद पंख फड़फड़ाते हुए फिर नीचे आ उतरे ओर मजे से
दाना चुगने लगे। कबूतर दाना चुगने लगते तो नौकर उन्हें फिर उड़ा देते। हवा में
गूंजने वाली पंखों की आवाज ओर भी तेज हो गइ। सारा दिन यही खेल चलता रहां आसपास
देखने वालों की भीड़ लग गई कि कबूतरों वाली हवेली पर क्या तमाशा हो रहा है।
अमरीका
से लौटे सेठजी को कबूतरों का यह रवैया पसंद नहीं था। उन्होंने नौकरों से कह दिया-‘‘कबूतर यहां गंदगी फैलाते हैं, हर समय आवाज होती है, तमाशबीन मजमा लगाए रहते हैं। कबूतरों
को यहां मत बैठने दो।’’ फिर
तो एक-दो आदमी दिन भर हवेली के बाहर खड़े रहते और कबूतरों को आराम से दाना न चुगने
देते। पर कबूतर नीचे उतरते तो वे आवाज करके उड़ा देते। कबूतर थे कि हर बार लौट
आते।
बहुत
से फटेहाल लोग लाइन में बैठकर हवेली के सामने दाना बेचते थे। यह भी सेठजी को ठीक
नहीं लगता था। उनकी राय में इससे हवेली की शान में फर्क आता था। हवेली के सामने
वाली जमीन भी सेठजी की थी। उन्होंने उसके चारों ओर कंटीले तारों की बाड़ लगवा दी।
सेठजी को उम्मीद थी कि इस तरह कबूतरों का आना रुक जाएगा। लेकिन इससे भी कोई फर्क
नहीं पड़ा। कबूतर आकाश से उतरते और लोग तारों के बीच से दाने उछालकर अंदर की तरफ
फेंक देते।
एक-दो
दिन इसी तरह चला,
फिर
एक दिन पुलिस की गाड़ी आई और हवेली के बाहर बैठकर दाना बेचेन वालों को पकड़ ले गई।
सेठजी ने शिकायत की थी कि कुछ लोग गैरकानूनी ढंग से हवेली के बाहर वाली जमीन पर
कब्जा जमाए बैठे रहते हैं।
तर
लग गए, दाने बेचने वाले उठा दिए गए, पर कबूतर फिर भी आते थे। लोग देर से
दाना लाकर वहां डाल देते थे। इसी तरह खेल चलता रहा, सेठजी का गुस्सा था कि बढ़ता जा रहा था। एक सुबह जब कबूतरों का झुंड
वहां दाना चुग रहा था और कंटीले तारों के बाहर लोग रोज की तरह खड़े थे तो सेठजी
हाथ में शाटगन लेकर निकले। हवा में जोर की आवाज हुई। सारे कबूतर उड़ गए, लेकिन कुछ मरकर वहीं गिर पड़े। खून के
छींटे दूर-दूर तक बिखर गए।
लेकिन
कबूतर अभी गए नहीं थे, वे
ऊपर आकाश में मंडरा रहे थे। सेठजी ने जोर से कहा-‘‘मैं सारे कबूतरों का खत्मा कर दूंगा। देखता हूं, अब यहां कैसे दाना चुगते हैं।’’ कहकर वे जोर से हंस पड़े। और उन्होंने
आकाश की ओर बंदूक का मुंह करके फिर छर्रे दाग दिए। एक साथ कई आवाजें हुईं। कंटीले
तारों के बाहर खड़े सब लोग डरकर भाग गए। कबूतर भी एकाएक न जाने कहां चले गए। उनके
पंखों की फड़फड़ाहट और संतुष्ट गुटरगूं एकदम बंद हो गई। रह गए हाथ में शाटगन थामे
सेठजी। उनके सामने जमीन पर कुछ मरे कबूतर पड़े थे और बिखरी थीं खून की बूंदें।
तभी
कंटीले तारों के पार खड़े एक बूढ़े ने कहा-‘‘वाह सेठजी, खूब
किया। लोग जंगल में मंगल करने की सोचते हैं, लेकिन आपने तो पूरी बस्ती को ही खंडहर बना दिया।’’
‘‘बस्ती!’’ सेठजी ने अचरज से पूछा।
‘‘यहां हजारों कबूतर आते थे, सेकड़ों लोग उन्हें दाने डालते थे। न जाने
कितने लोगों की रेाजी चलती थी। हरी-भरी बस्ती ही तो थी यह कबूतरों वाली हवेली। अब
खूनी हवली कहलाएगी। आपकी बंदूक में इतनी ताकत तो है कि वह मार दे, दूर भगा दे लेकिन उसमें इतनी शक्ति
नहीं कि यहां फैले सन्नाटे को दूर कर दे।’’ यह कहकर वह चला गया। सेठजी शून्य में देखते
खड़े रहे, फिर अंदर चले गए। सचमुच बहुत सन्नाटा
छा गया था वहां। न हवा में कोई आवाज थी, न बाहर कोई हलचल। सारी आवाजें जैसे एक-साथ खो गई थी।
फिर
तो वह सन्नाटा जेसे वहां जड़ जमाकर बैठ गया। सेठजी बाहर न आते। आते तो जल्दी-से
कार में बैठ कर चले जाते। हवेली के चारों ओर सन्नाटे ने जैसे अपना जाला बुन लिया
था। कबूतर और मनुष्य-दोनों ने उनका भाव समझ लिया था। लोग वहां से गुजरते तो आपस
में इशारे करते हुए। पूरा शहर जान गया कि कबूतरों वाली हवेली का आंगन खून से रंगा
था। सेठजी उस सन्नाटे को ज्यादा दिन तक नहीं सह कसे।
कुछ
दिन बाद लोगों ने देखा कि कई कारें एक साथ हवेली से निकलीं। उन पर काफी सामान लदा
हुआ था। फिर कारें वापस न आईं। पूछने पर पता चला सेठजी सपरिवार तीर्थयात्रा पर गए
हैं, और वही से वापस अमरीका चले जाएंगे।
उन्होंने
में रहने का इरादा छोड़ दिया था। कोई समझ न सका कि ऐसा क्यों हुआ था। फिर एक दिन
देखा गया कि मजदूर आकर कंटीले तार हटा रहे हैं। पता चला सेठजी ऐसा ही आदेश दे गए
थे।
थोड़े
दिन बाद कबूतर वहां फिर मंडराने लगे। दाने बेचने वालों की कतार नजर आने लगी। सब
कुछ पहले जैसा हो गया। कबूतरों वाली हवेली कबूतरों को वापस मिल गई थी।